सोमवार 9 अगस्त 2021, भीलूड़ा , मौन साधना का पांचवा दिन। सोचते-सोचते समय का पता ही नहीं चला। सुबह 2 बजे से सोच रहा था। जब वापस चिंतन से उठा तो देखा 3:30 बज गए हैं। इतना ही समझ में आया कि अपने दोषों की गिनती तो की नहीं जा सकती, उन्हें स्मृति में लाना भी मुश्किल है। सोच ही रहा था कि क्या करूं।
पुरानी बातों को याद करने के बजाए एक नई शुरुआत करूं। जो अभी तक कर रहा था, वह नहीं करूंगा और जाने- अनजाने में हुए पापों का प्रायश्चित करूंगा। इस मौन साधना का उद्देश्य ही पुरानी स्मृतियों को भुलाना है और नई स्मृतियां बनाना है। ऐसी स्मृतियां, जिसमें मेरे अंदर से दूसरों के लिए हमेशा दुआ निकले, चाहे कोई मेरे लिए कितना ही बुरा क्यों ना करे। भले ही वह मेरे लिए बुरे विचार रखे। मेरे सामने आकर भी मुझे आंखें दिखाए लेकिन उसके लिए भी मेरे अंदर से यही भाव हमेशा निकले कि सामने वाला इंसान मेरे कारण स्वयं के जीवन में दुःखों का कारण बांध रहा है। परमात्म इसे सद्बुद्धि दे। मुझे कोई कुछ कह रहा है, इसका मतलब तो यही है कि यह तो मेरे अशुभ कर्म का ही फल है और इसे मुझे ही भोगना है। मैं जब अपनी गलती मान लेता हूं तो मुझे क्यों दूसरों पर क्रोध आएगा। जो मेरे साथ हो रहा है, उसे मैं शांत भाव से सहन करूंगा। मन ही मन में आत्मग्लानि महसूस करूंगा कि मेरी गलती है इसलिए तो सामने वाला मेरे साथ ऐसा कर रहा है। इसी सोच का नाम तो दोषों को स्वीकार करना है।
आगे से दोषों से बचने के लिए मैं अपने आप को सहज बना लूंगा। जो जीवन में हो रहा है, उसे सहजता से लेकर सकारात्मक सोच के साथ जीवन में उतारने का काम करूंगा। मैं अपने आप को क्यों किसी के लिए बदलूं और क्यों मैं अपने लिए दूसरे को बदलने को कहूं। बस जीवन का एक ही लक्ष्य है- जो हो रहा है, जैसे हो रहा है वह सब मेरे लिए अच्छा है। जब मैंने किसी के साथ गलत किया ही नहीं, तो क्यों दूसरा मेरा गलत करेगा। इतना सोचने भर से ही तो सब ही मेरे अपने हो जाएंगे। न कोई खास और न कोई दूर, मेरे सब हैं। कर्म सिद्धांत कहता है कि जो दूसरों के साथ गलत करता है उसीके साथ गलत होता है। अगर मेरे साथ गलत हो रहा है तो मैंने भी किसी का गलत किया होगा। जो मेरी कमाई है। तो क्यों दूसरों को दोष देकर मैं अपने आपको दोषी बनाऊं।
बस फिर मुझे समझ आ गया कि अपने आपको सहज बना लूं और दोषों से बचता जाऊं। जीवन अपने आप सुखद, शांतिमय बन जाएगा। इसी उद्देश्य से तो संयम को और अध्यात्म को जीवन में धारण किया था। आज भी आंखें नम थीं, पर फर्क था- आज आंखें नम इसलिए थीं क्योंकि आज मुझे अपनी मंजिल की सीढ़ी सामने दिखाई दे रही थी।