कुतुबमीनार : जैन मानस्तंभ या सुमेरू पर्वत ? आज मध्यकालीन भारतीय इतिहास में तोमर वंशी राजाओं की चर्चा बहुत कम होती है

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18 मई 2022/ जयेष्ठ कृष्णा तृतीया /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/

हमें ईमानदारी पूर्वक भारत के सही इतिहास की खोज करनी है तो हमें जैन आचार्यों द्वारा रचित प्राचीन साहित्य और उनकी प्रशस्तियों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए | यह बात अलग है कि उनके प्राचीन साहित्य को स्वयं भारतीय इतिहासकारों ने उतना अधिक उपयोग इसलिए भी नहीं किया क्यों कि जैन आचार्यों द्वारा रचित साहित्य के उद्धार को मात्र अत्यंत अल्पसंख्यक जैन समाज और ऊँगली पर गिनने योग्य संख्या के जैन विद्वानों की जिम्मेदारी समझा गया और इस विषय में राजकीय प्रयास बहुत कम हुए | इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि कुछ सांप्रदायिक भेद भाव का शिकार भी जैन साहित्य हुआ है और यही कारण है कि आज भी जैन आचार्यों के द्वारा संस्कृत , प्राकृत और अपभ्रंश आदि विविध भारतीय भाषाओं में प्रणीत हजारों लाखों हस्तलिखित पांडुलिपियाँ शास्त्र भंडारों में अपने संपादन और अनुवाद आदि की प्रतीक्षा में रखी हुई हैं ।

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प्राचीन काल से आज तक जैन संत बिना किसी वाहन का प्रयोग करते हुए पदयात्रा से ही पूरे देश में अहिंसा और मैत्री का सन्देश प्रसारित करते आ रहे हैं | दर्शन , कला , ज्ञान – विज्ञान और साहित्य रचना में उनकी प्रगाढ़ रूचि रही है | अपने लेखन में उन्होंने हमेशा वर्तमान कालीन देश काल , परिस्थिति , प्रकृति सौंदर्य , तीर्थयात्रा , राज व्यवस्था आदि का वर्णन किया है | उनके ग्रंथों की प्रशस्तियाँ , गुर्वावलियाँ आदि भारतीय इतिहास को नयी दृष्टि प्रदान करते हैं | यदि इतिहासकार डॉ ज्योति प्रसाद जैन जी की कृति ‘ भारतीय इतिहास : एक दृष्टि पढ़ेगे तो उन्हें नया अनुसंध्येय तो प्राप्त होगा ही साथ ही एक नया अवसर इस बात का भी मिलेगा कि इस दृष्टि से भी इतिहास को देखा जा सकता है |
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जैन साहित्य में इतिहास की खोज करने वाले 95 वर्षीय वयोवृद्ध विद्वान् प्रो . राजाराम जैन जी जिन्होंने अपना पूरा जीवन प्राकृत और अपभ्रंश की पांडुलिपियों के संपादन में लगा दिया , यदि उनकी भूमिकाओं और निबंधों को पढ़ेगे तो आँखें खुल जाएँगी और लगेगा कि आधुनिक युग में भौतिक विकास के उजाले के मध्य भी भारत के वास्तविक इतिहास की अज्ञानता का कितना सघन अन्धकार है ।

मुझे लगता है कि उन्होंने यदि 12-13 वीं शती के जैन संतकवि बुधश्रीधर द्वारा अपभ्रंश भाषा में रचित जैनधर्म के तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के जीवन पर आधारित रचित ग्रन्थ ‘ पासणाह चरिउ ‘ की पाण्डुलिपि का संपादन और अनुवाद न किया होता तो दिल्ली और कुतुबमीनार के इतिहास की एक महत्वपूर्ण जानकारी कभी न मिल पाती | आज मध्यकालीन भारतीय इतिहास में तोमर वंशी राजाओं की चर्चा बहुत कम होती है , जब कि दिल्ली एवं मालवा के सर्वांगीण विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।

दिल्ली शाखा के तोमरवंशी राजा अनंगपाल ( १२ वीं सदी ) का नाम अज्ञान के कुहासे में विलीन होता जा रहा था किन्तु हरियाणा के जैन महाकवि बुधश्रीधर अपने ” पासणाहचरिउ ” की विस्तृत प्रशस्तियों में उसका वर्णन कर उसे स्मृतियों में धूमिल होने से बचा लिया | दिल्ली के सुप्रसिद्ध इतिहासकार कुंदनलाल जैन जी लिखते हैं कि तोमर साम्राज्य लगभग 450 वर्ष तक पल्लवित होता रहा उसका प्रथम संस्थापक अनंगपाल था | एक जैन कवि दिनकर सेनचित द्वारा अणंगचरिउ ग्रन्थ लिखा गया था जो आज उपलब्ध नहीं है किन्तु उसका उल्लेख महाकवि धवल हरिवंस रास में और धनपाल के बाहुबली चरिउ में किया गया है ।

Decorative window at Qutub Minar complex, Delhi, India

यदि यह ग्रन्थ किसी तरह मिल जाय तो इतिहास की कई गुत्थियाँ सुलझ सकती हैं | बुध श्रीधर के साहित्य से ज्ञात होता है कि वे अपभ्रंश भाषा के साथ साथ प्राकृत , संस्कृत भाषा साहित्य एवं व्याकरण के भी उद्भट विद्वान थे | पाणिनि से भी पूर्व शर्ववर्म कृत संस्कृत का कातन्त्र व्याकरण उन्हें इतना अधिक पसंद था कि जब वे ढिल्ली ( वर्तमान दिल्ली ) की सड़कों पर घूम रहे थे तो सड़कों के सौन्दर्य की उपमा तक कातन्त्र व्याकरण से कर दी – ‘ कातंत इव पंजी समिद्ध ‘ – अर्थात् जिस प्रकार कातंत्र व्याकरण अपनी पंजिका ( टीका ) से समृद्ध है उसी प्रकार वह ढिल्ली भी पदमार्गों से समृद्ध है |

2 12-13 वीं सदी के हरियाणा के जैन महाकवि बुधश्रीधर अपूर्व कवित्व शक्ति के साथ घुमक्कड़ प्रकृति के भी थे किन्तु उसकी वह घुमक्कड़ प्रकृति रचनात्मक एवं इतिहास दृष्टि सम्पन्न भी थी । एक दिन वे जब अपनी एक अपभ्रंशभाषात्मक चंदप्पहचरिउ ( चन्द्रप्रभचरित ) को लिखते – लिखते कुछ थकावट का अनुभव करने लगे तो उनकी घूमने की इच्छा हुई । अतः वह पैदल ही यमुनानगर होते हुये ढिल्ली ( तेरहवीं सदी में यही नाम प्रसिद्ध था ) अर्थात् दिल्ली आ गये । यह पूरी कहानी उन्होंने अपनी प्रशस्ति में लिखी है ।
1 तोमर कालीन ढिल्ली के जैन सन्दर्भ- कुंदनलाल जैन , कुतुबमीनार परिसर और जैन संस्कृति