त्याग – मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी है। त्याग हमारे जीवन को श्रेष्ठ और सुंदर बनाता है। त्याग एक नैसर्गिक कर्तव्य है। श्वास लेने के बाद जैसे छोड़ना जरूरी है, उसी प्रकार ग्रहण करने के बाद विसर्जन भी जरूरी है। त्याग के बिना जीवन भारी और कष्टमय हो जाता है। निर्मलता का आना ही त्याग का प्रयोजन है। मनुष्य के भीतर बहुत कुछ दिव्य, अलौकिक एवं अद्भुत है। उसके उत्खनन के लिए तपश्चर्या अनिवार्य है। भगवान ने विभूतियों का भण्डार मानवी कलेवर में भर दिया है, पर उससे लाभान्वित होने का अधिकार उसी को दिया है, जो तप साधना द्वारा अपनी पात्रता सिद्ध कर सके।
जिस प्रकार दूध को तपाने से मलाई और घी निकलता है। धातुओं को तपाने से वे बहुमूल्य भस्म और रसायन बनती है। सामान्य अन्न तपाये जाने पर स्वादिष्ट आहार बनता है, मिट्टी को तपाने से पत्थर बनती है। कच्चा लोहा पकाने पर ही फौलाद बनता है। स्वर्ण की आभा अग्नि संस्कार से ही निखरती है।
उसी प्रकार सम्मेद शिखरजी सिद्ध क्षेत्र में साक्षात विराजमान भारत गौरव साधनामहोदधि गुरुदेव तपाचार्य 108 अंतर्मना श्री प्रसन्न सागर जी महाराज भी तप की साधना से अपनी आत्मा की शुद्धि करते हुए अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर है। उनकी तप साधना की जितनी भी अनुमोदना करें, वे कम ही होगी। उनको शत् शत् वंदन, त्रिबार नमोस्तु
हमें भी गुरुदेव की तप साधना को देखते हुए अभीष्ट उद्देश्य के लिए तपस्वी बनने का प्रयत्न करना चाहिए और इस मान्यता को दृढ़तापूर्वक हृदयंगम कर लेना चाहिए कि भौतिक उन्नति के लिये जिस प्रकार कठोर श्रम और प्रचण्ड साहस की, एकाग्र मनोयोग की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार आत्मिक विभूतियाँ प्राप्त करने के लिये तप साधना की अनिवार्य आवश्यकता रहती है। जो इस मूल्य को चुका सकते हैं, वे ही शक्तियों और सिद्धियों से सम्पन्न होते हैं।
वीर प्रभु से प्रार्थना , कि अंतर्मना गुरुदेव सदैव स्वस्थ रहें, दीर्घायु रहें एवं परम शाश्वत मोक्ष लक्ष्मी सुख को प्राप्त करें
रवि सेठी डिमापुर