क्या संतों को अपनी चर्या का अनुपालन करने की बजाय अशोभनीय कृत्य करना, कहां तक सही हैं?

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सान्ध्य महालक्ष्मी / 05 दिसंबर 2021
नवम्बर मध्य में, जगह-जगह चातुर्मास निष्ठापन सम्पन्न हुए। ऐसा ही एक निष्ठापन दिल्ली में हुआ 19 नवंबर को। जैन समाज के एक सम्प्रदाय में एक परम्परा है कि उसके बाद वे किसी श्रावक के घर जाते हैं, चातुर्मास परिवर्तन कि लिए। परम्परा बनी है तो गलत नहीं है, पर श्रावक या श्राविका के घर जाकर अपने मूल अस्तित्व से बहक जाना, अपनी चर्या का अनुपालन करने की बजाय अशोभनीय कृत्य करना, कहां तक सही है। इस घटना को छिपाया भी जा सकता था, क्योंकि कुछ ऐसे भी हैं, जिन्हें धर्म की श्रेष्ठता को बरकरार रखने से ज्यादा, बदनामी के डर से छिपाना सही लगता है।

पर जब तक गलत और गल्तियों को छिपाते जाएंगे, ऐसी घटनायें (दुर्घटनाएं) बढ़ती जाएंगी और कल तक जो 24 टंच सोने से भी ज्यादा शुद्ध-अनमोल समृद्ध जैन संस्कृति कही जाती रही है, वो पहले ही अपनी कम संख्या के कारण लुप्त होती जा रही है, ऐसी घटनाओं से, उसके समाप्त होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी और रटते यही रहेंगे कि भगवान महावीर का जिनशासन 18,500 वर्ष और चलेगा।

हां, बात कर रहे थे, एक साधु के संघ की, वो पूरा संघ एक श्राविका के घर गया। संयोग से उस दिन वहां महिला का जन्मदिवस था, बड़ा-सा केक तैयार था। यहां तक सब ठीक है, पर उसके बाद संतों व साध्वियों द्वारा केक को काटना और संतों द्वारा अपने हाथों से महिलाओं को खिलाना, यह कहां की चर्या है। श्राविका के घर जाते ही अपना मूल पाठ भूल जायें, चर्या भूल जायें, ऐसा क्या संतपना है?

उनमें से एक मुम्बई के थे, बात वहां तक पहुंच गई। और फिर श्रावक परिवार ने तो केक खिलाते वीडियो – फोटो सोशल मीडिया पर डाल दिये। मुम्बई से इस घटना की सूचना दिल्ली- गुजरात -कुंथनाथ सोसाइटी के प्रमुख रोहित भाई को दी। संत संघ को बाद में होश आया, उन्होंने अब गलती के बाद सही कदम उठाते हुये अपने गुरु गच्छाधिपति से संपर्क किया। उन्होंने तत्काल समाज को पत्र लिखकर क्षमा मांगने व मिच्छामी दुक्खडं को निर्देश दिया। किया भी, और यह सब गुजरात के बड़े अखबार में बाकायदा छपा भी।

सवाल यही उठता है कि क्या आवेश में या भावेश में, या श्रावक-श्राविका के ‘खास’ होने पर हम अपने पद की ‘गरिमा’ तक को भूल जाते हैं। क्या अभी भी हमारा मन इतना चंचल है? जिसको वंदनीय मानते हैं, उनसे क्या ऐसे कृत्य की अज्ञानता में भी कल्पना की जा सकती है? कहीं ना कहीं हमारे यहां शिक्षा की, स्वाध्याय की कमी स्पष्ट दिखती है। महावीर स्वामी का रथ लेकर बढ़ते हुए ऐसी असावधानी, क्या किया जाए, कि आगे से ऐसी पुनरावृत्ति न हो?

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