भगवान ऋषभदेव जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं उनका जन्म चैत्र कृष्ण नवमी को अयोध्या के महाराजा नाभिराय तथा माता मरुदेवी के यहां हुआ था, वहीं माघ कृष्ण चतुर्दशी को इनका निर्वाण कैलाश पर्वत पर हुआ। इन्हें आदिनाथ आदि अनेक नामों से भी जाना जाता है। आइए जानते हैं कर्म संस्कृति के सूत्रधार तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा भारतीय संस्कृति को दिए गए अवदानों के कुछ विशेष तथ्य :
ऋषभदेव प्रागैतिहासिक काल के महापुरुष :
ऋषभदेव प्रागैतिहासिक काल के महापुरुष हैं, जिन्हें इतिहास काल की सीमाओं में नहीं बांध पाता। किंतु वे आज भी संपूर्ण भारतीयता की स्मृति में पूर्णत: सुरक्षित हैं।ॠग्वेद आदि प्राचीन वैदिक साहित्य में भी इनका आदर के साथ संस्तवन किया गया है।
भारत के राष्ट्रपति एवं प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ राधाकृष्णन ने अपने भारतीय दर्शन के इतिहास में लिखा है कि “जैन परंपरा ऋषभदेव से अपनी उत्पत्ति का कथन करती है जो बहुत सी शताब्दियों के पूर्व हुए हैं”। महाभारत के अनुशासन पर्व में भी ऋषभदेव का नाम आया है। वैदिक साहित्य में भगवान ऋषभदेव को जैन धर्म का आदि प्रवर्तक माना गया है। डॉ एन एन बसु ने सिद्ध किया है कि लेखन कला और ब्राह्मी विद्या का आविष्कार ऋषभदेव ने किया था। विभिन्न साक्ष्यों द्वारा यह पुष्टि हो जाती है कि ऋषभदेव भारतीय संस्कृति के प्रथम वरिष्ठ महापुरुष थे। मानवीय गुणों के विकास की सभी सीमाएं ऋषभदेव ने उद्घाटित की । सुप्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक काका कालेलकर का यह निष्कर्ष उचित ही है-“हिन्दू समाज को संस्कारी और सभ्य बनाने में ऋषभदेव का बड़ा हाथ है। कहा जाता है कि विवाह व्यवस्था, पाकशास्त्र, गणित, लेखन आदि संस्कृति के बीज ऋषभदेव ने समाज में बोए। अगर कहें तो भी चलेगा कि यह सब करके और अंत अंत में उसका त्याग करके ऋषभदेव ने प्रवृत्ति और निर्वत्ति दोनों मार्गों का आचरण करके दिखाया।”
ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम से ‘भारतवर्ष’ नाम : जैन परंपरा और अनेक ऐतिहासिक तथ्य का मानना है कि इन्हीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम से इस देश का नामकरण ‘भारतवर्ष’ इन्हीं की प्रसिद्धि के कारण विख्यात हुआ। भरत चक्रवर्ती ने जम्बूद्वीप के संपूर्ण भरतक्षेत्र (पृथ्वी) को जीतकर उसका स्वामित्व प्राप्त किया, जिसके कारण उस सम्पूर्ण भरतक्षेत्र का एक नाम भारतवर्ष पड़ गया। ऐतिहासिक तथ्यों को ध्यान में रखते हुए भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारत शब्द का ही प्रयोग कियाा गया है।
डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने भी एक बार दुष्यन्तपुत्र भरत के नाम पर ‘भारत’ के नामकरण की बात लिखी थी, किन्तु बाद में उन्होंने सार्वजनिक रूप से अपनी भूल को स्वीकार किया और लिखा कि- ‘‘मैंने अपनी ‘‘भारत की मौलिक एकता’’ नामक पुस्तक के पृष्ठ 22-24 पर दौष्यन्तिक भरत से भारतवर्ष लिखकर भूल की थी। इसकी ओर मेरा ध्यान कुछ मित्रों ने आकर्षित किया। उसे अब सुधार लेना चाहिए।’’
वैदिक परंपरा में भागवत पुराण को एक प्रामाणिक ग्रंथ माना है। उसकी एक प्राचीन निर्युक्ति के अनुसार- ‘अजनाभं नामैतद् वर्ष भारत मिति यत् आरभ्य व्यपादिशन्ति’ सृष्टि के आदि में आदि मनु स्वायम्भुव मनु के पौत्र नाभिराय थे। उन्हीं के नाम से इस देश का नाम अजनाभवर्ष कहलाता था। इनके पुत्र ऋषभ थे जो कि आदिराजा, आदिक्षत्रीय और आदियोगी भी थे। अनेक ऐतिहासिक, साहित्यिक एवं पुरातात्विक और पौराणिक कथाओं में स्पष्ट उल्लेख है कि ऋषभ देव के पुत्र भरत के नाम पर ही देश का भारतवर्ष नामकरण हुआ है।
कृषि करो या ऋषि बनो :
मनुष्य के अस्तित्व के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जैसी चीजें आवश्यक हैं, किंतु यह अधूरी संपन्नता है। उसमें अहिंसा, सत्य, संयम, समता, साधना और तप के आध्यात्मिक मूल्यों की आंतरिक संपन्नता भी जुड़नी चाहिए। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने भारतीय संस्कृति को बहुत कुछ दिया है। छह कर्मों के द्वारा उन्होंने जहां समाज को विकास का मार्ग सुझाया, वहीं अहिंसा, संयम तथा तप के उपदेश द्वारा समाज की आंतरिक चेतना को भी जगाया। यही कारण है कि उनका एक प्रसिद्ध कथन है -कृषि करो या ऋषि बनो। अर्थात जीविका के साथ-साथ आध्यात्मिक मूल्य भी आवश्यक हैं।
जैन परंपरा के अनुसार तीर्थंकर ऋषभदेव ने कृषि का सूत्रपात किया। अनेकानेक शिल्पों की अवधारणा की। कृषि और उद्योग में अद्भुत सामंजस्य स्थापित किया कि धरती पर स्वर्ग उतर आया। कर्मयोग की वह रसधारा बही कि उजड़ते और वीरान होते जन जीवन में सब ओर नव बंसत खिल उठा।
प्रथम शिक्षा प्रदाता एवं बाह्मी लिपि के प्रवर्तक : भगवान ऋषभदेव ने महिला साक्षरता तथा स्त्री समानता पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। अपनी दोनों पुत्रियों को ब्राह्मी को अक्षर ज्ञान के साथ साथ व्याकरण, छंद, अलंकार, रूपक, उपमा आदि के साथ स्त्रियोचित अनेक गुणों के ज्ञान से अलंकृत किया।लिपि विद्या को ऋषभदेव ने विशेष रूप से ब्राह्मी को सिखाया। इसी के आधार पर उस लिपि का नाम ब्राह्मी लिपी पड़ गया। ब्राह्मी लिपी विश्व की आद्य लिपी है। दूसरी पुत्री सुंदरी को अंकगणतीय ज्ञान से पुरस्कृत किया। बेटी पढ़ाओ बेटी बढ़ाओ जैसे अभियान ऋषभदेव के पथ पर चलकर अत्यधिक सफल हो सकते हैं। आज भी उनके द्वार निर्मित व्याकरणशास्त्र तथा गणितिय सिद्धांतो ने महानतम ग्रंथों में स्थान प्राप्त किया है।
कला में प्राचीनकाल से उल्लेख :
जैन संस्कृति के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का विस्तृत वर्णन एवं श्रमण एवं वैदिक वाङ्गमय में तो हुआ ही है, कला में भी उनका उल्लेख प्राचीनकाल से होता आया है। ऋषभदेव की प्राचीनतम मूर्तियां कुषाणकाल और चौसा से मिली हैं।हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त मूर्तियों को पुरातत्व विभाग ने ऋषभदेव की मूर्तियां बताया है। ऋषभदेव की गुप्तकालीन मूर्तियां मथुरा, चौसा एवं अकोटा से मिली हैं। ऋषभदेव की सर्वाधिक मूर्तियां उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में उत्कीर्ण हुई हैं। मुख्यरूप से मथुरा, कुंडलपुर, लखनऊ, नवागढ़, ग्वालियर, खजुराहो, गोलाकोट, बूढ़ी चंदेरी, शहडोल, गुना आदि स्थानों की ऋषभदेव प्रतिमाएं मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं। बिहार, उड़ीसा और बंगाल में भी अनेक महत्वपूर्ण मूर्तियां प्राप्त होती हैं।
विश्व का आठवां आश्चर्य भगवान बाहुबली की मूर्ति : ऋषभदेव के एक पुत्र बाहुबली की एक हजार वर्ष पुरानी 57 फुट शिला पर उत्कीर्ण विशाल प्रतिमा कर्नाटक के श्रवणबेलगोला स्थान पर स्थित है जो गोमटेश्वर के नाम से भी जानी जाती है। जो विश्व का आठवां आश्चर्य मानी जाती है जिसका प्रत्येक 12 वर्ष में महमस्तकाभिषेक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होता है।श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरि नामक पहाड़ी पर भरत चक्रवर्ती की प्रतिमा स्थापित है।
भक्ति साहित्य में ऋषभदेव :
जैन भक्ति साहित्य में भगवान ऋषभदेव की भक्ति सर्वप्रथम की जाती है। उनकी भक्ति में स्वतंत्र रूप से काव्य, पुराण, स्तोत्र, पूजाएँ आदि बड़ी मात्रा में लिखे गए हैं। सातवीं शताब्दी में मुनिराज मानतुंग आचार्य ने भक्तामर स्तोत्र द्वारा भगवान ऋषभदेव का महान महत्वशील स्तवन भक्ति की है, आज जन-जन इससे विदित है। संस्कृत भाषा में रचित यह स्तोत्र आज जैन श्रद्धालुओं का कण्ठहार बना हुआ है।
आज अधिक प्रासंगिक हैं ऋषभदेव की शिक्षाएं : भारतीय संस्कृति के प्रणेता एवं जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की जनकल्याणकारी शिक्षा द्वारा प्रतिपादित जीवन-शैली, आज के चुनौती भरे माहौल में उनके सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों की प्रासंगिकता है। तीर्थंकर ऋषभदेव अध्यात्म विद्या के भी जनक रहे हैं। आज मानवता के सम्मुख भौतिकवादी चुनौतियों के कारण नाना प्रकार के सामाजिक एवं मानसिक तनाव तथा संकट व्यक्तिगत, सामाजिक एवं भूमण्डल स्तर पर दृष्टिगोचर हो रहे हैं। भगवान ऋषभदेव द्वारा बताई गई जीवन शैली की हमारी सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था में काफी प्रासंगिकता एवं महत्ता है। उनके द्वारा प्रतिपादित ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न क्षेत्रों में ऐसी झलकियां मिलती हैं जिन्हें रेखांकित करके हम अपने सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन की गुणवत्ता को बढ़ा सकते हैं।
आदर्श दण्ड संहिता का किया प्रावधान :
प्रशासनिक कार्य में इस भारत भूमि को उन्होंने राज्य, नगर, खेट, कर्वट, मटम्ब, द्रोण मुख तथा संवाहन में विभाजित कर सुयोग्य प्रशासनिक, न्यायिक अधिकारों से युक्त राजा, माण्डलिक, किलेदार, नगर प्रमुख आदि के सुर्पुद किया। आपने आदर्श दण्ड संहिता का भी प्रावधान कुशलता पूर्वक किया।
षड् विद्या शिक्षा प्रदाता : प्रत्येक वर्ण व्यवस्था में पूर्ण सामंजस्य निर्मित करने हेतु तथा उनके निर्वाह के लिए आवश्यक मार्गदर्शक सिद्धांत, प्रतिपादन करते हुए स्वयं उसका प्रयोग या निर्माण करके प्रात्याक्षिक भी किया। अश्व परीक्षा, आयुध निर्माण, रत्न परीक्षा, पशु पालन आदि बहत्तर कलाओं का ज्ञान प्रदर्शित किया । उनके द्वारा प्रदत्त शिक्षाओं का वर्गीकरण कुछ इस प्रकार से किया जा सकता है-1. असि-शस्त्र विद्या, 2. मसि-पशुपालन, 3. कृषि- खेती, वृक्ष, लता वेली, आयुर्वेद, 4.विद्या- पढना, लिखना, 5. वाणिज्य- व्यापार, वाणिज्य, 6.शिल्प- सभी प्रकार के कलाकारी कार्य।
देशभर में मनाया जाता है जन्म कल्याणक :
प्रतिवर्ष ऋषभदेव जन्म कल्याणक जैन समुदाय में हर्ष, उल्लास के साथ श्रद्धा पूर्वक मनाया जाता है। मंदिरों में इस दिन तीर्थंकर ऋषभदेव विशेष पूजा-अर्चना, अभिषेक-शांतिधारा की जाती है, शोभयात्रा निकाली जाती है, प्रवचन, व्याख्यान, संगोष्ठी होती है। महाआरती और सांस्कृतिक आयोजन किए जाते हैं। मंदिरों को सजाया जाता है। भगवान के जन्म का पालना झुलाया जाता है। मिठाई बांटी जाती है। जन्म भूमि अयोध्या में विशेष पूजा, अर्चना की जाती है। अयोध्या जैन परंपरा के अनुसार शाश्वत तीर्थ है।
ऋषभदेव का अवदान अविस्मरणीय : भगवान ऋषभदेव ने एक ऐसी समाज व्यवस्था दी, जो अपने आप में परिपूर्ण तो थी ही साथ ही जिसकी पृष्ठ भूमि में अध्यात्म पर आधारित नैतिकता की नींव भी थी।
तीर्थंकर ऋषभदेव ने भारतीय संस्कृति के लिए जो अवदान दिया वह इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसे जैन ही नहीं जैनेतर भारतीय परंपरा में आज भी कृतज्ञता पूर्वक स्मरण करती है और युगों तक करती रहेगी।
-डॉ. सुनील जैन संचय
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