सान्ध्य महालक्ष्मी / 02 अप्रैल 2021
प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभनाथजी के चैत्र कृष्ण नवमी को जन्म के बाद सौधर्म इन्द्र दलबल के साथ अयोध्या में महाराज नाभिराय के राजमहल पहुंचा और फिर जैसे ही इन्द्राणी ने तीर्थंकर बालक को अपलक निहारते हुए, इन्द्र की हथेली पर विराजमान किया, हर्ष से सर्वांग में बने सहस्त्र नेत्रों से निहारता गंभीर स्तुति करने लगा। देवों से आसमान पट गया था, जगह-जगह मेघ देवों के विमानों से टकराकर चूर हो रहे थे। तब जिन बालक के शरीर के तेज से सूर्य भी मानो निस्तेज हो गया। श्वेत ऐरावत हाथी के दांतों पर बने सरोवरों में अप्सरायें अद्भुत नृत्य कर रही थी। टिमकार रहित नेत्रों से निहारता इन्द्र बालक को गोद में लिये था, ऐशान इन्द्र ने सफेद छत्र लगाया, सनत् कुमार – माहेन्द्र क्षीर सागर समान श्वेत चंवर ढोल रहे थे।
मेरु पर्वत पर्यन्त बनी नीलमणि की सीढ़ियां गजब सी देदीप्यमान हो रही थी। क्षणभर में इन्द्र 99 हजार योजन ऊंचे सुमेरू पर्वत पर पहुंच गये, हां, बस इसी के ऊपर उसका ऋतु विमान भी आज चूड़ामणि की शोभा धारण कर रहा था। वहां मध्यभाग में भद्रशाल वन जैसे खिलखिलाते हरे रंग की धोती पहने था, रत्नमयी वृक्षों के साथ हरित सौमरस वन ओढ़नी जैसा प्रतीत हो रहा था। फिर सुंदर पाण्डुक वन और प्रत्येक दिशा में जिन मंदिर मणियों से दमकते, देवताओं के विमानों की हंसी करते लगते। स्फुटिक मणि की बनी पाण्डुक शिला पर जिन सूर्य बालक को विराजमान करते इन्द्र, मेरू की ज्योतिषदेव समान प्रदक्षिणा करना नहीं भूला। यह शिला अत्यंत पवित्र, 100 योजन लंबी, 50 योजन चौड़ी, 8 योजन ऊंची अर्धचन्द्रमा के समान, मानो सिद्धशिला सी प्रतीत होती है।
बार-बार क्षीर सागर से प्रक्षालन होने से इसकी पावनता असंख्य गुणा बढ़ रही थी, ऐसी दिखती मानो एक मेरु पर्वत पर दूसरा मेरुपर्वत रखा हो, उसके दोनों तरफ दो सिंहासन – सौधर्म और ऐशान इंद्र के लिए निश्चित रहते हैं। आठ मंगल द्रव्यों को धारण की यह शिला अत्यंत देदीप्यमान, मनोज्ञ व सुगंधित है। सारे देव जिन बालक का अभिषेक देखने क्रम से यथायोग्य बैठ गये। स्वर्ग धरा पर उतर आया था, सौधर्म इन्द्र पूर्व दिशा की ओर मुख करके अभिषेक को तत्पर हुआ। आकाश में दुन्दुभि और अप्सराओं का नृत्य शुरू हुआ। सभी के बैठने के लिए विशाल मंडल की रचना हो गई। फिर इन्द्र ने उठाया अभिषेक के लिए प्रथम कलश, कलश उठाने के मंत्रों को जानने वाले ऐशान ने दूसरा कलश, वहीं सभी देव क्षीर सागर से पवित्र जल लाने के लिए क्रमबद्ध खड़े हो गये। उनके परिजन, देवियां, अप्सराओं ने मंगल द्रव्य थाम लिए।
कलश मुख पर एक योजन, उदर में चार योजन चौडेÞ तथा 8 योजन गहरे क्षीर जल से लबालब भरे थे। सब कलशों को थामने के लिए इन्द्र ने विक्रिया से एक हजार भुजाएं बना ली और शुरू की धार, मस्तक से। करोड़ों देवों के कोलाहल में हिमवत पर्वत के शिखर से मानो आकाश गंगा फूट पड़ी हो। गंगा-सिंधु आदि महानदियां एक साथ बह निकली। निज बालक से छूकर बूंदें जैसे देवों के निवासों को छींटें दे रही थीं।
सफेद झरने जैसा जल आकाश में उछलता, फिर नीचे आता, मानो पूरे संसार को पवित्र कर रहा हो। हर कोई भगवान के चरणों के प्रसाद को पाकर अभिभूत हो गया। वह जल मेरु पर्वत की मानो ऊंचाई नापता, नीचे बढ़ता जाता, अब उसने पूरे आकाश को ढक लिया, वनों को सफेद वस्त्रों की तरह ढकता, गुफाओं में हुंकार भरता, मेरु को चांदी के पर्वत में ढालते हुए, तारागण को डुबोते हुए ज्योतिष पटल को कान्ति रहित करता, कुम्हार के चक्र के समान चलते, मनुष्य लोक को पवित्र करता वक्र गति से बढ़ता जा रहा था।
गंधर्व देवों का संगीत, देवांगनाओं के लीला सहित नृत्यों के बीच वे अभिषेक बूंदें हर को आनंदित कर रही थीं, सबको रक्षित करने की भावना और शरीरों को पवित्र करने को पावन बूंदें देवों ने मस्तकों पर लगाकर, सारे शरीर पर लगाई तथा फिर अपने स्वर्ग निवास में ले जाने के लिये भर लिया। (शायद इसी कारण लोग आज भी जिनबिम्ब अभिषेक का जल, मस्तक के बाद शरीर के अन्य अंगों पर लगाकर, डिब्बी में भरकर घर ले जाते हैं)। फिर भगवान की प्रदक्षिणा कर अर्घ्य समर्पण के साथ जन्माभिषेक विधि समाप्त की।
(स्रोत – श्री आदिपुराण – 13वां पर्व)