मधुवन /औरंगाबाद । भारत गौरव साधना महोदधि अन्तर्मना आचार्य श्री प्रसन्न सागर जी महाराज ने शिखरजी मे प्रवचन मे कहा कि अपनी आदतों के अनुसार चलने में, इतनी गलतियाँ नहीं होती, जितनी दुनिया का ख्याल और लिहाज रखकर चलने में होती है। इसलिए स्वयं को सुधारने का मार्ग है सन्यास ।
दीक्षा या सन्यास सिर्फ वेश परिवर्तन का नाम नहीं है। बल्कि यह तो भाव परिवर्तन का पुरूषार्थ, आत्म ज्योति के दीप के दीपित होने का पावन पुनीत अवसर, पशुता के भावों के क्षपण का उपक्रम, परिणामों का परिवर्तन और दीक्षित परिणामों का सदैव सुमिरन का सर्वोत्तम प्रसंग है। दीक्षार्थी या सन्यासी हर पल आत्मालोचना का अन्तःकरण से उद्भूत अभ्यास यह चिन्तन करता है कि यदि किन्चित भी विकृति हो जाये मन में, तो उसी क्षण ही हो जाये, विकृत भाव का परिमार्जन/ संशोधन के साथ पुरूषार्थ की कलिकाल की यह साधना मुक्ति प्रदायक होगी, भव भव का यह पुरूषार्थ कभी व्यर्थ नहीं जायेगा। जन्म-मृत्यु के चक्र जाल से मुक्त होगी और विहार करेगी स्वतन्त्रता के उन्मुक्त गगन में।
दीक्षार्थी साधक की सम्यक्त्व को समर्पित सच्ची भावना का उपादान और दीक्षा प्रदायक गुरू का अनुग्रह दोनों का जब युग्म होता है, तब दीक्षा सम्पन्न होती है। शिष्य की सुषुप्त शक्ति को जगाने का निमित्त सृजित होता है। दीक्षा के समय दीक्षार्थी को उतना पता नहीं चलता कि इस रूपांतरण से क्या मिला है ? परन्तु जब दीक्षार्थी रत्नत्रय की साधना में रमता है, वीतराग की भक्ति के भजन से, मन आँगन को सींचता है, अपने सच्चे श्रद्धान को आत्म-स्वरूप के चिन्तन-मनन में समर्पित करता है,, तब दीक्षा पनपती है, समृद्ध होती है और प्रस्थान करती है देह से विदेह की साधना पथ पर।
सिर मुण्डन, कैशलोंच के साथ, मन का मुण्डन भी होता है। इन्द्रियों को वश में किया जाता है एवं वस्त्र त्याग के साथ साथ, विकारों को पूर्ण रूपेण हटाया जाता है।
– नरेंद्र अजमेरा पियुष कासलीवाल