॰ सबसे अधिक हजार वर्ष तक मौन
63 लाख वर्ष पूर्व राज्य कर चुके थे, और अब भी नियमित रूप से महाराज वृषभदेव के विशाल सभा मण्डप में सैकड़ों राजाओं के बीच अप्सरायें-गंधर्व नृत्य करते और सब वह देखकर आनंद लेते। ऐसा कब तक चलता रहेगा, जिसे पूरे विश्व का ही नहीं, तीनों लोकों का कल्याण करना है, कब वे भोगों से विरक्ति पायेंगे, कुछ ऐसे ही प्रश्न सौधर्मेन्द्र के मन मस्तिष्क में उमड़-घुमड़ रहे थे। बस यही विचार करता एक दिन वह अप्सराओं, देवों के साथ पूजा की सामग्री लेकर वृषभदेव महाराजा के दरबार में पहुंच गया।
भक्ति विभोर इन्द्र ने महाराज की अराधना करने की इच्छा से उस समय अप्सराओं और गंधर्वों से नृत्य की शुरूआत की। हमेशा की तरह अन्य के साथ महाराज भी नृत्य का आनंद लेने लगे। अब सौधर्मेन्द्र के मन में वही विचार कौंधा –कैसे ये राज्य और भोगों से किस प्रकार विरक्त होंगे, बस आज वही करना है, विचार करते-करते सौधर्मेन्द्र ने नृत्य के लिये अत्यंत सुदंरी देव नर्तकी नीलांजना को नियुक्त किया, उसकी आयु अत्यंत क्षीण हो गई थी, यह जानकर ही विशेष रूप से उसको नृत्य के लिये कहा गया। रस, भाव और लय सहित गोल-गोल फिरकी की भांति हजारों चक्कर लगाते हुए वह आयुरूपी दीपक के क्षय होने से क्षणभर में अदृश्य हो गई।
सब उसके मनमोहक नृत्य के आनंद में गोता लगा रहे थे, पर जिस प्रकार बिजली रूपी लता देखते-देखते क्षण भर में नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार प्रभा से चंचल और बिजली के समान उज्ज्वल मूर्ति को धारण करने वाली देवी देखते-देखते ही क्षण भर में नष्ट हो गई थी और उसके नष्ट होते ही क्षण में ही इन्द्र ने सभा में रसभंग के भय से, उस स्थान पर उसी के समान आकर्षक रूप वाली दूसरी देवी खड़ी कर दी, जिससे नृत्य ज्यों का त्यों चलता रहा। इन्द्र जानता था, इस भेद को महाराज वृषभदेव के अलावा कोई नहीं जान पायेगा और वही हुआ। यद्यपि दूसरी देवी खड़ी कर देने के बाद भी वही नृत्य, वही भूमि, वही रूप कद-काठी – सुंदरता थी, पर महाराज ने उसी क्षण उसके स्वरूप का अंतर जान लिया। इन्द्र भी तो मानो यही चाहता था।
तदनन्तर भोगों से विरक्त और अत्यंत संवेग तथा वैराग्य भावना को प्राप्त हुए महाराजा वृषभदेव के चित्त में इस प्रकार की चिंता उत्पन्न हुई कि कितने आश्चर्य की बात है कि यह सुंदर जगत विनश्वर है, लक्ष्मी बिजली रूपी लता के समान चंचल है, यौवन, शरीर आरोग्य और ऐश्वर्य आदि सभी चलाचल है। रूप, यौवन और सौभाग्य के मद से उन्मत्त हुआ प्रज्ञ पुरुष इन सबमें अपनी स्थिर वृद्धि करता है, परंतु सभी वस्तु नश्वर हैं। यह यौवन रूप की शोभा सन्ध्या काल की लाली के समान क्षण भर में नष्ट हो जाती हैं और यह उज्ज्वल तारूण्य अवस्था पल्लव की कांति के समान शीघ्र मलीन हो जाती है।
इस असार संसार में सुख का लेशमात्र भी दुर्लभ है और दुख बड़ा भारी है। चिंतवन करते स्पष्ट हो गया कि इसमें संशय नहीं कि शरीर रूपी गाड़ी 3-4 दिन में नष्ट हो जाएगी। यदि शरीर में निज स्वरूप की शोभा अच्छी है, तो फिर भार स्वरूप इन अलंकारों का क्या करना? इस असार संसार को धिक्कार है, राज्य भोग को धिक्कार है, चंचल लक्ष्मी को धिक्कार है? इस प्रकार आत्मा के विरक्त होते ही महाराजा वृषभदेव भोगों से विरक्त होकर, काललब्धि को पाकर शीघ्र मुक्ति के लिए उद्योग करने लगे। उसी समय उन्हें प्रबोध कराने के लिए और उनके तप कल्याणक की पूजा करने के लिए लौकान्तिक देव ब्रह्मलोक से उतरे। आठों प्रकार के सारस्वत आदि उत्तम देवों ब्रह्मलोक रूपी 5वें स्वर्ग में रहते हैं, जो पूर्व भव में सम्पूर्ण श्रुत ज्ञान का अभ्यास करते हैं, बड़ी ऋद्धियों वाले हैं। वहां आकर महामुनिराज की ओर बढ़ने वाले वृषभदेव चरणों की कल्पवृक्ष पुष्पों से पूजा कर गंभीर स्तोत्रों से स्तुति की। हे देव! अब आप धर्म की सृष्टि कीजिए, इन भोगों को रहने दीजिए, मोक्ष के लिए उद्योग कीजिए।
उधर, इन्द्र अपने वाहनों और अपने-अपने निकाय के देवों के साथ अयोध्यापुरी आये और तप कल्याणक करने के लिए क्षीर सागर से जलाभिषेक किया, फिर दिव्य आभूषण, वस्त्र, मालाएं और मलयागिरि चंदन से अलंकार किया।
महाराज वृषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत का राज्याभिषेक किया, बाहुबली को युवराज पद पर शोभित किया। अद्भुत दृश्य था, एक तरफ वृषभदेव तपरूपी राज्य की तैयारी, दूसरी तरफ दोनों राजकुमार राज्य लक्ष्मी के साथ विवाह की तैयारी में लगे थे। एक तरफ देवों के शिल्पी, वन ले जाने के लिये पालकी निर्माण में लगे थे, वहीं दूसरी तरफ वास्तु विद्या वाले राजकुमारों के लिये मण्डप बनाने में बिजी थे।
एक ओर करोड़ों देवों के जय-जय का कोलाहल, दूसरी ओर करोड़ों मनुष्यों का पुण्य पाठ – दोनों उत्सवों में परम आनंद। दीक्षा लेने से पूर्व वृषभदेव ने शेष पुत्रों में पृथ्वी विभक्त कर दी थी। उनकी पालकी को पहले राजा लोग सात पैड़ लेकर चले, फिर वैमानिक व भवनत्रिक देवों ने संभाल शीघ्र आकाश से ले गये। सिद्धार्थ वन में पहुंचे। वन में पहले ही एक विस्तृत शिला देवों ने स्थापित कर रखी थी, चंद्रकांत मणियों से बनी थी। उस शिलापट्ट को देखते ही वृषभदेव जी को जन्माभिषेक वाली पांडुकशिला का स्मरण हो आया और तब उन्होंने संभवत: केवलज्ञान से पूर्व अंतिम बार वहां उपस्थित सभी देवों, मनुष्यों की सभा को यथायोग्य उपदेश दिया। इसके बाद हजार वर्षों तक वे मौन रहे, कोई भी तीर्थंकर इतने अधिक वर्ष तक मौन नहीं रहा। उस चैत्र कृष्ण नवमी को सूर्य का तेज भी क्षण-क्षण कम होता जा रहा था। पूर्व दिशा की ओर विराजमान होकर, सभी वस्त्र, आभूषण, आदि का परिग्रह तो वह पहले ही त्याग चुके थे, सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार कर पंचमुष्टियों से केशलोंच किया। इन्द्रों ने उन केशों को सफेद वस्त्र में लपेट, रत्नमय पिटारे में रख क्षीरसमुद्र में डाल दिया।
उनके विचारों को सुन कच्छ आदि उत्तम राजाओं ने भी दीक्षा धारण की। फिर अन्य के साथ राजा भरत ने भी पूजा वंदना की।
तब महासंतोषी महामुनिराज 6 माह के उपवास की प्रतिज्ञा कर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हो गये कठोर तप के लिये। कल तक जो महाराजा के रूप में भोगोपभोग के आनंद ले रहे थे, वे अब महामुनिराज के रूप में एक शिला पर सबसे राग हटा जैसे ही खड़े हुये, उन्हें चौथा, मन:पर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया था।
(स्त्रोत : आदिपुराणम् / 17-18 पर्व)
संकलन : चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी
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