28 अगस्त 2022/ श्रावण शुक्ल दवादिषि /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी
रक्षाबंधन कथा -विष्णुकुमार मुनि की कथा
अनंत सुख प्रदान करने वाले जिनभगवान् जिनवाणी और जैन साधुओं को नमस्कार कर मैं वात्सल्य अंग के पालन करने वाले श्रीविष्णुकुमार मुनिराज की कथा लिखता हूँ ।
अवंतिदेश के अंतर्गत उज्जयिनी बहुत सुन्दर और प्रसिद्ध नगरी है । जिस समय का यह उपाख्यान है, उस समय उसके राजा श्रीवर्मा थे । वे बड़े धर्मात्मा थे, सब शास्त्रों के अच्छे विद्वान थे, विचारशील थे, और अच्छे शूरवीर थे । वे दुराचारियों को उचित दण्ड देते और प्रजा का नीतिके साथ पालन करते । प्रजा उनकी बड़ी भक्त थी
उनकी महारानी का नाम था श्रीमती । वह भी विदुषी थी । उस समय की स्त्रियों में वह प्रधान सुन्दरी समझी जाती थी । उसका हृदय बड़ा दयालु था । वह जिसे दुखी देखती, फिर उसका दुःख दूर करने के लिये जी जान से प्रयत्न करती । महारानी को सारी प्रजा देवी समझती थी ।
श्रीवर्मा के राजमंत्री चार थे । उनके नाम थे बलि, बृहस्पति, प्रह्लाद, और नमुचि । ये चारों ही धर्म के कट्टर शत्रु थे । इन पापी मंत्रियों से युक्त राजा ऐसे जान पड़ते थे मानों जहरीले सर्प से युक्त जैसे चन्दन का वृक्ष हो ।
एक दिन ज्ञानी अकम्पनाचार्य देश-विदेशों में पर्यटन कर भव्य पुरुषों को धर्मरूपी अमृत से सुखी करते हुए उज्जयिनी में आये । उनके साथ सात सौ मुनियों का बड़ा भारी संघ था । वे शहर बाहर एक पवित्र स्थान में ठहरे । अकम्पनाचार्य को निमित्तज्ञान से उज्जयिनी की स्थिति अनिष्ट कर जान पड़ी । इसलिये उन्होंने सारे संघ से कह दिया कि देखो, राजा, वगैरह कोई आवे पर आप लोग उन से वाद विवाद न कीजियेगा । नहीं तो सारा संघ बड़े कष्ट में पड़ जायेगा, उस पर घोर उपसर्ग आयेगा ।
गुरु की हितकर आज्ञा स्वीकार कर सब मुनि मौन के साथ ध्यान करने लगे । सच है—
शिष्यास्तेत्र प्रशस्यन्ते ये कुर्वन्ति गुरोर्वचः ।
प्रीतितो विनयोपेता भवन्त्यन्ये कुपुत्रवत् ।।
–ब्रह्म नेमिदत्त
अर्थात्—शिष्य वे ही प्रशंसा के पात्र हैं, जो विनय और प्रेम के साथ अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हैं । इसके विपरीत चलने वाले कुपुत्र के समान निन्दा के पात्र हैं ।
अकम्पनाचार्य के आने का समाचार शहर के लोगों को मालूम हुए । वे पूजाद्रव्य लेकर बड़े भक्ति के साथ आचार्य की वन्दना को जाने लगे । आज एकाएक अपने शहर में आनन्द की धूमधाम महल पर बैठे हुए श्रीवर्मा ने मंत्रियों से पूछा—ये सब लोग आज ऐसे सजधजकर कहाँ जा रहे हैं ? उत्तर में मंत्रियों ने कहा—महाराज सुना जाता है कि अपने शहर में नंगे जैन साधु आये हुए हैं । ये सब उनकी पूजा के लिये जा रहे हैं । राजा ने प्रसन्नता के साथ कहा—तब तो हमें भी चलकर उनके दर्शन करना चाहिए । वे महापुरुष होंगे ! यह विचार कर राजा भी मंत्रियों के साथ आचार्य के दर्शन करने को गए । उन्हें आत्मध्यान में लीन देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने क्रम से एक-एक मुनिको भक्तिपूर्वक नमस्कार किया । सब मुनि अपने आचार्य की आज्ञानुसार मौन रहे । किसी ने भी उन्हें धर्मवृद्धि नहीं दी । राजा उनकी वन्दना कर वापिस महल लौट चले । लौटते समय मंत्रियों ने उनसे कहा—महाराज, देखें साधुओं को ? वेचारे बोलना तक भी नहीं जानते, सब नितान्त मूर्ख हैं । यही तो कारण है कि सब मौनी बैठे हुए हैं ।
उन्हें देखकर सर्वसाधारण तो यह समझेंगे कि ये सब आत्मध्यान कर रहे हैं, बड़े तपस्वी हैं । पर यह इनका ढोंग है । अपनी सब पोल न खुल जाय, इसलिये उन्होंने लोगों को धोखा देने को यह कपटजाल रचा है । महाराज, ये दाम्भिक हैं । इस प्रकार त्रैलोक्यपूज्य और परम शांत मुनिराजों की निन्दा करते हुए ये मलिनहृदयी मंत्री राजा के साथ लौटे आ रहे थे कि रास्ते में इन्हें एक मुनि मिल गए, जो कि शहर से आहार करके वन की ओर आ रहे थे । मुनिको देखकर इन पापियों ने उनकी हँसी की, महाराज, देखिए एक बैल और पेट भरकर चला आ रहा है । मुनिने मंत्रियों के निन्दावचनों को सुन लिया । सुनकर भी उनका कर्त्तव्य था कि वे शान्त रह जाते, पर वे निन्दा न सह सके । कारण वे आहार के लिए शहर में चले गये थे, इसलिये उन्हें अपने आचार्य महाराज की आज्ञा मालूम न थी । मुनि ने यह समझकर, कि इन्हें अपनी विद्या का बड़ा अभिमान है, उसे मैं चूर्ण करूँगा, कहा—तुम व्यर्थ क्यों किसी की बुराई करते हो ? यदि तुम में कुछ विद्या हो, आत्म बल हो, तो मुझ से शास्त्रार्थ करो । फिर तुम्हें जान पड़ॆगा कि बैल कौन है ? भला वे भी तो राजमंत्री थे, उस पर भी दुष्टता उन के हृदय में कूट-कूट कर भरी हुई थी; फिर वे कैसे एक अकिंचन्य साधु के वचनों को सह सकते थे ? उन्होंने मुनि के साथ शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर लिया । अभिमान में आकर उन्होंने कह तो दिया कि हम शास्त्रार्थ करेंगे, पर जब शास्त्रार्थ हुआ तब उन्हें जान पड़ा कि शास्त्रार्थ करना बच्चों का खेल नहीं है । एक ही मुनि ने अपने स्याद्वाद के बल से बात की, बात में चारों मंत्रियों को पराजित कर दिया । सच है—एक ही सूर्य सारे संसार के अन्धकार को नष्ट करने के लिए समर्थ है ।
विजय लाभकर श्रुतसागर मुनि अपने आचार्य के पास आये । उन्होंने रास्ते की सब घटना आचार्य से ज्यों की त्यों कह सुनाई । सुनकर आचार्य खेद के साथ बोले—हाय ! तुमने बहुत ही बुरा किया । तुमने अपने हाथों से सारे संघ का घात किया, जो उन से शास्त्रार्थ किया । अस्तु, जो हुआ, अब यदि तुम सारे संघ की रक्षा चाहते हो, तो पीछे जाओ और जहाँ मंत्रियों के साथ शास्त्रार्थ हुआ है, वहीं जाकर कायोत्सर्ग ध्यान करो । आचार्य की आज्ञा को सुनकर श्रुतसागर मुनिराज जरा भी विचलित नहीं हुए । वे संघ की रक्षा के लिये उसी समय वहाँ से चल दिये और शास्त्रार्थ की जगह पर आकर मेरु की तरह निश्चल हो बड़े धैर्य के साथ कायोत्सर्ग ध्यान करने लगे ।
शास्त्रार्थ में मुनि से पराजित होकर मंत्री बड़े लज्जित हुए । अपने मान भंग का बदला चुकाने का विचार कर मुनिवध के लिये रात्रि के समय वे चारों शहर से बाहर हुए । रास्ते में श्रुतसागर मुनि ध्यान करते हुए मिले । पहले उन्होंने अपने मान भंग करने वाले ही को परलोक पहुँचा देना चाहा । उन्होंने मुनि की गर्दन काटने को अपनी तलवार को म्यान से खींचा और एक ही साथ उनका काम तमाम करने के विचार से उन पर वार करना चाहा कि, इतने में मुनि के पुण्य प्रभाव से पुरदेवी ने आकर उन्हें तलवार उठाये हुए ही कील दिये ।
प्रातः काल होते ही बिजली की तरह सारे शहर में मंत्रियों की दुष्टता का हाल फैल गया । सब शहर उनके देखने को आया । राजा भी आये । सब ने एक स्वर से उन्हें धिक्कारा । है भी तो ठीक, जो पापी लोग निरपराधों को कष्ट पहुँचाते हैं वे इस लोक में भी घोर दुःख उठाते हैं और परलोक में नरकों के असह्य दुःख सहते हैं । राजा ने उन्हें बहुत धिक्कार कर कहा—जब तुमने मेरे सामने इन निर्दोष और संसार मात्र का उपकार करने वाले मुनियों की निन्दा की थी, तब मैं तुम्हारे विश्वास पर निर्भर रहकर यह समझा था कि सम्भव है मुनि लोग ऐसे ही हों, पर आज मुझे तुम्हारी नीचता का ज्ञान हुआ, तुम्हारे पापी हृदय का पता लगा । तुम इन्हीं निर्दोष साधुओं की हत्या करने को आये थे न ? पापियों, तुम्हारा मुख देखना भी महापाप है । तुम्हें तुम्हारे इस घोर कर्म का उपयुक्त दण्ड यही चाहिये था कि जैसा तुम करना चाहते थे, वही तुम्हारे लिये किया जाता । पर पापियों, तुम ब्रह्मण कुल में उत्पन्न हुए हो और तुम्हारी कितनी ही पीड़ियाँ मेरे यहाँ मंत्री पद पर प्रतिष्ठा पा चुकी हैं, इसलिये उसके लिहाज से तुम्हें अभय देकर अपने नौकरों को आज्ञा करता हूँ कि वे तुम्हें गधों पर बैठाकर मेरे देश की सीमा से बाहर कर दें । राजा की आज्ञा का उसी समय पालन हुआ । चारों मंत्री देश से निकाल दिये गये । सच है—पापियों की ऐसी दशा होना उचित ही है ।
धर्म के ऐसे प्रभाव को देखकर लोगों के आनन्द का ठिकाना न रहा । वे अपने हृदय में बढ़ते हुए हर्ष के वेग को रोकने में समर्थ नहीं हुए । उन्होंने जयध्वनि के मारे आकाश पाताल एक कर दिया। मुनि संघ का उपद्रव टला । सबके चित्त स्थिर हुए । अकम्पनाचार्य भी उज्जयिनी से विहार कर गये ।
हस्तिनापुर नाम का एक शहर है । उसके राजा हैं महापद्म । उनकी रानी का नाम लक्ष्मीमती था । उसके पद्म और विष्णु नाम के दो पुत्र हुए ।
एक दिन राजा संसार की दशा पर विचार कर रहे थे । उसकी अनित्यता और निस्सारता देखकर उन्हें बहुत वैराग्य़ हुआ उन्हें संसार दुःख मय दिखने लगा । वे उसी समय अपने बड़े पुत्र पद्म को राज्य देकर अपने छोटे पुत्र विष्णु कुमार के साथ वन में चले गये और श्रुतसागर मुनि के पास पहुँचकर दोनों पिता-पुत्र ने दीक्षा ग्रहण कर ली । विष्णु कुमार बाल पने से ही संसार से विरक्त थे, इसलिये पिता के रोकने पर भी वे दीक्षित हो गये । विष्णु कुमार मुनि साधु बनकर खूब तपश्चर्या करने लगे । कुछ दिनों बाद तपश्चर्या के प्रभाव से उन्हें विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हो गई ।
पिता के दीक्षित हो जाने पर हस्तिनापुर का राज्य पद्मराज करने लगे । उन्हें सब कुछ होने पर भी एक बात का बड़ा दुःख था । वह यह कि, कुम्भपुर का राजा सिंहबल उन्हें बड़ा कष्ट पहुँचाया करता था । उनके देश में अनेक उपद्रव किया करता था । उस के अधिकार में एक बड़ा भारी सुदृढ़ किला था । इसलिये वह पद्मराज की प्रजा पर एकाएक धावा मार कर अपने किले में जाकर छिप जाता है । तब पद्मराज उसका कुछ अनिष्ट नहीं कर पाते थे । इस कष्ट की उन्हें सदा चिंता रहा करती थी ।
इसी समय श्रीवर्मा के चारों मंत्री उज्जयिनी से निकलकर कुछ दिनों बाद हस्तिनापुर की ओर आ निकले । उन्हें किसी तरह राजा के इस दुःख का सूत्र मलूम हो गया । वे राजा से मिले और उन्हें चिंता से निर्मुक्त करने का वचन देकर कुछ सेना के साथ सिंहबल पर जा चढ़े और अपनी बुद्धिमानी से किले को तोड़कर सिंहबल को उन्होंने बाँध लिया और लाकर पद्मराज के सामने उपस्थित कर दिया । पद्मराज उनकी वीरता और बुद्धिमानी से बहुत प्रसन्न हुआ । उसने उन्हें मंत्री बनाकर कहा—तुमने मेरा उपकार किया है । तुम्हारा मैं बहुत कृतज्ञ हूँ । यद्यपि उसका प्रतिफल नहीं दिया जा सकता, तब भी तुम जो कहो वह मैं तुम्हें देने को तैयार हूँ । उत्तर में बलि नाम के मंत्री ने कहा—प्रभो, आपकी हम पर कृपा है, तो हमें सब कुछ मिल चुका । इस पर भी आपका आग्रह है, तो उसे हम अस्वीकार नहीं कर सकते । अभी हमें कुछ आवश्यकता नहीं है । जब समय होगा तब आपसे प्रार्थना करेंगे ही ।
इसी समय श्री अकम्पनाचार्य अनेक देशों में विहार करते हुए और धर्मोपदेश द्वारा संसार के जीवों का हित करते हुए हस्तिनापुर के बगीचे में आकर ठहरे । सब लोग उत्सव के साथ उनकी वन्दना करने को गये । अकम्पनाचार्य के आने का समाचार राजमंत्रियों को मालूम हुआ । मालूम होते ही उन्हें अपने अपमान की बात याद हो आई । उनका हृदय प्रतिहिंसा से उद्विग्न हो उठा । उन्होंने परस्पर में विचार किया कि समय बहुत उपयुक्त है, इसलिये बदला लेना ही चाहिये । देखो न, इन्हीं दुष्टों के द्वारा अपने को कितना कष्ट उठाना पड़ा था ? सबके हम धिक्कार पात्र बने और अपमान के साथ देश से निकाले गये । पर अपने मार्ग में एक बड़ा काँटा है । राजा इनका बड़ा भक्त है । वह अपने रहते हुए इनका अनिष्ट कैसे होने देगा ? इसके लिये कुछ उपाय सोच निकालना आवश्यक है । नहीं तो ऐसा न हो कि ऐसा अच्छा समय हाथ से निकल जाय ? इतने में बलि मंत्री बोल उठा कि, हाँ इसकी आप चिंता न करें । सिंहबल के पकड़ लाने का पुरस्कार राजा से बाकी है, उसके ऐवज में उससे सात दिन का राज्य ले लेना चाहिये । फिर जैसा हम करेंगे वही होगा । राजा को उसमें दखल देने का कोई अधिकार न रहेगा । यह प्रयत्न सबको सर्वोत्तम जान पड़ा । बलि उसी समय राजा के पास पहुँचा और बड़ी विनीतता से बोला—महाराज, आप पर हमारा एक पुरस्कार पाना है । आप कृपाकर अब उसे दीजिये । इस समय उससे हमारा बड़ा उपकार होगा । राजा उसका कूट कपट नहीं समझ और यह विचार कर, कि इन लोगों ने मेरा बड़ा उपकार किया था, अब उसका बदला चुकाना मेरा कर्त्तव्य है, बोला—बहुत अच्छा, जो तुम्हें चाहिए वह मांग लो, मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी करके तुम्हारे ऋण से उऋण होने का यत्न करूँगा ।
बलि बोला—महाराज, यदि आप वास्तव में ही हमारा हित चाहते हैं, तो कृपा करके सात दिन के लिए अपना राज्य हमें प्रदान कीजिये ।
राजा सुनते ही अवाक् रह गया । उसे किसी बड़े भारी अनर्थ की आशंका हुई । पर अब वश ही क्या था ? उसे वचनबद्ध होकर राज्य दे देना ही पड़ा । राज्य के प्राप्त होते ही उनकी प्रसन्नता का कुछ ठिकाना न रहा । उन्होंने मुनियों के मारने के लिए यज्ञ का बहाना बनाकर षड़्यंत्र रचा, जिससे कि सर्वसाधारण न समझ सकें ।
मुनियों के बीच में रखकर यज्ञ के लिए एक बड़ा भारी मंडप तैयार किया गया । उनके चारों ओर काष्ठ ही काष्ठ रखवा दिया गया । हजारों पशु इकट्ठे किये गये । यज्ञ आरम्भ हुआ । वेदों के जानकर बड़े-बड़े विद्वान य़ज्ञ कराने लगे । वेदध्वनि से यज्ञमण्डप गूँजने लगा । बेचारे निरपराध पशु बड़ी निर्दयता से मारे जाने लगे । उनकी आहुतियाँ दी जाने लगीं । देखते-देखते दुर्गन्धित धुएँ से आकश परिपूर्ण हुआ । मानो इस महापाप को न देख सकने के कारण सूर्य अस्त हुआ । मनुष्यों के हाथ से राज्य राक्षसों के हाथों में गया ।
सारे मुनिसंघ पर भयंकर उपसर्ग हुआ । परंतु उन शांति की मूर्तियों ने इसे अपने किये कर्मों का फल समझकर बड़ी धीरता के साथ सहना आरम्भ किया । वे मेरु समान निश्चल रहकर एक चित्त से परमात्मा का ध्यान करने लगे । सच है—जिन्होंने अपने हृदय को खूब उन्नत और दृढ़ बना लिया है, जिनके ह्दय में निरंतर यह भावना बनी रहती है—
अरि मित्र, महल मसान, कंचन काँच, निन्दन थुतिकरन ।
अर्धावतारन असिप्रहारन मैं सदा समता धरन ।।
वे क्या कभी ऐसे उपसर्गों विचलित होते हैं ? नहीं । पाण्डवों को शत्रुओं ने लोहे के गरम-गरम भूषण पहना दिये । अग्नि की भयानक ज्वाला उनके शरीर को भस्म करने लगी । पर वे विचलित नहीं हुए । धैर्य के साथ उन्होंने सब उपसर्ग सहा । जैन साधुओं का यही मार्ग है कि वे आये हुए कष्टों को शांति से सहें और वे ही यथार्थ साधु हैं । जिनका हृदय दुर्बल है, जो रागद्वेषरूपी शत्रुओं को जीतने के लिये ऐसे कष्ट नहीं सह सकते, दुःखों के प्राप्त होने पर समभाव नहीं रख सकते, वे न तो अपने आत्महित के मार्ग में आगे बढ़ पाते हैं और न वे साधुपद स्वीकार करने योग्य हो सकते हैं ।
मिथिला में श्रुतसागर मुनि को निमित्तज्ञान से इस उपसर्ग का हाल मालूम हुआ । उनके मुँह से बड़े कष्ट के साथ वचन निकले—हाय ! हाय !! इस समय मुनियों पर बड़ा उपसर्ग हो रहा है । वहीं एक पुष्पदंत नामक क्षुल्लक भी उपस्थित थे । उन्होंने मुनिराज से पूछा—प्रभो, यह उपसर्ग कहाँ हो रहा है ? उत्तर में श्रुतसागर मुनि बोले—हस्तिनापुर में सातसौ मुनियों का संघ ठहरा हुआ है । उसके संरक्षक अकम्पनाचार्य हैं । उस सारे संघ पर पापी बलि के द्वारा यह उपसर्ग किया जा रहा है ।
क्षुल्लक ने फिर पूछा—प्रभो, कोई ऐसा भी है, जिससे यह उपसर्ग दूर हो ?
मुनिने कहा—हाँ, उसका एक उपाय है । श्री विष्णु कुमार मुनि को विक्रियाऋद्धि प्राप्त हो गई । वे अपनी ऋद्धि के बल से उपसर्ग को रोक सकते हैं ।
पुष्पदंत फिर एक क्षण भर भी वहाँ न ठहरे और जहाँ विष्णु कुमार मुनि तपश्चर्या कर रहे थे, वहाँ पहुँचे । पहुँच कर उन्होंने सब हाल विष्णु कुमार मुनि से कह सुनाया । विष्णु कुमार को ऋद्धि प्राप्त होने की पहले खबर नहीं हुई थी । पर जब पुष्पदंत के द्वारा उन्हें मालूम हुआ, तब उन्होंने परीक्षा के लिये एक हाथ पसारकर देखा । पसारते ही उनका हाथ बहुत दूर तक चला गया । उन्हें विश्वास हुआ । वे उसी समय हस्तिनापुर आये और अपने भाई से बोले—भाई, आप किस नींद मे सोते हुए हो ? जानते हो, शहर में कितना बड़ा भारी अनर्थ हो रहा है ? अपने राज्य में तुमने ऐसा अनर्थ क्यों होने दिया ? क्या पहले किसी ने भी अपने कुल में ऐसाघोर अनर्थ आज तक किया है ? हाय ! धर्म के अवतार, परम शांत और किसी से कुछ लेते देते नहीं, उन मुनियों पर ये अत्याचार ? और वह भी तुम सरीखे धर्मात्माओं के राज्य में ? खेद ! भाई, राजाओं का धर्म तो यह कहा गया है कि वे सज्जनों की धर्मात्माओं की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें । पर आप तो बिलकुल इससे उल्टा कर रहे हैं । समझते हो साधुओं का सताना ठीक नहीं । ठण्डा जल भी गरम होकर शरीर को जला डालता है । इसलिये जब तक कोई आपत्ति तुम पर न आवे, उसके पहले ही उपसर्ग की शांति करवा दीजिये ।
अपने भाई का उपदेश सुनकर पद्मराज बोले—मुनिराज, मैं क्या करूँ ? मुझे क्या मालूम था ये पापी लोग मिलकर मुझे ऐसा धोखा देंगे ? अब तो मैं बिलकुल विवश हूँ । मैं कुछ नहीं कर सकता । सात दिन तक जैसा कुछ ये करेंगे वह सब मुझे सहना होगा । क्योंकि मैं वचनबद्ध हो चुका हूँ । अब तो आप ही किसी उपाय द्वारा मुनियों का उपसर्ग दूर कीजिये । आप इसके लिये समर्थ भी हैं और सब जानते हैं । उसमें मेरा दखल देना तो ऐसा है जैसा सूर्य को दीपक दिखलाना । आप अब जाइये और शीघ्रता कीजिये । विलम्ब करना उचित नहीं ।
विष्णु कुमार मुनि ने विक्रियाऋद्धि के प्रभाव से बावन ब्राह्मण का वेश बनाया और बड़ी मधुरता से वेदध्वनि का उच्चारण करते हुए वे यज्ञमंडप पहुँचे । उनका सुन्दर स्वरूप और मनोहर वेदोच्चार सुनकर सब बड़े प्रसन्न हुए । बलि तो उनपर इतना मुग्ध हुआ कि उसके आनन्द का कुछ पार नहीं रहा । उसने बड़ी प्रसन्नता से उनसे कहा—महाराज, आपने पधारकर मेरे यज्ञ की अपूर्व शोभा कर दी । मैं बहुत खुश हुआ । आपको जो इच्छा हो, मांगिये । इस समय मैं सब कुछ देने को समर्थ हूँ ।
विष्णुकुमार बोले—मैं एक गरीब ब्राह्मण हूँ । मुझे अपने जैसी कुछ स्थिति है, उसमे सन्तोष है । मुझे धन-दौलत की कुछ आवश्यकता नहीं । पर आपका जब इतना आग्रह है, तो आपको असंतुष्ट करना भी मैं नहीं चाहता । मुझे केवल तीन पैंड पृथ्वी की आवश्यकता है । यदि आप कृपा करके उतनी भूमि मुझे प्रदान कर देंगे तो मैं उससे टूटी फूटी झोपड़ी बनाकर रह सकूँगा । स्थान की निराकुलता से मैं अपना समय वेदाध्ययनादि में बड़ी अच्छी तरह बिता सकूँगा । बस, इसके सिवा मुझे और कुछ आशा नहीं है ।
विष्णुकुमार की यह तुच्छ याचना सुनकर और-और ब्रह्मणों को उनकी बुद्धि पर बड़ा खेद हुआ । उन्होंने कहा भी कृपानाथ, आपको थोड़े में ही संतोष था, तब भी आपका यह कर्त्तव्य तो था कि आप बहुत कुछ माँगकर अपने जाति भाइयों का ही उपकार करते ? उसमें आपका बिगड़ क्या जाता था ?
बलि ने भी उन्हें बहुत समझाया और कहा कि आपने तो कुछ भी नहीं माँगा । मैं तो यह समझा था कि आप अपनी इच्छा से माँगते हैं, इसलिये जो कुछ माँगेंगे वह अच्छा ही माँगेंगे; परन्तु आपने तो मुझे ही हताश किया । यदि आप मेरे वैभव और मेरी शक्ति के अनुसार माँगेंगे तो मुझे बहुत संतोष होता । महाराज, अब भी आप चाहें तो और भी अपनी इच्छानुसार माँग सकते हैं । मैं देने को प्रस्तुत हूँ ।
विष्णुकुमार बोले—नहीं, मैंने जो कुछ मांगा है, मेरे लिए वही बहुत है । अधिक मुझे चाह नहीं । आपको देना ही है तो और बहुत से ब्राह्मण मौजूद हैं; उन्हें दीजिये । बलिने अगत्या कहा कि जैसी आपकी इच्छा । आप अपने पाँवों से भूमि माप लीजिये । यह कहकर उसने हाथ में जल लिया और संकल्प कर उसे विष्णुकुमार के हाथ में छोड दिया । संकल्प छोड़ते ही उन्होंने पृथ्वी मापना शुरु की । पहला पाँव उन्होंने सुमेरु पर्वत पर रक्खा, दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर, अब तीसरा पाँव रखने को जगह नहीं । उसे वे कहाँ रक्खें ? उनके इस प्रभाव से सारी पृथ्वी काँप उठी, सब पर्वत चल गये, समुद्रों ने मर्यादा तोड़ दी, देवों और ग्रहों के विमान एक से एक टकराने लगे और देवगण आश्चर्य के मारे भौंचक से रह गए । वे सब विष्णुकुमार के पास आये और बलि को बाँधकर बोले—प्रभो, क्षमा कीजिये ! क्षमा कीजिये !! यह सब दुष्कर्म इसी पापी का है । यह आपके सामने उपस्थित है । बलि ने मुनिराज के पाँवों में गिरकर उनसे अपना अपराध क्षमा कराया और अपने दुष्कर्म पर बहुत पश्चात्ताप किया ।
विष्णुकुमार मुनि ने संघ का उपद्रव दूर किया । सबको शांति हुई । राजा और चारों मंत्री तथा प्रजा के सब लोग बड़ी भक्ति के साथ अकम्पनाचार्य की वन्दना करने गये । उनके पाँवों में पड़कर राजा और मंत्रियों ने अपना अपराध उनसे क्षमा कराया और उसी दिन से मिथ्यात्वमत छोड़कर सब अहिंसामयी पवित्र जिनशासन के उपाशक बने ।
देवों ने प्रसन्न होकर विष्णुकुमार की पूजन के लिये तीन बहुत ही सुन्दर स्वर्गीय वीणायें प्रदान कीं, जिनके द्वारा उनका गुणानुवाद गा-गाकर लोग बहुत पुण्य उत्पन्न करेंगे । जैसा विष्णुकुमार ने वात्सल्य अंग का पालन कर अपने धर्म बन्धुओं के साथ प्रेम का अपूर्व परिचय दिया, उसी प्रकार और-और भव्य पुरुषों को भी अपने और दूसरों के हित के लिये समय समयपर दूसरों के दुखों में शामिल होकर वात्सल्य, उदार प्रेम का परिचय देना उचित है ।
इस प्रकार जिनभगवान् के परम भक्त विष्णुकुमार ने धर्मप्रेम के वश हो मुनियोंका उपसर्ग दूर कर वात्सल्य अंग का पालन किया और पश्चात ध्यानाग्नि द्वारा कर्मों का नाश कर मोक्ष गये । वे ही विष्णुकुमार मुनिराज मुझे भवसमुद्र से पार कर मोक्ष प्रदान करें ।
रक्षाबंधन व्रत-
हस्तिनापुर में आज से लगभग १२ लाख वर्ष पूर्व श्री अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों का उपसर्ग दूर हुआ था। श्री विष्णुकुमार महामुनि ने विक्रियाऋद्धि के प्रभाव से उज्जयिनी से आकर बलि आदि मंत्रियों के द्वारा किये गये उपसर्ग को दूर कर मुनियों की रक्षा की थी, वह तिथि ‘श्रावण शुक्ला पूर्णिमा’ थी, तभी से आज तक यह तिथि ‘रक्षाबंधन’ पर्व के नाम से सारे भारत में विख्यात है। भले ही आज यह पर्व मात्र भाई-बहन के पर्व के रूप में प्रसिद्ध है, फिर भी गुरुओं की रक्षा ही इसका मुख्य उद्देश्य है।
व्रत की विधि-
श्रावण शु. १३ से पूर्णिमा तक ३ दिन यह व्रत करना चाहिए। त्रयोदशी को एकाशन करके चतुर्दशी को उपवास करें। व्रत के दिन मंदिर में पंचपरमेष्ठी की प्रतिमा का पंचामृत अभिषेक करके, यदि श्री अकंपनाचार्य और विष्णुकुमार मुनियों की प्रतिमाएं हों, तो उनका अभिषेक करें या युगल मुनियों के चरणों का अभिषेक करके पंचपरमेष्ठी की पूजा, श्री अकंपनाचार्य व विष्णुकुमार मुनि की पूजा करें। निम्न जाप्य करें-
ॐ ह्रीं श्री अकंपनाचार्यादि-सप्तशतमुनिभ्यो नम:।
अथवा
ॐ ह्रीं अर्हं महोपसर्गविजयि श्रीअकंपनाचार्यादिसप्तशतमुनिभ्यो नम:।
व्रतों के दिन रक्षाबंधन की एवं श्री विष्णुकुमार मुनि की कथा अवश्य पढ़ें। पुन: श्रावण शुक्ला पूर्णिमा के दिन हस्तिनापुर आकर श्री अकंपनाचार्य और श्री विष्णुकुमार महामुनियों की पूजा करके वहाँ पर विराजमान साधुओं को आहार दान देकर स्वयं खीर आदि का भोजन लेकर एकाशन करें अर्थात् एक बार भोजन करें एवं धर्मध्वज स्तंभ में रक्षासूत्र बांधें तथा साधर्मियों को धर्म की एवं धर्मायतन की रक्षा हेतु रक्षासूत्र बांधें। उपर्युक्त दो में से एक जाप्य करके-ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार महामुनये नम: मंत्र की भी जाप्य करें। पुन: भाद्रपद कृ. प्रतिपदा को व्रत पूर्ण करें। इस प्रकार यह व्रत सात वर्ष तक करके यथाशक्ति उद्यापन करें। इन मुनियों के चरण बनवाकर या प्रतिमा बनवाकर विधिवत् प्रतिष्ठा कराकर मंदिर में विराजमान करें। इस व्रत के प्रभाव से अनेक प्रकार की दुर्घटना,रेल, मोटर आदि के एक्सीडेंट आदि का निवारण होगा, अकाल मृत्यु टलेगी। अनेक प्रकार के कष्ट दूर होंगे और सब प्रकार से सुख, शांति, यश, संपत्ति, संतति आदि की वृद्धि होगी।
आर्षमार्ग पोषक प्रभावना प्रभाकर बालाचार्य पावनकीर्ति