जैन धर्म में रात्रि भोजन त्याग ही नहीं, बल्कि महाभारत वैदिक ग्रन्थानुसार रात्रि भोजन हानिकारक,नरक जाने का रास्ता भी यही है

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जैन धर्म में रात्रि भोजन त्याग का बडा़ ही महत्त्व है । चार प्रकार सूक्ष्मता से निर्दोष पालन की विधि भी बतायी गयी है कि रात्रि
( अ) दिन का बना भी रात्रि में न खाएं
( ब) रात्रि का बना तो रात में खाए ही नहीं
( क ) रात्रि का बना भी दिन में न खाए और
( ड ) उजाले में दिन का बना दिन में ही वह भी अंधेरे में नहीं उजाले में ही खाए ।

वर्तमान के आधुनिक डाॅक्टर ,वैज्ञानिकों ने भी सिध्द किया है कि रात्रि में सूर्य किरणों के अभाव से एवं सोने से खाया हुआ भोजन ठीक से पच नहीं पाता है ,इसलिए अनेक रोग होते है । इसलिए रात्रि में शयन के ३-४ घंटे पहले दिन में ही लघु आहार करना चाहिए । जिससे भोजन शयन के पहले ही पच जायेगा । वैदिक ग्रन्थ महाभारत में भी लिखा है

महाभारत के ज्ञान पर्व अध्याय ७० श्लोक २७३ में कहा भी है कि

उलूका काक मार्जार, गृध्द शंबर शूकराः।
आहिवृश्चिकगोधाश्च, जायन्ते रात्रिभोजनात्।।

अर्थ:- रात्रि के समय भोजन करनेवाला मानव मरकर इस पाप के फल से उल्लू ,कौआ , बिलाव , गीध , शंबर , सूअर , साॅंप , बिच्छू , गुहा आदि निकृष्ट तिर्यंच योनि के जीवों में जन्म लेता है । इसलिए रात्रि भोजन त्याग करना चाहिए ।

वासरे च रजन्यां च , यः खादत्रेव तिष्ठति ।
शृंगपुच्छ परिभ्रष्ट , य : स्पष्ट पशुरेव हि ।।

अर्थ:- रात में भोजन करनेवाला बिना सिंग , पूॅंछ का पशु ही है ऐसा समझे ।

महाभारत के शांतिपर्व में यह भी कहा है कि ,

ये रात्रौ सर्वदा आहारं , वर्जयंति सुमेधसः ।
तेषां पक्षोपवासस्य , फलं मासस्य जायते।।

अर्थ :- जो श्रेष्ठ बुध्दिवाले विवेकी मानव रात्रि भोजन करने का सदैव त्याग के लिए तत्पर रहते है उनको एक माह में १५ दिन के उपवास का फल मिलता है ।

चत्वारि नरक द्वाराणि, प्रथमं रात्रि भोजनम् ।
परस्त्री गमनं चैव , संधानानंत कायिकं ।।

अर्थ :– नरक जाने के चार रास्ते है । १ रात्रि भोजन , २ परस्त्रीगमन , ३ आचार ,मुरब्बा, ४ जमीकन्द ( आलू , प्याज , मूली , गाजर , सकरकंद , लहसुन , अरबी , अदरक ये आठ होने से इनको अष्टकन्द भी कहते है ) सेवन करने से नरक जाना पड़ता है ।

मार्कण्डेय पुराण में तो अध्याय ३३ श्लोक में कहा है कि ,

अस्तंगते दिवानाथे ,आपो रुधिरमुच्यते ।
अन्नं मांसं समं प्रोक्तं , मार्कण्डेय महर्षिणा ।।

अर्थात् सूर्य अस्त होने के बाद जल को रुधिर मतलब खून और अन्न को मांस के समान माना गया है । अतः रात्रि भोजन का त्याग अवश्यमेव करना ही चाहिए । नरक को जाने से बचने के लिए ।

चार प्रकार का आहार भोजन होता है । (१) खाद्य :- रोटी , भात , कचौडी , पूडी आदि (२) स्वाद्य :- चूर्ण , तांबूल , सुपाडी आदि (३ ) लेह्य :- रबडी़ , मलाई , चटनी आदि (४) पेय :- पानी , दूध , शरबत आदि ।

रात्रि में सूर्य प्रकाश के अभाव में अनेक सूक्ष्मजीव उत्पन्न होते है । भोजन के साथ यदि जीव पेट में चले गये तो रोग कारण बनते हैं यथा…

पेट में जानेपर ये रोग

चींटा चींटी——- बुध्दिनाश

जूं ,जूए————-जलोदर

मक्खी ,पतंगा———वमन

लिक,लीख————-कोड

बाल—————स्वरभंग

बिच्छू ,छिपकली——मरण

छत्र चामर वाजीभ, रथ पदाति संयुता:।
विराजनन्ते नरा यत्र, ते रात्र्याहारवर्जिनः ।।

अर्थ :-ग्रन्थकार कहते है कि छत्र ,चंवर ,घोडा , हाथी , रथ और पदातियों से युक्त नर जहाॅं कहीं भी दिखाई देते है ऐसा समझना चाहिए कि उन्होंने पूर्व भव में रात्रिभोजन का त्याग किया था उस त्याग से उपार्जित हुए पुण्य को वे भोग रहे हैं ।

चाहे कितनी भी लाईट की रोशनी हो पर सूर्यास्त के बाद जीवों की उत्पत्ति बढ़ती ही है और जठराग्नि भी शांत होती है । इसलिए भोजन छोड़ना ही चाहिए । स्वस्थ , मस्त , व्यस्त भी रहना हो तो ।

प्रचारक :-विश्व भारतीय संस्कृति बचाओ मंच