श्रीमान् हेमन्त काला जी का लेख “समयसार दिगम्बर आम्नाय का प्रामाणिक ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि बालबुद्धि दृष्टान्तों से भरा हुआ है” पढ़ा | इतना हल्का है कि कुछ भी उत्तर लिखने का भाव नहीं हो रहा है, लेकिन फिर भी अति संक्षेप में कुछ कहता हूँ | शायद कुछ लाभ हो जाए |
आजकल हमारी समाज में ऐसे ही दो-चार लोग और अभी नये-नये उत्पन्न हुए हैं, जिनकी बातें बहुत ही हल्की स्तर की हैं और उनका विषय है केवल समयसार या कुन्दकुन्द का विरोध करना | यद्यपि पहले तो ये लोग ऐसा कहते थे कि समयसार गृहस्थों को नहीं पढना चाहिए, पर अब स्वयं गृहस्थ होते हुए भी उसे पढ़ रहे हैं और उस पर लेख लिख रहे हैं |
यही उनका बड़ा भारी पूर्वापर विरोध है | तथा पहले तो उनकी बात में उनका यह भी कहना था कि समयसार को मुनि पढ़ सकते हैं, पर अब तो इन्होंने उसे “दिगम्बर आम्नाय का प्रामाणिक ग्रन्थ नहीं है” -ऐसा ही कह दिया है अर्थात् अब तो इनके अनुसार इसे मुनिराज भी नहीं पढ़ सकते | जो भी आज अनेक मुनिराज विद्यासागरजी, विशुद्धसागरजी आदि इसे पढ़ रहे हैं, इस पर प्रवचन कर रहे हैं, वे सब अप्रामाणिक हो गये | समयसार पर आजतक जिन अमृतचन्द्र, जयसेन, प्रभाचंद्र, शुभचन्द्र आदि ने टीकाएँ लिखी हैं, वे सब अप्रामाणिक हो गये | अनेक आर्यिका माताओं ने भी इसकी टीका, अनुवाद आदि के कार्य किये हैं, वे भी सब अप्रामाणिक हो गये | मनोहरलालजी आदि अनेक वर्णियों ने भी इसकी टीका, अनुवाद, प्रवचन आदि के कार्य किये हैं, वे भी सब अप्रामाणिक हो गये |
ब्र. सीतलप्रसादजी आदि अनेक त्यागी-व्रतियों ने भी इसकी टीका, अनुवाद, प्रवचन आदि के कार्य किये हैं, वे भी सब अप्रामाणिक हो गये | डॉ. ए. एन. उपाध्ये, प्रो. ए. चक्रवर्ती, प्रो. कमलचंद सोगानी, प्रो. लालबहादुर शास्त्री, प्रो. नातालिया आदि सैकड़ों विद्वानों ने इस पर प्रस्तावना, अनुवाद, शोध-प्रबंध आदि के कार्य किये हैं, वे भी सब अप्रामाणिक हो गये | जरा विचार तो करो कि आचार्य कुन्दकुन्द और समयसार को अप्रामाणिक कहकर आप क्या कह रहे हैं | आचार्य कुन्दकुन्द और समयसार हजारों जैन-ग्रन्थों के उपजीव्य हैं, मूलाधार हैं |
दरअसल बात यह है कि ऐसे लोग तीव्र कषाय में जल रहे हैं | पहले वे कानजी स्वामी का विरोध करते थे, पर अब उन्होंने उसी कार्य के लिए कुन्दकुन्द का ही विरोध करना प्रारम्भ कर दिया है | कषायों की पीड़ा ऐसी ही होती है | जब पर का कुछ नहीं होता तो व्यक्ति अपना ही बुरा करने लगता है, अपने ही बाल नोंचने लगता है, अपने ही हाथ-पैर काटने लगता है, आत्महत्या तक भी कर लेता है | आचार्य कुन्दकुन्द और समयसार का विरोध आत्महत्या ही है, क्योंकि यह समूची आगम परम्परा का विरोध है |
आश्चर्य होता है कि दृष्टान्तों के आधार पर, जो वस्तुतः वाद के विषय ही नहीं होते हैं, यह सिद्ध किया जा रहा है कि समयसार दिगम्बर आम्नाय का प्रामाणिक ग्रन्थ नहीं है, वह भी उन्हें अपनी बुद्धि से उल्टा-सीधा समझकर के | अरे भाई, कुन्दकुन्द तो स्वयं कह रहे हैं कि मैं अत्यंत अप्रतिबुद्ध जीवों को एकदम सरल-सुबोध भाषा, शैली, दृष्टान्त आदि के द्वारा तत्त्वज्ञान कराने का प्रयास कर रहा हूँ, आप छल ग्रहण मत करना- ‘छलं ण घेतव्वं’ | परन्तु दोषदृष्टि जीवों का क्या किया जा सकता है, जोंक स्तन पर भी बैठेगी तो खून ही पिएगी | एक बहुत अच्छा श्लोक है-
मन्त्रे तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञे भेषजे गुरौ |
यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ||
अर्थ- मन्त्र, तीर्थे, द्विज, देव, दैवज्ञ, भेषज और गुरु -इनमें जिसकी जैसी भावना होती है उसे वैसी ही सिद्धि होती है |
अरे भाई, और कुछ नहीं तो गुणग्राही तो बना ही जा सकता है आत्महित के लिए | जिस कुन्दकुन्द पर पूरा दर्शन-जगत बलिहारी है, हजारों वर्ष से जिन्हें पढ़-समझकर लोग तत्त्वज्ञान का सार प्राप्त कर रहे हैं, उसे तो हम निर्मल बुद्धि से पढ़ सकते हैं | उसमें भी दोष देखना जरूरी है क्या ? और फिर यह केवल एक दोष देखने जैसा संतुलित या समीक्षात्मक दृष्टिकोण नहीं है, यहाँ तो पूरे समयसार और आगे चलकर तो पूरे कुन्दकुन्द को ही अप्रामाणिक कहने का दुस्साहस है |
दरअसल, ऐसी स्थिति का कोई आधार नहीं होता | एक बार ऐसे ही किसी व्यक्ति ने मुझसे कहा कि आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य उमास्वामी ये कोई महान नहीं थे, इनके मूल ग्रन्थों में वास्तव में कोई दम नहीं है, इनको तो इनके टीकाकारों ने महान बना दिया है | क्या करें बिचारे, उनको कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है | उनका बस चले तो वे ये भी कहेंगे कि महावीर में कोई दम नहीं था, उनको तो लोगों ने जबरदस्ती तीर्थंकर बना दिया है |
बहुत क्या लिखूं, बस इतनी ही खास बात सद्भावनापूर्वक कहना चाहता हूँ कि आचार्य कुन्दकुन्द का विरोध करके आत्महत्या मत करो भाई !
– -प्रो. वीरसागर जैन