1220 ईस्वी में स्थापित अनोखा अद्भुत नयनाभिराम सहस्रकूट जिनालय इसमें पंक्तिबद्ध स्वतंत्र 1008 छोटी-छोटी जिन प्रतिमाएं हैं

0
1124

कर्नाटक का अरसीकेरे एक प्रमुख जैन केंद्र था। कहा जाता है कि यहाँ होयसलाओं के दौरान कई जैन मंदिर थे। अरसीकेरे शहर न केवल राजा वीरा बल्लाला-द्वितीय द्वारा निर्मित शिवालय है, बल्कि वह जगह भी है जहां कम विख्यात सहस्रकूट जिनालय, उसी काल की एक जैन बसदी अभी भी बुलंदी पर है। माना जाता है कि बल्लाला द सेकंड के शिखर शासन के दौरान यह सहस्रकूट जिनालय 1220 ईस्वी में स्थापित हुए थे।
यह जिनालय अत्यंत नक्काशीदार है। इसमें पंक्तिबद्ध स्वतंत्र 1008 छोटीं-छोटीं जिन प्रतिमाएं हैं। इसी के कारण यह सहस्रकूट जिन बिम्ब कहलाता है। सहस्र अर्थात् हजार कूट अर्थात् मंदिर। अभिलेखों से संकेत मिलता है कि इस मंदिर का निर्माण रेचना द्वारा किया गया था। जिसे दंडनायक रेचीमय्या भी कहा जाता है। बल्लाला का एक जनरल और एक भक्त जैन थे।

सहस्रकुट पुरानी और नई मूर्तियाँ-
सहस्रकुटा तीर्थंकर की एक प्राचीन ग्रेनाइट मूर्ति जो होयसला काल में नक्काशी की गई थी, इस मंदिर में स्थापित है। मूर्ति एक समय के साथ क्षतिग्रस्त हो गई थी और इसलिए मंदिर के ट्रस्टियों ने श्रवणबेलगोला जैन मठ के परमपूज्य स्वस्ति श्री चारुकीर्ति भट्टारक स्वामीजी के मार्गदर्शन में एक नई सहस्रकुट मूर्ति स्थापित की है। नई मूर्ति कर्नाटक के चित्रदुर्ग जिले में होसादुर्ग तालुक के एम.जी. हल्ली गांव के राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता मूर्तिकार – श्री कलाचार्य द्वारा नक्काशी की गई है। दक्षिणी कर्नाटक में अदागुरु के अलावा यह एकमात्र स्थान है जहां हम सहस्रकूट पत्थर की नक्काशी और दूसरा उत्तरी कर्नाटक में लक्ष्मेश्वर में पाया जाता है।

अन्य मूर्तियाँ-
इस मंदिर में तीर्थंकर महावीर की 42 इंच ऊंची धातु की मूर्ति बेहद आकर्षक है। मूलनायक प्रतिमा पद्मासनस्थ है उसके ठीेक ऊपर एक लघु पद्मासन मूर्ति है। परिकर में दोनों पार्श्वों और ऊपर को बेलबूटे के एक एक गुच्छक में जिनों को स्थापित किया गया है। दोनों ओर ग्यारह-ग्यारह मूर्तियां है। इस तरह मूलनायक और ऊपर की प्रतिमा मिलाकर चौबीसी बन जाती है। मूलनायक के पार्श्वाें में यक्ष-यक्षी बनाये गये हैं। शिर के ऊपर नक्कासीदार तीन छत्र शोभित हैं।

सहस्रकूट मूर्ति के पीछे पद्मासना में तीर्थंकर आदिनाथ की मूर्ति है। यह पाषाण-मूर्ति भी बहुत कलायुक्त है। मूलनायक पद्मासनस्थ हैं। शिर के पीछे प्रभावल, और उसके पीछे अशोक वृक्ष के सगुच्छ पल्लव शिल्पित हैं। तीन छत्र बहुत ही नक्कसीदार, उनमें झालर लटकती हुई दर्शाईं गइ्र हैं। इस मूर्ति में विशेषता यह है कि चॅवरधारियों के स्थान पर यक्ष-यक्षी चॅवर ढुराते हुए दर्शाये गये हैं। इस आदिनाथ की मूर्ति के दाहिनी ओर कायोत्सर्ग मुद्रा में तीर्थंकर विमलनाथ की मूर्ति है। इसका परिकर नक्कसीदार है। पादों के पार्श्वों में खड़े हुए यक्ष-यक्षी चॅवर और माला धारण किये हुए हैं। ऊपर मूर्ति के छत्र त्रय निर्मित है। इस मूर्ति के बाईं ओर बहुत ही नक्कासी युक्त सुन्दर सरस्वती की मूर्ति स्थापित है।
इस मंदिर में एक प्राचीन शिलालेख भी स्थापित है। इस शिलालेख की लिपि कन्नड है। इसमें मंदिर के इतिहास और उसके निर्माण के बारे में जानकारी दी गई है। इसमें एक शिवमूर्ति भी स्थापित है। सभी फोटो साभार लिये गये हैं।
डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर