तीर्थंकर श्री शांतिनाथ जी की भक्ति करते हुए वीणा का तार टूटा, पर रावण ने हाथ की नाडी काटकर वीणा में जोड़कर, भक्ति जारी रखी

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05 अक्टूबर 2022/ अश्विन शुक्ल दशमी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी /
आज जब पूरा देश विजयदशमी के अवसर पर मेघनाथ, कुंभकरण, रावण के पुतले जलाएगा । तब एक चिंतन मन में जरूर आएगा कि क्या कारण है कि हम आज इनके पुतले जला रहे हैं । मेघनाथ एक भक्ति पुत्र, जिसने अपने पिता की आज्ञा मानते हुए , अपनी इस युद्ध में आहुति दी और उसी तरह कुंभकरण ने अपने भाई को पिता तुल्य मान कर उनके आदेश को नहीं नकारा और अगर जैन रामायण पड़े तो उसमें स्पष्ट है कि दोनों ने सिद्धालय में स्थान प्राप्त किया ।

सचमुच वंदनीय है , पूजनीय है तो फिर उनके क्यों पुतले जलाते हैं। पर पहले बात करते हैं रावण की। रावण 16 वे तीर्थंकर भगवान शांतिनाथ जी का परम भक्त था। कहते एक बार उनकी भक्ति में लग्न था , वीना बड़ी तेजी से बज रही थी उनके हाथों द्वारा, अचानक वीणा का तार टूट गया , पर उसने भक्ति नहीं रोकी । अगले ही क्षण उसने अपने हाथ की नाडी काट कर, उस वीणा के तार की जगह लगा दिया और तुरंत वह भक्ति अनवरत जारी रखी।

कहते तो यह भी है कि उसी के फलस्वरूप , उसी भक्ति के कारण उसको तीर्थंकर प्रकृति का बंध हुआ। पर आज जिस के पुतले जलाए जाते हैं , उसी रावण ने उससे पूर्व, माया चारी वश अपनी नरक गति बंद कर लिया था। जब उसने सीता माता जी का अपहरण किया था ।

कहा जाता है वर्तमान में नर्क से नारकी जीवन व्यतीत कर रहे हैं और सीता जी का जीव सोल्वे स्वर्ग में 22 सागर की आयु बंद कर प्रतिइंद्र है। आगामी तीर्थंकर बनेंगे रावण और सीता माता उन्हीं रावण की प्रमुख गणधर बनकर , उसी भव से मोक्ष प्राप्त करेंगे।

कितना अजीब संयोग है यह इन दोनों का । कहां आज उस रावण के , उनके कारण ही पुतले जलाते हैं और आगामी समय में एक तीर्थंकर और दूसरे उनके गणधर बन जाते हैं। कहते हैं रावण के महल में श्री शांतिनाथ भगवान का मंदिर इतना विशाल था जिसमें 1000 स्वर्ण खंबे थे । श्रीराम जी सूर्य विमान समान रावण के भवन में जब प्रविष्ट हुए , तब उन्होंने वहां पर उस 16वें तीर्थंकर श्री शांति नाथ जी मंदिर को देखा।

इतना सुंदर मंदिर देखकर , जो नाना प्रकार के रत्नों से युक्त बड़ी-बड़ी ध्वजाएं और जिस की विशालता मेरु पर्वत के समान दिख रही थी । वे भी मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रह सके। अब चैनल महालक्ष्मी आपके बीच इसीलिए आया है कि जब जैन रामायण में पुतला दहन का उल्लेख नहीं है , तो हम क्यों पाप का बंध करते हैं? मिथ्यातव में क्यों डूबते हैं? भावी तीर्थंकर और जो सिद्ध भए उनकी पूजा नहीं कर सकते, तो कम से कम पुतले मत जलाओ ।

अगर आपको पुतले जलाने का शौक है, तो जरूर जलाओ , पर जलाइए चारों कषाय के , क्रोध , मान, माया, लोभ के, जिन्होंने हमारी आत्मा को परमात्मा बनने से रोक रखा है । उनका दहन कीजिए, उनका मर्दन कीजिए । यही भावना भाएं कि हमारे आगामी तीर्थंकर और दो सिद्ध भगवान, उनके पुतले नहीं जलाएंगे, ना ही उनकी अनुमोदना करेंगे।