18 अक्टूबर 2022/ कार्तिक कृष्णा अष्टमी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी
श्रावक के 11 दर्जे होते हैं , उन्हें ग्यारह प्रतिमा कहते हैं । श्रावक ऊपर ऊपर चढ़ता हुआ एक से दूसरी , दूसरी से तीसरी , तीसरी से चौथी , इसी तरह ग्यारहवीं प्रतिमा तक चढ़ता है और उससे ऊपर चढ़कर साधु या मुनि कहलाता है । अगली – अगली प्रतिमाओं में पहले की प्रतिमाओं की क्रिया का होना भी जरूरी होता है । ये प्रतिमा जीवन भर के लिये ली जाती हैं ।
1. दर्शन प्रतिमा– सम्यग्दर्शन सहित अतिचार रहित आठ मूलगुणों का धारण करना और सात व्यसनों का अतिचार सहित त्याग करना दर्शन प्रतिमा है । इस प्रतिमा का धारी दार्शनिक श्रावक कहलाता है । यह सदा संसार में उदासीन रहता है और इस जन्म तथा अगले जन्म में सांसारिक सुखों की वांछा नहीं रखता ।
2. व्रत प्रतिमा -5 अणुव्रत , 3 गुणव्रत , 4 शिक्षाव्रत इन 12 व्रतों का पालन करना व्रत प्रतिमा है । इस प्रतिमा का धारी व्रती श्रावक कहलाता है ।
3. सामायिक प्रतिमा प्रतिदिन प्रातः काल , मध्याह्नकाल और सायंकाल दो – दो घड़ी विधिपूर्वक , निरतिचार सामायिक करना , सामायिक प्रतिमा है । सामायिक करने की विधि – पहले पूर्व दिशा की ओर मुँह करके खड़े होकर नौ बार णमोकारमन्त्र पढ़कर दण्डवत करें , फिर उसी तरफ खड़े होकर तीन बार णमोकारमन्त्र पढ़कर तीन आवर्त और एक नमस्कार ( शिरोनति ) करे और फिर क्रम से दक्षिण पश्चिम और उत्तर दिशा की ओर तीन – तीन आवर्त और एक – एक नमस्कार करें , अनन्तर पूर्व दिशा की ओर मुँह करके खड़े होकर अथवा बैठकर मन , वचन , काय को शुद्ध करके पाँच पापों का त्याग करें , सामायिक पाठ पढ़े , आत्मचिन्तन करें या किसी मन्त्र का जाप करें । फिर अन्त में खड़े हो नौ बार णमोकर मन्त्र पढ़कर पूर्ववत् चारों दिशाओं में आवर्त व नमस्कार करें । सामायिक का समय उत्कृष्ट छह घड़ी , मध्यम चार घड़ी , जघन्य दो घड़ी है । 24 मिनट की एक घड़ी होती है ।
4. प्रोषधोपवास प्रतिमा – हर एक अष्टमी और चतुर्दशी को 16 पहर का अतिचार रहित उपवास अर्थात् प्रोषधोपवास करना और गृह , व्यापार , भोग , उपभोग की समस्त सामग्री का त्याग करके एकांत में बैठकर धर्म – ध्यान में लगना , प्रोषध प्रतिमा है । मध्यम 12 पहर और जघन्य 8 पहर का प्रोषधोपवास होता है । एक पहर 3 घंटे का होता है ।
5. सचित्तत्याग प्रतिमा – हरी वनस्पति अर्थात् कच्चे व पके हुये फल , फूल , बीज , पत्ते , पानी वगैरह न खाना , इनको अग्नि में पकाकर ही खाना , उसे सचित्तत्याग प्रतिमा कहते हैं । जिसमें जीव होते हैं , उसे सचित्त कहते हैं । अतएव जीव रहित पदार्थों का भक्षण करना , सचित्तत्यागप्रतिमा है ।
6. रात्रिभोजनत्याग प्रतिमा – कृत , कारित , अनुमोदना से और मन वचन काय से रात्रि में सभी प्रकार के आहार का त्याग करना अर्थात् सूर्यास्त के दो घड़ी पहले से सूरज निकलने के दो घड़ी पीछे तक चार प्रकार के आहार का त्याग करना रात्रिभोजनत्याग प्रतिमा है ।
7. ब्रह्मचर्य प्रतिमा मन , वचन , काय से स्त्री मात्र का त्याग करना ब्रह्मचर्य प्रतिमा है ।
8. आरम्भत्याग प्रतिमा मन , वचन , काय से और कृत , कारित , अनुमोदना से गृहकार्य तथा आजीविका सम्बन्धी सब तरह की क्रियाओं का त्याग करना , आरम्भत्यागप्रतिमा है । आरम्भत्यागप्रतिमा वाला स्नान , दान , पूजन वगैरह कर सकता है ।
9. परिग्रहत्याग प्रतिमा धन धान्यादि परिग्रह को पाप का कारण रूप जानते हुए , अति आवश्यक परिग्रह के अलावा समस्त परिग्रह को छोड़ना , परिग्रहत्याग प्रतिमा है ।
10. अनुमतित्याग प्रतिमा – गृहस्थाश्रम के किसी भी कार्य का अनुमोदन नहीं करना अनुमतित्याग प्रतिमा है । इस प्रतिमा का धारी उदासीन होकर घर में या चैत्यालय या मठ वगैरह में बैठता है । घर पर या और जो कोई श्रावक भोजन के लिए बुलावे उसके यहाँ भोजन कर आता है । किन्तु अपने मुँह से यह नहीं कहता कि मेरे वास्ते वह चीज बनाओ ।
11. उद्दिष्टत्याग प्रतिमा घर छोड़कर वन में या मठ वगैरह में तपश्चरण करते हुए रहना , खण्डवस्त्र धारण करना , बिना याचना किये भिक्षावृत्ति से योग्य उचित आहार लेना , अपने लिये भोजन बनवाने का या बने हुये का त्याग करना , उद्दिष्टत्याग प्रतिमा है । इस प्रतिमा के धारी क्षुल्लक और ऐलक होते है।
ऐलक का लक्षण – जो केवल एक लंगोट मात्र पहनते हैं , पीछी कमण्डलु रखते हैं , केशलोंच करते हैं तथा बैठकर हाथ में आहार ग्रहण कर हैं , ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करते हैं । इनको नमस्कार करते समय इच्छामि बोलना चाहिए ।
* क्षुल्लक का लक्षण* – जो पीछी , कमण्डलु रखते हैं , केवल एक लंगोट तथा छोटा दुपट्टा रखते हैं , बैठकर कटोरे में या हाथ में आहार करते हैं , केशलोंच करते हैं या कैंची से भी बाल बना सकते हैं , श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करते हैं । इनको नमस्कार करते समय इच्छामि कहना चाहिए ।
प्रतिमाधारी के गुणस्थान
ये 11 प्रतिमाएँ देशव्रत नामक पंचम गुणस्थान में होती हैं । इनको क्रम से पालने वाला भव्य स्वर्गादि के उत्तम सुख पाता है । इनमें से 1-6 प्रतिमा वाले जघन्य श्रावक , 7-9 प्रतिमा वाले मध्यम श्रावक तथा 10 व 11 वीं प्रतिमा वाले उत्तम श्रावक कहलाते हैं । श्रावक के व्रतों के कारण , सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति काल से असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा प्रति समय होती है।