07 दिसंबर 2022/ मंगसिर शुक्ल पूर्णिमा /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी
दुर्ग महापंचकल्याणक की शुरूआत से पहले ही नसियां जी में ऊपर रखी सप्तमुखी तीर्थंकर चन्द्रप्रभ प्रतिमा ने पूरे जैन समाज को हतप्रभ में डाल दिया।
क्या इसको प्रतिष्ठित किया जाएगा? यह सवाल हर के मस्तक में घूम रहा था, यहां तक कि आचार्य श्री विशुद्ध सागरजी के संघ में भी। कारण भी था, ठीक इसी प्रकार की एक प्रतिमा की इन्हीं आचार्य द्वारा दो वर्ष पहले बीसपंथी कोठी पंचकल्याणक में प्रतिष्ठित की गई थी। बाद में कमेटी ने विवाद बढ़ने की संभावना देखकर उसे वेदी की बजाए एक कांच के कवर वाली अलमारी में रख दिया था
वैसे ऐसे ही एक प्रतिमा लंदन म्यूजियम में विराजमान है, जिस पर 1935 संवत की प्रशस्ति लिखी हुई है, और उसे भट्टारक सुरेन्द्र कीर्ति (जिनके द्वारा अनेक जगह प्रतिमायें प्रतिष्ठित कराई गई) द्वारा सूरि मंत्र दिये गये थे।
तब भी शायद यह प्रतिमा समाज में स्वीकार्य नहीं हुई होगी, तभी लंदन के म्यूजियम में पहुंच गई। अनेक संतों और विद्वानों ने इसका पुरजोर विरोध करते हुए आचार्य श्री विशुद्ध सागरजी से विनम्र अनुरोध किया कि यह आगम व परम्परा के विरुद्ध है। जैन धर्म में 5-7 मुखी प्रतिमायें नहीं होती। समोशरण में चारों ओर छवि दिखाने वाले तीर्थंकर की छवि वाली प्रतिमायें पूरे शरीर के साथ पदमासन / खड्गासन ही विराजित की जाती हैं।
शास्त्रि परिषद के अध्यक्ष डॉ. श्रेयांस कुमार जैन (बड़ौत) के अनुसार आगम के अनुरूप तो केवल एक ही मुख वाली प्रतिमायें पदमासन या खड्गासन में प्रतिष्ठित की जाती हैं। कुछ जगह समोशरण की छवि के रूप में मानस्तम्भ आदि में चारों दिशा में पूरे शरीर वाली प्रतिमायें विराजित की जाती हैं।
विद्वत परिषद द्वारा भी आचार्य श्री से अपील की गई। श्रावकों की जिज्ञासाओं का इसी परिपेक्ष्य में निर्यापक श्रमण श्री सुधा सागरजी तथा मुनि श्री प्रमाण सागरजी ने भी आगम सम्मत खुलासा किया।
सान्ध्य महालक्ष्मी व चैनल महालक्ष्मी ने भी आचार्य श्री तक इस बात की अपील पहुंचाई तथा कमेटी द्वारा स्पष्ट किया गया कि पंचकल्याणक पत्रिका में ऐसी किसी प्रतिमा का उल्लेख नहीं है, इसलिये सप्तमुखी प्रतिमा के सूरि मंत्र दिये जाने का सवाल ही नहीं। इस बारे में किसी व्यक्ति ने जान बूझकर मनगढ़ंत हवा उड़ाई है।
खैर, प्रतिमा प्रतिष्ठित नहीं होगी, पर शो पीस के रूप में भी इस तरह की प्रतिमा क्यों रखी जाये? आज आगम व परम्पराओं के विपरीत प्रतिमायें तैयार करवाई जाने लगी हैं, जो निश्चय ही सही नहीं है।
बिना कान की सातमुख व एक धड़ के साथ प्रतिमा कल अन्य सम्प्रदाय को कब्जा लेने को आकर्षित करेगी, क्योंकि इस तरह की मूर्तियां वैष्णव धर्म में होती हैं, पर जैन धर्म में कदापि नहीं।
सभी वंदनीय संतों, विद्वानों व प्रबुद्ध श्रेष्ठीगणों से सान्ध्य महालक्ष्मी पुरजोर अपील करता है कि आगम व परम्पराओं के विरुद्ध कोई कार्य नहीं करना चाहिये। आगम के विरुद्ध कार्य करना या परम्पराएं तोड़ना जैन धर्म, संस्कृति का निरादर व अवर्णवाद ही होगा।
– शरद जैन