दुनिया में सब कर्मों के मारे हैं। किसे कब क्या हो जाए, किसके क्या भाव बन जाएं, कौन कब क्या कर ले, यह किसी को नही पता है। यह सब कर्मों के कारण होता है। फिर भी हम दुनिया भर की बातें सोचते रहते हैं। दुनिया भर की बातें सोचने के बजाए हम अपने कर्मों पर ध्यान दें। मुझे क्या करना है, क्या सोचना है, क्या बोलना है, इस बारे में सोचें, चिंतन करें तो ही हम कर्मों से जीत सकते हैं। कर्म तो कहता है कि वर्तमान के बारे में सोचो। भूत-भविष्य की बातों पर ध्यान मत दो। वर्तमान के कर्म ठीक होंगे तो भूत-भविष्य दोनों ठीक हो जाएंगे, इसलिए भूत-भविष्य की बातों को छोड़ कर वर्तमान के कर्मों पर ध्यान देना होगा। उसी के अनुसार अपने आप को ढालना होगा और उसी परिस्थिति के अनुसार हमें अपने जीवन की चर्या को बनाना होगा।
मुझे उसने यह कह दिया…. उसे तो मैं बाद में बताता हूं…. समय आने पर मैं उसकी बात का जवाब दूँगा… वह अपने आप समझता क्या है…. मेरा भी दिन आएगा… इस प्रकार की प्रवृत्ति को छोड़ना होगा। इस प्रकार की प्रवृति ही कषायों को जन्म देती है। कर्मों का बन्ध करवाती है। कर्मबंध का फल जन्म-जन्मांतर तक भोगना पड़ता है। कर्मबंध के कारण ही आज पिता-पुत्र, पति-पत्नी, माँ-बेटे जैसे रिश्तों में भी एक दूसरे के प्रति द्वेष पैदा हो रहा है। परिवार बिखर रहे हैं। सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं होने जैसा ऐसा अनुभव हो रहा है। व्यक्ति अपने आप को अकेला समझ रहा है। दुनिया के सारे रिश्ते होते हुए भी उन रिश्तों में दरार पड़ रही है। यह सब कर्मोें का ही फल है।