हाथ पर हाथ धरके नहीं चलेगा काम, हरेक को करना होगा, कुछ न कुछ काम- ‘राजकुमार’ वृषभदेवजी

0
799

सान्ध्य महालक्ष्मी / 02 अप्रैल 2021
सृष्टि अपने रूप में अनादिकाल से है और अनंतकाल तक रहेगी। इसकी कुछ विशेषतायें प्राकृतिक, कुछ मनुष्य प्रयत्नजन्य भी है। जिनमें सुषमा-सुषमा आदि 6-6 भेद हैं. और वर्तमान में हुण्डाअवसर्पिणी काल है, जिसमें नियम से कुछ अलग-अलग हो जाता है।
पहले उत्तम भोग भूमि, फिर दूसरे काल में मध्यम भोग भूमि और तीसरे काल में जघन्य भोग भूमि, यानि कुछ नहीं करना, बस जो मांगा स्वयं मिलते जाना, सब कृपा कल्पवृक्षों की।
तीसरे काल का जब पल्य के 8वें भाग प्रमाण काल बाकी रह गया, तब क्रम से 14 मनुओं – कुलकरों की उत्पत्ति हुई। हर ने कुछ नई बातें सिखार्इं, फिर क्रम में 14वें कुलकर नाभिराय हुए। उनके समय तक कल्पवृक्ष नष्ट हो चुके थे, तब तक लोग बिना बोये अपने आप उत्पन्न अनाज से आजीविका करते थे। तब नाभिराय के ऋषभदेव का जन्म हुआ और वही बने इस काल के प्रथम तीर्थंकर।
जब बिना बोये उत्पन्न होने वाले धान्य नष्ट हो गये, अब खाये क्या? भूख से व्याकुल इधर-उधर भागने लगे, फिर आखिरकार नाभिराय जी के पास पहुंचे। उन्होंने सबको तब ‘राजकुमार’ वृषभदेव के पास जाने का संकेत दिया।
तब होने वाले प्रथम तीर्थंकर वृषभदेवजी ने लोगों को समझाया कि अब तक यह भोगभूमि थी, ऐसे वृक्ष थे जो अपने आप आपको मनचाही वस्तु दे देते थे। वे खत्म हो गये हैं और कर्म भूमि की शुरूआत हो गई है, यानि अब खुद कर्म करना होगा, प्रयास करने होंगे।
अपने अवधिज्ञान से विदेह क्षेत्र की व्यवस्था का स्मरण करके वृषभदेवजी ने लोगों को बताया – अब कर्मयुग की यानि कार्य करने की शुरूआत हो गई है। बिना कुछ करे जीवन यापन नहीं होगा। इसके लिये उन्होंने सबसे पहले – असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प – इन 6 कर्मों का उद्घोष कर लोगों को जीवन यापन की सीख दी। यानि सभी को अलग-अलग 6 प्रकार के कार्यों से अवगत कराया। अब तक भोग भूमि के समय लोग एक समान योग्यता के धारक होते थे, किसी को दूसरे की सहायता की आवश्यकता नहीं होती थी, परन्तु अब कर्मभूमि में विभिन्न शक्ति के धारक होने लगे। कोई निर्बल, कोई सबल, कोई अधिक, कोई कम परिश्रमी, कोई कम – कोई अधिक बुद्धिमान। यानि उद्यण्ड सबलों से निर्बलों की आवश्यकता स्पष्ट होने लगी।
यहां कई तर्कशास्त्री यह भी कह सकते हैंं कि वीतरागी तीर्थंकर, कब संसार के उपदेश देने लगे। तो यहां जिनसेन स्वामी जी ने स्पष्ट लिखा है कि तीर्थंकर तब वीतरागी नहीं, सरागी थे, राजकुमार थे और संसार का उपदेश भी सरागी अवस्था में ही दिया जा सकता है।
उन्होंने कहा कि अब सामाजिक संघठन से ही आप लोग सुख-शांति से जीवित रह सकेंगे।
1. असि कर्म – जो सक्षम हैं, वे स्वयं व दूसरों की सुरक्षा हेतु शस्त्र धारण करें, यानि विपत्ति में दूसरों की रक्षा करें।
2. मसि कर्म – जो लिखने में सक्षम हैं, वे लिखकर अजीविका कमायें।
3. कृषि कर्म – खेती करने से धान्य पैदा करने होंगे, जमीन में जोतना, बोना कृषि कर्म कहलाता है। आज भी ये लोग किसान कहलाते हैं।
4. विद्या – शास्त्र पढ़ाना, नृत्य आदि के द्वारा दूसरों को ज्ञान देने वाले विद्या कर्म करें।
5. वाणिज्य – वस्तुओं का व्यापार करें, आदान-प्रदान करें, वे वाणिज्य कर्म कहलाता है।
6. शिल्प – जो हाथ की कला में पारंगत थे, वो मूर्तियां बनायें, चित्र आदि बनाकर अपनी आजीविका कमायें।
इस कर्म भूमि पर, इस पर सबसे पहले कर्म करने, कुछ मेहनत करने का उपदेश ऋषभनाथजी द्वारा दिया गया।
(इसका पूरा उल्लेख आचार्य श्री जिनसेन जी ने श्री आदिपुराण के 16वें पर्व की 179 से 182 – इन चार गाथाओं में किया है।)