17 अगस्त 2022/ भाद्रपद कृष्ण षष्ठी/चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/
जब लगे कि गलत आ गए तो वापसी में संकोच मत करना
धर्म की आराधना कभी भी और कहीं भी की जा सकती है। किंतु पर्युषण पर्व में धर्म आराधना की जो सहज प्रेरणा मिलती है वह अपने आप में अद्भुत है। ज्ञानी होना अच्छा है, चरित्रवान होना अच्छा है पर सिर्फ ज्ञानी और चरित्रवान होना ही पर्याप्त नहीं। वो मनुष्य जो दृष्टि-संपन्न ना हो ना सच्चा ज्ञानी हो सकता है और ना सच्चा चरित्रवान हो सकता है। इसलिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र इन तीनों की समन्वित आराधना ही हमें पूर्ण धार्मिक बनाती है। इन तीनों विधि से आत्म-स्वरूप की प्रतीति-पूर्वक चारित्र (धर्म) के दश लक्षणों -उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप,त्याग, आकिंचन और ब्रह्मचर्य की आराधना करना दशलक्षण अथवा पर्युषण पर्व है।
धर्म के यह दश लक्षण ऐसे हैं जो सम्प्रदायवाद, जातिवाद से कोसों दूर हैं और आत्म-कल्याण चाहने वाले सभी व्यक्तियों के लिए ग्राह्य हैं। लगभग सभी धर्म में इन्हें किसी ना किसी नाम से स्वीकार किया गया है। इन धर्मों को जीवन में उतारने से मानव का वो स्वरूप सामने आता है जिसमें वह विश्वबंधुत्व की भावना से ओतप्रोत हो जाता है। समस्त मानव जाति यदि धर्म, क्षेत्र की रेखाओं से परे होकर इन दश धर्मों का पालन करे तब यह विश्व जितनी कुरीतियां, विकृतियां का सामना कर रहा है वो सब तिरोहित हो सकती हैं।
धार्मिक जीवन व्यक्ति का आंतरिक जीवन है। धर्म से उसका अंत:करण निर्मल होता है। अंतःकरण की निर्मलता का मुख्य हेतु है –मैत्री। यह मैत्री भावना प्रतिदिन अनुकरणीय है। किसी के प्रति मन में कुटिल भाव आये तो उसका तत्काल शोधन कर लिया जाए। यदि आवेश-वश या किन्हीं और अपरिहार्य स्थिति में तुरंत ही ह्रदय को सरल न बना सकें, तब समस्त कुटिलताओं को धोने हेतु यह पर्व इसका अवसर देता है। यही कारण है इस पर्व का प्रारंभ क्षमा से होता है और अंत भी क्षमा से होता है।
यह पर्व हमें प्रेरणा देता है कि हम अपने अतीत का अवलोकन करें, वर्तमान को विशुद्ध रखें और भविष्य के प्रति सतत जागरूकता का संकल्प करें। चलते-चलते जहां यह अनुभव हो कि हम गलत मार्ग पर हैं वहीं से वापस मुड़ जाना और सही मार्ग पर आगे बढ़ना धर्म के दश लक्षणों का संदेश है। जीवन की सार्थकता तब ही है जब पर्व के दिनों किया गया यह प्रयोग हमारे जीवन की स्वाभाविकता में परिवर्तित हो जाये। कितना ही कठिन समय हो हमारी सरलता बनी रहे, मान-अपमान दोनों स्थिति में विनय से विचलित ना हों। कलुषता हमें घेरे तब भी हमारी पवित्रता में कमी न आए, असत्य हमें कितना ही प्रलोभन दे सत्य को नहीं छोडें। जब-जब मन पाप करने की ओर अग्रसर हो अनुशासन बनाकर रखें, इच्छाएं तांडव करें तो संयम की मधुर तान से शांत कर दें।
पर्व काल में हम संस्कारों को सुदृढ़ बनाने और अपसंस्कारों को तिलांजलि देकर एक दूसरे को समझने और मनोमालिन्य मिटा कर मन में यह भाव जागृत जागा कर कि सब हमारे अपने हैं समीप के आने का प्रयास करते हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा -अत्मौप्म्येन सर्वत्र: समेपष्यति योर्जुन –हे अर्जुन प्राणी मात्र को अपने तुल्य समझो। महावीर का भी यही संदेश है -मित्ती मे सव्व भूएसु, वेरंमज्झन्ण केनइ। सभी प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है किसी के साथ वैर नहीं है।
पर्व के दिनों हमें कहीं से कोई धर्म आयात करने की प्रक्रिया नहीं करनी है। अपितु हमारे भीतर जो विकृतियां आ गई हैं उन्हें हटा कर धर्म स्थापित करना है। इन दिनों हम स्वयं के द्वारा स्वयं को देखने का, नैतिकता और चरित्र की चौकसी का काम करते हैं। अपने आप को प्रेरित करते हैं कि भौतिक और संसारी जीवन जीते हुए भी आध्यात्मिकता को जीवन का हिस्सा बनाएं।
– निर्मल जैन ,नवभारत टाइम्स 17-08-2022