5 नवंबर 2022/ कार्तिक शुक्ल दवादिशि /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी
राजा साहब हरसुखराय का मुख्य व्यवसाय अनेक छोटी-बड़ी रियासतों के साथ के साथ लेन-देन और साहूकारी का था। आप बड़े धर्मात्मा एवं उदार व्यक्ति थे आपने अपने स्वयं के व्यक्तिगत सौजन्य से 52 जैन मन्दिरों का निर्माण कराया!
अनेक अभावग्रस्त साधर्मी बन्धुओं को यथोचित सहायता देकर उनका स्थितिकरण करने की गुप्तदान देने की, सामाजिक मर्यादाओं और नैतिकता को प्रोत्साहन देने की, निज की ख्याति मान से दूर रहने आदि की अनेक किंवदन्तियाँ उनके सम्बन्ध से प्रचलित हैं।
मुगल सम्राट् शाहजहाँ के समय में स्वयं बादशाह के निमन्त्रण पर वह दिल्ली (शाहजहानाबाद) में आकर बस गए थे।
दिल्ली के धर्मपुरा में अत्यन्त भव्य, कलापूर्ण एवं मनोरम जिनमन्दिर निर्माण कराया था जो सात वर्ष में बनकर तैयार हुआ था और जिसमें उस समय लगभग आठ लाख रुपये लागत आयी थी। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने उक्त मंदिर पर कहीं भी अपना नाम अंकित नहीं कराया, अपितु उसमें बहुत साधारण सा निर्माण कार्य शेष छोड़कर उसके लिए समाज से सार्वजनिक चन्दा किया और मंदिर को पंचायती बना दिया।
प्रायः इसी घटना की पुनरावृति उन्होंने उसी समय के लगभग अपने द्वारा निर्मापित हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र के विशाल जैन मंदिर के संबंध में की थी। वह स्थान घोर वन के मध्य उजाड़ एवं उपेक्षित पड़ा था। चारों ओर बहसूमा, परीक्षितगढ़ के गूजरों, नीलोहे के जाटों, गणेशपुर के तगाओं और मीरापुर के रांगड़ों का प्राबल्य था ! जैनधर्म और जैनों के साथ उन फोकी कोई सहानुभूति नहीं थी । राजा हरसुखराय ने आड़े समय में गूजर राजा नैनसिंह को एक लाख रुपए ऋण दिए थे। वह लौटाने आया तो लेने से इंकार कर दिया और कह दिया कि यह रुपया हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र के उद्धार के नाम लिख दिया गया है, अतएव राजा सहर्ष तैयार हो गया और मंदिर बन गया। पूर्ण होने पर सेठजी ने पूरे प्रदेश की समाज को एकत्रित किया, भारी मेला किया और नाममात्र का चन्दा करके मंदिर समाज को समर्पित कर दिया।
राजा हरसुख राय ने अन्य यत्र-तत्र अनेक मंदिर बनवाए, किन्तु किसी के साथ अपना नाम सम्बद्ध नहीं किया। बहुधा लोग नाम के लिए धर्म करते हैं, किन्तु कीर्ति ऐसे ही उदारमना महानुभावों की अमर होती है, जो निःस्वार्थ समर्पण भाव से ऐसे कार्य करते हैं।