अहंकार के पाषाण को विखण्डित करना वज्र शिला भेदने से भी ज्यादा कठिन है क्षमायाचना : आर्यिकाश्री सरस्वती भूषण माताजी

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मन के बोझ को उतारे क्षमावाणी – आर्यिका श्री सरस्वती भूषण माताजी
(चातुर्मास 2021 : नोएडा सेक्टर-50)

सान्ध्य महालक्ष्मी / 17 सितंबर 2021
पर्वाधिराज पर्युषण के विगत दस दिनों में हमने स्वभाव-विभा, धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप आदि को सामूहिक रूप से समझा। इन पावन दिनों में प्रवाहमान अध्यात्म तरंगे सभी अहिंसा धमानुयायियों को सराबोर नहीं स्पर्शित तो कर ही लेती हैं। जैसे समुद्र की तूफानी लहरें टापू को भी जलमग्न कर देती हैं, उसी तरह पर्वराज में प्रवाहित धर्म रत्नाकर की तरंगे पापी हृदयों को भी धर्ममय कर देती हैं, तभी तो 355 दिन मंदिर से विमुख रहने वाले दस दिन के दिनों में जैनी बन कर व्रत-उपवास, पूजा-पाठ आदि के प्रति तत्पर देखने में आते हैं।

क्रोध कषाय से रहित निर्मल आत्मीय परणीति का नाम क्षमा है और इस निर्मलता, कषाय रहितता, नम्रता की वाणी से अभिव्यक्ति क्षमावाणी है। दसलक्षण पर्व में दस दिन तक उत्तम क्षमादि दस धर्मों की चर्चा से, चिंतन – मनन, पठन-श्रवण से समता, मृदुता, ऋजुता, शुचिता आदि भावों का संचार होता है। कषाय पाप, आसक्तता, बैर-विरोध आदि भावों का प्रशमन होता है। विगत समय में हुई त्रुटियों के प्रति पश्चाताप सहज रूप से होता है। ज्येष्ठता को दरकिनार कर श्रेष्ठता पर दृष्टि जाती है, तब छोटा-बड़ा, स्वामी-सेवक, पिता-पुत्र आदि का भाव न रहकर सीधे गुणों पर दृष्टि केन्द्रित होती है। स्वयं ही भूलों से मन खिन्न हो उठता है तथा क्षमा याचना के लिये हाथ जुड़ जाते हैं।

स्वत: सहज की यह प्रक्रिया शब्दों में जितनी सरल है, आचरण में संभवत: उतनी ही कठिन है। अहंकार के पाषाण को विखण्डित करना वज्र शिला भेदने से भी ज्यादा कठिन है। क्षमामय वचनों में सर्वाधिक बाधक दर्प का दुर्ग ही है, क्योंकि क्षमा का जन्म क्रोध के अभाव में होता है, परन्तु क्षमायाचना मान के अभाव में हो पाती है। मृदुता की युद्ध भूमि में ही क्षमामय वचनों के अंकुर प्रस्फुटित होते हैं।

सत्य तो यह है कि भगवान महावीर का सन्देश याचना का नहीं, जागृति का है। हम लौकिक कार्यों की भांति यहां भी मांगने की परम्परा बरकरार रखे हुए हैं। भगवान से, गुरु से, जिनवाणी से, सभी से हम मांगते हैं। इसी परम्परा में क्षमा भी मांग लेते हैं।
आध्यात्मिक दृष्टि से निज आत्मा से आगमिक दृष्टि से देव-शास्त्र गुरु से और लोक व्यवहार में माता – पितादि से क्षमा मांगना क्षमावाणी है। प्रारम्भिक दो दृष्टियों पर हमारा कोई पुरुषार्थ नहीं है। हां, व्यवहारिक दृष्टि से अवश्य हम क्षमावाणी का आयोजन कर लेते हैं, कार्ड भेज देते हैं, व्हाट्स अप कर देते हैं। आॅन लाइन कार्यक्रम कर लेते हैं। मित्रों से, हितैषियों से क्षमायाचना कर लेते हैं। जिसेक प्रति कषायवेग में अनर्थकारी, कार्य किये गये हों, उनके प्रति बंधी बैर की गांठ नहीं खोल पाते। हमारा अभियान प्रतीक्षा करता है सामने वाले के झुक जाने का। उसके द्वारा क्षमा मांगने का।

एक बार समझने की कोशिश करें कि कषायें हमारे मन को बोझिल बना देती है और जब हम किसी को क्षमा कर देते हैं, तो बोझा उतर जाता है। हम स्वयं को हल्का, शांत महसूस करते हैं। यह पर्व हम इसीलिये मनाते हैं कि वर्ष भर का बोझ उतर जाये। हमारे मृदु वचन दूसरे के कर्ण पुष्ट से प्रवेश कर हृदय पटल पर आच्छादित बैर-भाव की मलिनता का प्रक्षालन कर दें। ‘माधुर्य गुणप्रीति’ प्रीति का निर्मल नीर प्रवाहित हों, जिसमें स्नानीभूत हो निजानन्द का अमृत पान कर सके।

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