समवशरण-तीर्थंकर की धर्मसभा-आठ भूमियाँ-गोलाकार -धरती से 30,0000 फिट की ऊँचाई पर आकाश में -1.5-1.5 फिट की बीस हजार सीढ़ियाँ

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जिस स्थान पर तिर्यन्चों,मनुष्यों,देवों,देवांगनाओं को भगवान् के उपदेश सुनने का समान अवसर मिले,उसे समवशरण कहते है!अर्थात भगवान तीर्थंकर, के दिक्षित होने के बाद,चार घातिया कर्मों के क्षय होने से केवल ज्ञान होने पर, की धर्म सभा को समवशरण कहते है!केवल ज्ञान होते ही भगवान का शरीर पृथ्वी से ५००० धनुष =३०००० फिट ऊपर उठ जाता है!

केवल ज्ञान होने की सूचना का ज्ञान ,देवों/इन्द्रों को घंटों की आवाज़ शंखनाद,सिंह नाद आदि से मिल जाती है तथा अपने अवधिज्ञान से इंद्र,पता लगा लेते है की किस स्थान पर भगवान् को केवल ज्ञान हुआ है !इंद्र अपने स्थान पर खड़े होकर सात कदम आगे बढ़ कर भगवान् को नमोस्तु कर,कुबेर को समवशरण की रचना का आदेश देते है,जिसके अनुपालनार्थ कुबेर केवलज्ञान स्थल पर पहुंचकर समवशरण की रचना करते है!

समवशरण रचना – जिस स्थान पर भगवान् पृथ्वी से ऊपर उठते है ,उसी स्थान पर नीचे की ऒर एक टीले के आकर की रचना और उसके समतल पर सात भूमियों के बाद अष्टम भूमि श्रीमंड़प की रचना करते है जिसमे वृताकार आकृति १२ कोठो मे विभक्त होती है

पहले कोठे में मुनि गन,११ वे कोठे मे मनुष्य ,१२ वे कोठे में सैनी पशु बैठते है!इन १२ कोठों के बीच मे ,तीन पीठ एक के ऊपर दूसरी ,दूसरी के ऊपर तीसरी और उसके ऊपर गंधकुटी होती है! उसके ऊपर एक रत्नों से मंडित सिंहासन होता है,उसके ऊपर एक कमल होता है,जिस से चार अंगुल ऊपर अन्तरिक्ष में पद्मासन में तीर्थंकर भगवान् विराजमान होते है!जहाँ भगवान् विराजमान होते है वहां अष्ट प्रातिहार्य होते है,१० केवल ज्ञान के अतिशय होते है,तथा देवकृत १४ विशेषताए और होती है!

नीचे से ऊपर ३०००० फिट पर पहुचने के लिए २०००० सीडियां चारों दिशाओं मे होती है,इन्हें आधुनिक एस्केलेटर के सामान कल्पना कर सकते है,जिसकी प्रथम सीडी पर पैर रखते ही बच्चे,बूढ़े,जवान सभी पल झपकते ही ऊपर समवशरण में पहुँच जाते है!

वहां पहुंचते ही चारों दिशाओं मे चार मानस स्तम्भ दिखते है जिन्हें देखकर आगुन्तक का मान गलित हो जाता है,उसका श्रद्धानं भी ठीक हो जाता है! इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है की समवशरण मे सिर्फ सम्यग्दृष्टि ही प्रवेश करते है,या सभी सम्यग्दृष्टि हो जाते है, वरन अधिकांशत:सम्यग्दृष्टि प्रवेश करते है!समवशरण तीनों लोकों मे दर्शनीय स्थान होते है !इन्द्रों के महल और सभाये भी इनके समक्ष फीकी होती है !

समवशरण तीर्थंकर केवलियों के ही बनते है ,सामान्य केवलियों के नहीं बनते!सामान्य केवलियों के भी शरीर ५००० धनुष ऊपर उठ जाते है किन्तु उनकी धर्म सभा के बीच में गंधकुटी की रचना होती है! भगवान् अन्तरिक्ष मे सिंहासन पर चार अंगुल ऊपर,विराजमान होते है!

यह अंतर तीर्थंकर,अर्थात तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले भगवान् होने के कारण यह विशेषता होती है !सामान्य केवली जैसे भगवान् बाहुबली जी,भगवान् भरत , भगवन रामचंद्र जी,इनके समवशरण नहीं होते मात्र गंध कुटी होती है! (पदम् पुराण में राम चन्द्र जी के समवशरण की रचना का वर्णन आया है सही तो केवली ही बता पायेंगे)! इसमे से निरंतर सुगंध निकलने के कारण इसे गंधकुटी कहते है!

भगवान के उपदेश सुनने का अधिकार सैनी पशुओं को,मनुष्यों को,और देवों को है क्योकि नारकी यहाँ आ नहीं सकते!

जाता है! अत:उत्तरपुराण /महापुराण का वक्तव्य अधिक सही प्रतीत होता है !तदानुसार,हर प्रकार के जीव को ध्वनि सुनने का अधिकार है चाहे वे उसे स्वीकार करे या नहीं करे!
भगवन की दिव्य ध्वनि के विषय मे भिन्न-भिन्न शास्त्रों मे तीन प्रकार के प्रमाण मिलते है कुछ शास्त्रों मे लिखा है दिव्य ध्वनि दिन में ६-६ घड़ी चार बार खिरती ,कुछ मे लिखा है ६-६ घड़ी दिन मे तीन बार खिरती है,कुछ मे लिखा है ९-९ घड़ी तीन बार होती है!घड़ी=२४ मिनट !सुबह ६ बजे,दोपहर १२ बजे सांय ६ बजे और रात्रि १२ बजे! समवशरण में रात्रि होती नहीं क्योकि भगवान् के शरीर से सैकडों सूर्यों से अधिक प्रकाश निकलता है!इसलिए समवशरण मे दिन -रात्रि का भेद ही नहीं होता!सदा प्रकाश ही प्रकाश रहता है!यहाँ रात्रि का प्रयोग भारत क्षेत्र के आर्य खंड की अपेक्षा से कहा है !

समवशरण मे जीवों मे राग द्वेष बुद्धि नहीं होती जैसे गाय और शेर एक साथ बैठते है! वहां बैठने वालों को भूख,प्यास,नींद,थकान आदि किसी की कोई बाधा नहीं होती है ! वे एक दूसरे से टकराते नहीं !सर्दी गर्मीकी बाधा नहीं होती!

समवशरण मे कोई विकेलेंद्रिय जीव बाधा नहीं डालता क्योकि वहां वे होते ही नहीं !यहां प्रवेश करते ही समस्त क्रोध,मान,माया,लोभ आदि से मुक्ति हो जाती है! भगवान् को औषधऋद्धि प्राप्त है इसलिए कोई रोगी नहीं रहता!समवशरण मे विराजमान सभी जीवों को अपने सात भव ,३ भूत ३ भविष्यत् और वर्तमान स्पष्ट दिखते है!

भगवान् का विहार -जब एक स्थान का समय पूर्ण हो जाता है इंद्र, अवधि ज्ञान द्वारा जान लेता है की अगले स्थान के लिए विहार का समय आ गया !तब वह समवशरण मे घोषणा करते है कि अब दिव्यध्वनि नहीं होगी भगवान् का विहार होगा!समवशरण मे उपस्थित जीव या तो विहार में शामिल हो जाते है या अपने २ घर चले जाते है! भगवान् जो पद्मासन मे विराजमान थे ,वही खड़े हो जाते है !इंद्र अवधि ज्ञान से जानकार कि भगवान् को किस ऒर (जिस ऒर के जीवों के पुन्य होता है को जानकार) जायेंगे,आकाश मे मार्ग की रचना करते है! भगवान् का विहार इस मार्ग पर होता है!

विहार जलूस के रूप मे होता है ,जिसमे सबसे आगे धर्म चक्र ,१००० आड़े वाला,दिव्यप्रकाश सहित चलता है!उसके पीछे करोड़ों देवताओं के बाजे होते है,उनके पीछे भगवान् होते है, उनके पीछे मुनिगन और श्रावक गन चलते है!भगवान के विहार के समय देव भगवान् के चरणों के नीचे १५-१५ स्वर्ण कमलों की पंक्तिया बनाते जाते है कुल २२५ कमल होते है भगवान् मध्यस्थ कमल के चार अंगुल ऊपर कदम/डग रखते हुए चलते है!कदम आगे रखते ही एक पंक्ति कमलों की पीछे से हटकर आगे बन जाती है !भगवान् के इच्छा के अभाव के कारण जहाँ के लोगों के पुन्य/भाग्य का उदय होता है उस ऒर विहार होता है क्योकि भगवान् को किसी से भी किसी प्रकार का राग द्वेष नहीं होता!

सारे समवशरण फोल्डिंग होते है !ये पहले और दूसरे स्वर्ग मे जैसे के तैसे एक विमान और दूसरे विमान के बीच असंख्यात योजन भूमि में विराजमान रहते है! इनकी रचना भगवान के शरीर की अवगाहना के अनुसार होती है!यह समवशरण मायामयी नहीं है !यदि मायामयी माने जाये तो मानस्तंभ पर विराजमान प्रतिमाये वन्दनीय नहीं हो पायेगी!देव बहुत शक्ति शाली होते है वे एक स्थान से उठाकर समवशरण को जिस स्थान पर सभा होनी होती है वहां स्थानातरित कर देते है!

समव शरण मे विराजमान गणधर- जो भगवान की निरअक्षरी दिव्यध्वनि का एक एक शब्द समझ सकते है,उसे झेलने में समर्थशील होते है ,वे गंधर देव, मुनिवरों में विशेष होते है! ये अनेक होते है!आदिनाथ भगवान् के ८४ ,महावीर भगवान् के मात्र ११ थे! इनके ६३ ऋद्धियाँ,ज्ञान ऋद्धि के अतिरिक्त,होती है! ये गंधर बनने से केवलज्ञान होने तक,कभी भी जीवन में आहार नहीं लेते,क्योकि निरंतर भगवान् के समवशरण मे विराजमान रहते है जहाँ भूख,प्यास आदि लगते ही नहीं है !धवलाकार ने इन्हें सर्वकाल उपवासी कहा है! ये दिप्तिऋद्धि धारी होते है,जिसके फलस्वरूप ये वर्षों तक भी निआहार रहते हुए भी, इनके शरीर की काँति कम नहीं होती है!

हमें समाधी पूर्वक ही मरण करना चाहिए !जब अपनी समाधी हो या किसी की समाधी हो ,उस समय सभी ऐसी भावना भाना की हमारा अगला जन्म विदेह क्षेत्र में हो ,वह हमेशा ही समवशरण में तीर्थंकर विराजमान होते है !सीमंधर स्वामी के समवशरण मे जाए,मुनि बने,कर्मों कोकात कर मोक्ष प्राप्त करे!