‘सम्यकदर्शी होने के लिए जिनबिम्ब दर्शन जरूरी’- अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज

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जिस स्थान पर जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा की स्थापना की जाती है उसे मंदिर या जिनालय कहते हैं। जिनालय में तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा इसलिए विराजमान करते हैं कि सम्यकदर्शी के होने के लिए जिनबिम्ब दर्शन जरूरी है। जिनेंद्र भगवान के दर्शन करने से मन पवित्र होता है, पापों का नाश होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। मंदिर समवसरण का प्रतीक होता है क्योंकि जहाँ पर तीर्थंकर भगवान बैठकर उपदेश देते है उसे समवसरण कहते हैं। मंदिर में जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा हमें मौनपूर्वक हिंसा आदि पाप के त्याग और क्षमा आदि धर्म को धारण करने का उपदेश देती है।
मन्दिर में प्रवेश करते समय निस्सहि, निस्सहि, निस्सहि तीन बार इस लिए बोला जाता है कि भगवान के समक्ष कोई अदृश्य देवगण अथवा श्रावक दर्शन कर रहे हों तो वे मुझे दर्शन के लिए स्थान दें।
तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा पर तीन छत्र हमें तीर्थंकर के तीन लोक के स्वामित्व के बारे में बताते हैं। तीर्थंकर की प्रतिमा के दोनों और एक-एक चंवर 64 चंवर का प्रतीक है क्योंकि समवसरण में देवों के द्वारा 64 चंवर ढुलाए जाते हैं। यह 64 चंवर 64 ऋद्धियों के प्रतीक होते हैं।
मंदिर में घण्टा दुन्दुभि का प्रतीक है, क्योंकि मंदिर समवसरण का प्रतीक है। समवसरण में देवगण दुन्दुभि बजाते हैं, इसलिए दुन्दुभि के प्रतीक के रूप में घंटा बजाया जाता है। इसका एक कारण यह भी है कि घंटा बजाने से जो ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं वे मंदिर के वातावरण को निर्मल बनाती हुई हमारे मन को शांति प्रदान करती हैं।
मन्दिर में प्रदक्षिणा (परिक्रमा) इसलिए दी जाती है कि मंदिर समवसरण का प्रतीक है और समवशरण में चारों दिशाओं में तीर्थंकर का मुख होता है। उसी के प्रतीक स्वरूप परिक्रमा लगते है। परिक्रमा लगाते समय भाव करना चाहिए कि जन्म, जरा, मृत्यु से छुटकारा मिले और रत्नत्रय की प्राप्ति हो। भगवान के दर्शन करने से सम्यकत्व की प्राप्ति होती है। सम्कत्व दृढ़ होता है, मन के अशुभ भाव नष्ट हो जाते हैं, असंख्यात कर्मों की निर्जरा होती है, अनेक उपवासों का फल मिलता है, पुण्यास्रव होता है, वीतरागता प्राप्त करने की भावना दृढ़ होती है और जिनेन्द्र देव के दर्शन करने से पूरे दिन के लिए ऊर्जा मिलती है।