आत्मा का स्वभाव : #दशलक्षण पर्व – जीवों रक्षा धर्म- चारित्र धर्म- वीतरागभाव धर्म – दया धर्म- इच्छा का निरोध- शुद्ध आत्मा में रमण

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28 अगस्त 2022/ भाद्रपद शुक्ल एकम/चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/
दसधम्मसारो ( दशधर्मसार )

मंगलाचरण (गाहा)
णमो हु सव्वजिणाणं आयरियोवज्झायसाहूणं य ।
णमो य पज्जुसणाणं णमो दसलक्खणपव्वाणं ।।१।।
सभी जिनेन्द्र भगवंतों को मेरा नमस्कार ,सभी आचार्यों,उपाध्यायों और साधुओं को मेरा नमस्कार,पर्युषण को नमस्कार और दसलक्षण पर्वों को नमस्कार |

(उग्गाहा छंद)
धम्मसरूवं – ( धर्म का स्वरूप )
दंसणमूलो धम्मो वत्थुसहावो खलु जीवरक्खणं ।
चारित्तं सुदं दया धम्मो य सुद्धवीयरायभावो ।।२।।
दर्शन का मूल धर्म है ,वस्तु का स्वभाव धर्म है ,जीवों की रक्षा ही धर्म है ,चारित्र धर्म है ,श्रुत धर्म है ,दया धर्म है और विशुद्ध वीतरागभाव धर्म है –ऐसा जानो ।

धम्मस्स दसलक्खणं – (धर्म के दशलक्षण )
धम्मस्स दसलक्खणं खमा मद्दवज्जवसउयसच्चा य ।
संजमतवचागाकिंयण्हं बंभं य जिणेहिं उत्तं ।। ३ ।।
जिनेन्द्र भगवान् ने धर्म के दस लक्षण कहे हैं – उत्तम क्षमा , उत्तम मार्दव , उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य ।

उत्तमखमा – उत्तम क्षमा
खमा हु अप्पसहावो कोहाभावे य जायइ अप्पम्मि ।
मिच्छत्तस्साभावे जहा य सम्मत्तं हवइ अप्पम्मि ।।४।।
क्षमा आत्मा का स्वभाव है , वह क्रोध कषाय के अभाव स्वरूप आत्मा में उत्पन्न होती है जैसे मिथ्यात्व के अभाव में सम्यक्त्व आत्मा में प्रगट होता है ।

उत्तममज्जवं – उत्तम मार्दव
मज्जवप्पसहावो य माणाभावे य जायइ अप्पम्मि ।
मिच्छत्तस्साभावे जहा य सम्मत्तं हवइ अप्पम्मि ।।५।।
मार्दव आत्मा का स्वभाव है , वह मान कषाय के अभाव स्वरूप आत्मा में उत्पन्न होता है जैसे मिथ्यात्व के अभाव में सम्यक्त्व आत्मा में प्रगट होता है ।

उत्तमज्जवं – उत्तम आर्जव
अज्जवप्पसहावो य मायाभावे य जायइ अप्पम्मि ।
मिच्छत्तस्साभावे जहा य सम्मत्तं हवइ अप्पम्मि ।।६।।
आर्जव आत्मा का स्वभाव है , वह माया कषाय के अभाव स्वरूप आत्मा में उत्पन्न होता है जैसे मिथ्यात्व के अभाव में सम्यक्त्व आत्मा में प्रगट होता है ।

उत्तम-सउचं – उत्तम शौच
सउचं अप्पसहावो लोहाभावे य जायइ अप्पम्मि ।
मिच्छत्तस्साभावे जहा य सम्मत्तं हवइ अप्पम्मि ।।७।।
शौच आत्मा का स्वभाव है , वह लोभ कषाय के अभाव स्वरूप आत्मा में उत्पन्न होता है जैसे मिथ्यात्व के अभाव में सम्यक्त्व आत्मा में प्रगट होता है ।

उत्तम-सच्चं – उत्तम सत्य
सच्चधम्मे य सच्चे वयणे अत्थि भेओ जिणधम्मम्मि ।
पढमो वत्थुसहावो दुवे अत्थि महव्वयं साहूणं ।।८।।
जिन धर्म में उत्तम सत्य धर्म और सत्य वचन में भेद है । एक (उत्तम सत्य धर्म)तो वस्तु का स्वभाव है और दूसरा (सत्य वचन) मुनियों का महाव्रत है ।

उत्तम-संजमो – उत्तम संयम
संजमणमेव संजम जो सो खलु हवइ समत्ताणुभाइ ।
णियाणुभवणिच्छयेण ववहारेण पचेंदियणिरोहो ।।९।।
संयमन ही संयम है जो निश्चित ही सम्यक्त्व का अनुभावी होता है । निश्चयनय से निजानुभव और व्यवहार से पंचेन्द्रिय निरोध संयम कहलाता है ।

उत्तम-तवो – उत्तम तप
इच्छाणिरोहो तवो कम्मखवट्ठं सगरूपायरणं ।
णियबहितवो भेयेण तेसु झाणं परमतवोद्दिट्ठं ।।१०।।
इच्छा का निरोध तप है , कर्म क्षय के लिए अपने स्वरूप में रमण करना तप है ।तप छह अन्तरंग और छह बहिरंग के भेद से बारह प्रकार का होता है उनमें भी ध्यान को परम तप कहा गया है ।

उत्तम-चागं – उत्तम त्याग
सगवत्थुणं य दाणं चागपरदव्वेसु रागाभावो ।
णाणचागो ण होदि य भेयणाणं अत्थि पच्चक्खाणं ।।११।।
स्व वस्तुओं का दान होता है और पर वस्तुओं में रागद्वेष का अभाव त्याग है । निश्चित ही ज्ञान का त्याग नहीं होता है (जबकि दान होता है ) और वास्तव में पर द्रव्यों से भेदज्ञान होना ही प्रत्याख्यान(त्याग) है ।

उत्तमाकिंयण्हं – उत्तम आकिंचन्य
परकिंचिवि मज्झ णत्थि भावणाकिंयण्हं गणहरेहिं ।
अंतबहिगंथचागो अणासत्तो हवइ अप्पासयेण ।।१२।।
पर पदार्थ कुछ भी मेरा नहीं है ऐसी भावना ही उत्तम आकिंचन्य धर्म है –ऐसा गणधरों के द्वारा कहा गया है ।अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहों का त्याग और उनके प्रति अनासक्ति आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होती है ।

उत्तमबंभचय्यं – उत्तम ब्रह्मचर्य
बंभणि चरणं बंभं जीवो विमुक्कपरदेहतित्तिस्स ।
विवरीयलिंगेसु खलु आसत्ति कारणं य भवदुक्खस्स ।।१३।।
जीव का परदेह की सेवा से रहित होकर अपनी शुद्ध आत्मा में रमण करना ब्रह्मचर्य है ।निश्चित रूप से विपरीत लिंग में आसक्ति ही भव दुःख का मूलकारण है ।

खमापव्वं – क्षमा पर्व
जीवा खमंति सव्वे खमादिणे य जायंति सव्वाओ।
‘मिच्छा मे दुक्कडं ‘ य बोल्लंति वेरमज्झं ण केण वि ।।१४।।
क्षमा दिवस पर जीव सभी को क्षमा करते हैं और सबसे (क्षमा) याचना करते हैं। (वे) कहते हैं -मेरे दुष्कृत्य मिथ्या हों तथा मेरा किसी से भी बैर नहीं है।

धम्मसारो – धर्म का सार
धारइ जो दसधम्मो पंचमयाले णियसत्तिरूवेण ।
सो अणिंदियाणंदं लहइ ‘अणेयंत’ सरूवं अप्पं ।।१५।।
इस विषम पंचम काल में भी जो इन दस धर्मों को यथा शक्ति धारण करता है ,वह अतिन्द्रित आनंद और ‘अनेकांत’ स्वरूपी आत्मा को प्राप्त करता है ।
– प्रो डॉ.अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली
(आचार्य-जैनदर्शन विभाग,श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली -16, Email – drakjain2016@gmail.com ,ph 9711397716)