अतिचार तक लगे दोषों का हम प्रायश्चित लेते हैं, लेकिन अनाचार में तो व्रत ही भंग हो जाते हैं तो कोई प्रायश्चित ही नहीं है : आचार्य श्री प्रज्ञ सागरजी

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उत्तम क्षमा से शुरू क्षमावाणी से समापन

सान्ध्य महालक्ष्मी डिजीटल / 21 सितंबर 2021

डॉयेरक्टर श्री राजीव जैन सीए : भ. महावीर देशना फाउंडेशन की ओर से आयोजित 18 दिवसीय पर्यूषण महाआराधना के समापन दिवस पर आज भाव आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित व क्षमा दिवस है। इस मंच को अपना आशीर्वाद तथा सान्निध्य प्रदान कर रहे चारों संतों के पावन चरणों में कोटिश: वंदन करते हुए कहा कि आज अनेक संत इस सभा में मांगलिक उद्बोधन देंगे।
हमारे देश में पर्यूषण पर्व के साथ नित्य प्रतिक्रमण, आलोचना करने का, मंगल मैत्री का भाव बढ़ाने का द्वितीय अवसर पर्यूषण पर्व में प्राप्त होता है और जो साधक हैं, जो नित्य धर्म आराधना करते हैं, वो पूरे के पूरे वर्ष भर प्रतिक्रमण करते हैं। जो सांसारिक लोग हैं, वो वर्ष में पर्यूषण के दिनों में इस क्रिया को निभाया। श्वेतांबर परम्परा में 8 दिन और दिगंबर परम्परा में 10 दिन इसे निभाया जाता है। पिछले वर्ष से इस नये प्रयोग के माध्यम से देश का एक बड़ा तबका है जो अब 18 दिन इस क्रिया को निभा रहा है। जिस दिन संवत्सरी पर्व 8वें दिन मनाया जाता है, उससे अगले दिन दसलक्षण पर्व का पहला दिन होता है उत्तम क्षमा। जो नित्य क्षमा नहीं मांगते, वे संवत्सरी वाले दिन वो प्रतिक्रमण करें, अपनी आलोचना करें, मंगल मैत्री स्थापित करें और उत्तम क्षमा वाले दिन क्षमा मांगें। और परंपरा की दृष्टि से कल जब अनंतचतुर्दशी मनाई, तो उसके तुरंत पश्चात् अगले दिन दिगंबर परंपरा में उसे क्षमा दिवस के रूप में मनाते हैं। जैन धर्म के सिद्धांत में आलोचना किसी ओर की नहीं, बल्कि स्वयं की आलोचना, अपने आप से वर्ष भर में जितनी भूलें हुई, उनका अवलोकन करना। अपनी गल्तियों को याद करके उनकी आलोचना करना, स्वयं की निंदा करना, इससे आत्मशुद्धि होती है।

डायेरक्टर श्री मनोज जैन : गुरुओं के चरणों में नमन करते हुए निम्न भजन की पंक्तियों को मंगलाचारण के रूप में प्रस्तुत किया –
जैन धर्म के हीरे-मोती, मैं बिखराऊं गली-गली
ले लो रे कोई प्रभु का प्यारा शोर मचाऊं गली-गली
जैन धर्म के हीरे-मोती, मैं बिखराऊं गली-गली
दौलत के दीवानों सुनलो, इक दिन ऐसा आएगा
धन-दौलत और रुपया खजाना पड़ा यही रह जाएगा
सुंदर काया मिट्टी होगी चर्चा होगी गली-गली
जैन धर्म के हीरे-मोती, मैं बिखराऊं गली-गली।
जिस-जिसने यह मोती लूटे, वह ही मालामाल हुए
दौलत के जो बने पुजारी, आखिर में कंगाल हुए
जैन धर्म के हीरे-मोती, मैं बिखराऊं गली-गली।
ईश्वर को जो भूल गया, वह सच्चा वो इंसान नहीं
दो दिन के ये चमन खिला है, फिर मुरझाये कली-कली
जैन धर्म के हीरे-मोती, मैं बिखराऊं गली-गली।
आज अनेक संतों का हमें सान्निध्य प्राप्त है। भाव – आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित एवं क्षमा आज का विषय है। आज आचार्य देवनंदी जी के गुरु भाई आचार्य गुर्जरनंदी जी का 48वां जन्मोत्सव है। भगवान महावीर देशना फाउंडेशन की तरफ से गुरुवर के चरणों में नमन और वंदन करते हुए कामना करते हैं कि जिस तरह वे अनेक वर्षों से जैन धर्म की पताका को देशभर में फहरा रहे हैं, भगवान उन्हें और शक्ति दें जिससे जैन धर्म का और अधिक प्रचार-प्रसार हो सके।

डायरेक्टर श्री अनिल जैन : इस चतुर्विध संघ में जिसकी कल्पना, परिकल्पना हम लोगों ने सुनी थी, लेकिन आज 18 दिन तक प्रयोग करके देखी है, उसमें उपस्थित समस्त गुरुजन एवं साध्वियों को वंदन, अभिनंदन। जब हमने यह कार्यक्रम प्रारंभ किया पिछले वर्ष और इस वर्ष तो हमें बताया गया कि हमें वो कार्य करना चाहिए, जो हम स्वयं कर सकते हैं। अगर किसी भी कार्य को सामाजिक स्वरूप देना है, तो उसका कहने से नहीं, करने से काम चलेगा। आज मैं देख रहा हूं कि ये प्रयोग अभी कार्यक्रम प्रारंभ हुआ, उससे पहले जो लोग जुड़े थे, वो आपस में चर्चा कर रहे थे कि वे 18 दिन से सवा तीन बजे का इंतजार करते थे, कल क्या करेंगे? ये हम खुद तय करेंगे कि कल क्या करेंगे। इस प्रयोगशाला में हमने बहुत कुछ सीखा कि कर्मों की निर्जरा आपस में मिलकर हो सकती है, कैसे हम धर्म को धारण कर सकते हैं। आज हमने आराधना, तप, त्याग सबकुछ कर लिया और उसके उपरांत जैन धर्म का आवश्यक अंग की हमें भाव आलोचना करनी है, प्रत्याख्यान सीखना है और साथ में क्षमा। ये प्रायश्चित और क्षमा ऐसा अद्भुत मंत्र है जो धार्मिक क्षेत्र में कोई भी प्रयोग नहीं करता। परस्परोग्रहो जीवानाम् की जो हम व्याख्या करते रहे, देखते-देखते हम बड़े हो गये, बुजुर्ग होने वाले हैं लेकिन हमने आज इस प्रयोगशाला में देखा कि चोटियों पर बैठे विभिन्न संत जहां भी बैठे हैं, उन्होंने धर्म की पताका फहराई है, अपने आप में पूरा का पूरा इंस्टीट्यूट चलाते हैं। मोक्ष मार्ग को अपनाकर बैठे हैं, जो हमारे लिये नैतिक कर्तव्य का प्रतीक है, जिसका हमें अनुसरण करना है। हम आचार्य का अनुकंपा, आशीर्वाद मिल जाए, तो हम सबकुछ हासिल कर सकते हैं। हमें जो कुछ भी करना है, आज करना है, अभी करना है।

जो सुभाष भाई, राजीव भाई, मनोज भाई हम सब लोग हीरे-मोती की बात करते रहें, लेकिन तीन मुख्य बातें हमारे सामने प्रस्तुत हुई। हम 18 दिन साथ-साथ बैठ सकते हैं, चतुर्विध संघ भी साथ बैठ सकता है। आज हमें मौका मिला है कि चाहे देश में बैठे हो, विदेश में बैठे हो, सबको पास लाने के लिये हमने यह मंच तैयार किया है। हम यह प्रयोग 365 दिन कर सकते हैं। जरूरी यह नहीं कि चार लोग या 40 लोग मिलकर बैठें। अपने-अपने धर्म क्षेत्र में, अपने-अपने संघ क्षेत्र में अगर अगले वर्ष से अपना लेंगे तो हमें पर्यूषण मंच पर मनाने की जरूरत नहीं पड़ेगी और हम कुछ और काम कर सकेंगे।

दूसरा विषय था कि हमें संत समाज इतना बड़ा प्राप्त है, उनकी सोच – समझ और प्रस्ताव सबकुछ हमारे समक्ष है, अब हम इसके बाद कुछ महीने तक हमारे पास साधु और साध्वी दक्षिण से उत्तर तक हमें करीब 45 साधुओं का, पिछले साल भी हमें 25-30 आशीर्वाद प्राप्त हुए थे, इस तरह करीब 70-80 साधुओं का आशीर्वाद हमें प्राप्त है, तो ऐसा कोई विषय नहीं है, जिसका हम समाधान नहीं निकाल सकते, समाधान हम देश के सामने लाएंगे, विज्ञान के समक्ष लेकर आएंगे क्योंकि हम विज्ञान की देन इस्तेमाल कर रहे हैं।

तीसरा विषय – यूएनओ की तर्ज पर एक सोच तैयार करनी है, ताकि बहुत सारी विश्व की समस्याये जो हमारे विज्ञान में निहित हैं, उसके हम ले जाकर अपने समाज तक नहीं, दुनिया तक हम ले जा सकें और अपना परचम फहरा सकें जो परचम फहराने की कल्पना भगवान महावीर ने कभी की।

आज हमारा अंतिम क्रिया का दिन है, मैं कहना चाहूंगा कि इतने सारे हमारे मूर्धन्य शिरोमणि आचार्य, साधु-साध्वी उपस्थित हैं, एक पीड़ा रह गई। जब मैं भ. राम की बात करता हूं, राम की जन्मभूमि का विवाद हमने जवाब देखा, सुना और राम कहां पैदा हुए, उस पर कोई विवाद नहीं है, वह जगह भी निर्धारित हो गई, निश्चित हो गई, इसी तरीके से जब हमारे सामने कृष्ण भगवान आते हैं, तो मथुरा भी एक है, आज उनका काल भी नेमिनाथ काल के बराबर है। भगवान बुद्ध की बात करें तो वे भी मुम्बनी, नेपाल में पैदा हुए। लेकिन जब मैं भगवान महावीर को देखता हूं तो वे कहां पैदा हुए। वे एक ही जगह पैदा हुए होंगे, एक ही महावीर थे। सरकार के हिसाब से वैशाली में पैदा हुए थे, कौन सा वैशाली है, कौन सा वासुकुंड हैं क्योंकि जैन समाज में आते-आते बदल जाता है। कुंडलपुर में कुछ लोग बात करते हैं कि नालंदा में पैदा होते हैं। तीसरा एक ऐसी सोच है जो कहते हैं जमुई में पैदा हुए थे, जो कुंडघाट है, जो अब कुंडग्राम हो गया। उसकी कैपिटल क्षत्रियकुंड हुआ करती थी। हमारा चिंतन इस दिशा में जाना चाहिये कि आने वाले कल में दुनिया को हम भगवान महावीर देशना के साथ क्या दे सकते हैं, न कि पीछे मुड़ कर हम फिर से झांक कर देखें कि आखिर भ. महावीर पैदा हुए थे? इन सारे कल्याणकों को करते-करते हम बिल्कुल आपस में इस विषय पर भी बंटे हुए हैं। हमें यह बंटवारा आप लोगों के माध्यम से खत्म करना है। इस समस्या का समाधान निकालें। आचार्य श्री ने आपने ही एक झंडे, एक चिह्न पर मोहर लगाई, चाहे वह भक्तामर हो, उनके जन्म का प्रसंग हो, किसी भी प्रसंग में हमारा वीर, महावीर एक ही मां की कोख से, एक ही जगह पैदा हो सकता है, वह तीन या चार जगह नहीं पैदा हो सकता। एक जगह से दूसरी जगह की दूरी नापते हैं तो सभी में 100 से 70 किमी तक की दूरी है। मेरे इस निवेदन को भी यह मंच हल करे।

वीतराग साधिका निशा जी : आंखें बंद करके आलोचना के लिये भाव – अनादिकाल से इस यात्रा को समाप्त करने के लिये, कार्बन देह पर पड़े अनादिकाल से उन कर्मों से स्वयं को मुक्त करने के लिये, ये यात्रा जो संसार की ओर गतिमान, इसे सिद्धत्व की ओर ले जाने के लिये, हे जीवात्म, आज होश में आकर देख, कैसा जीवन जी रहे, जैसा जीवन में वर्तमान में जी रहे हैं, जिसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष आदि समस्त कषाय, क्या ऐसे जीवन जीने का परिणाम हमें सिद्धत्व की ओर बढ़ती इस यात्रा में मिलेगा या ऐसा जीवन हमें पुन: पुन: देह, चार गति, चौरासी लाख जीवायोनि में देह-देह, उपस्थित प्रत्येक जीव से आज अनुरोध, अपने स्वयं के जीवन को देख, क्या कमाया?

पूरे जीवन भर क्या कमाया? स्वयं को क्या माना हुआ है, पूरा जीवन स्वयं को देह मानकर जिये या जीवात्मा मानकर जिये, पूरा जीवन व्यक्तित्व का पोषण किया या अस्तित्व का पोषण किया। जीवन भर मोहनीय कर्म को कम करने का पुरुषार्थ किया या मोहनीय कर्म बढ़ता गया। पूरा जीवन कर्ता भाव का पोषण किया, या ज्ञाता दृष्टा भाव जिसमें केवली जीते हैं, ऐसा भाव को बढ़ाने का प्रयास किया। हे आत्मन् स्वयं-स्वयं का अवलोकन करके देख। जैन कुल में देह धारण करने के पश्चात्, वीतरागी को प्रतिदिन वंदन करने के पश्चात् कितना राग और द्वेष बढ़ाया। कार्बन देह पर कितने कर्म बढ़ाये, यहां प्रत्येक आंखें बंद कर स्वयं का अवलोकन करें। जो अरिहंत सिद्ध पूज्य है, उन्हें वंदन किस भाव से किया। अभी भीतर में कितनी इच्छायें हैं, कामनायें हैं, संसार में अभी और क्या हासिल करना है? उपस्थित प्रत्येक साधक देखें, सोचें विचारें, आपका परम लक्ष्य क्या? संसार से मुक्त होने का लक्ष्य है या संसार के लक्ष्य हमने समझा आप और हम, हम सब जीव, जीवात्मा अष्ट गुणों से युक्त एक समान जीव, आपमें – हममें सबमें सिद्ध होने का सामर्थ्य, हे आत्म स्वयं देखूं, किसी देह को देखकर कैसे विचार आये? कैसे भाव आये,

कैसी प्रतिक्रिया की? कोई अपना लगा, तो कोई पराया लगा। किसी पर राग आया, किसी पर द्वेष आया। और आगे देख। कार्बन देह पर जब कर्म निकलकर आपके इस औदारिक देह पर आए, कभी सिर में दर्द बनकर, कभी पेट में, पांव में दर्द बनकर आए, कभी अपमान बनकर आए, कभी किसी ने हमारी निंदा, आदि-आदि अनेक प्रकार से कर्म अपने-अपने समय पर निकलते गये, कभी सकारात्मक, कभी नाकारात्मक निकले। निकलते कर्मों को कैसे स्वीकारा? जब कर्म निकलकर तुम्हारी इस काया पर आए, तो क्या कर्म को दबाया, क्या देवी-देवताओं का आह्वान किया, क्या प्रार्थना की, क्या शिकायत की, क्या निमित्त किया, क्या द्वेष किया। प्रत्येक उपस्थित साधक देखे, अनादिकाल के मोह, मिथ्यत्व के कार्य, इस संसार में पड़े अपने संसार को सीमित करने का और कर्म के संसार को समाप्त करने का कितना पुरुषार्थ किया है। हे जीवात्म वास्तव में ये निरीक्षण करने जैसा वर्षों से इस देह में स्वयं को जैन कहलाकर उच्च कुल में जन्मे ऐसा अहं का भाव भीतर चलता रहा, पर ऐसे उच्च कुल में देह धारण करने के पश्चात् कितना कर्मों का क्षय किया और नये कर्म के बंधन रुक जाएं।

ऐसा कितना पुरुषार्थ किया। हम इस देह में है कर्म के कारण, इस संसार में है कर्म के कारण, हम तब तक संसार में रहेंगे, जब तक सत्ता में कर्म रहेंगे। रात्रि में निद्रा में, प्रमाद में, बेहोशी में हम कर्म बांधते हैं, क्योंकि वहां होश नहीं रहता कि हम जीवात्मा है। प्रात:काल जगते ही धर्म की क्रियाएं स्वयं को देह मानकर की तो वहां भी स्वयं को देह मानने से कर्म के बंधन बंध कर फिर जहां देह की क्रियाएं प्रारंभ की, वहां कर्म के बंधन बंध गये, छह काय के जीवों की विराधना जहां हो गई, वहां कर्म के बंधन बंध गये, फिर धन कमाने में, परिवार चलाने में, संबंध निभाने में, कहीं क्रोध, कही माया, कहीं लोभ कषाय के कारण कर्म के बंधन बंधते चले गये। कभी श्रोतेन्द्रीय के विषयों को, कभी चक्षु इन्द्रिय के विषयों को महत्व दिये, इस प्रकार पांचों इन्द्रियों के विषयों को महत्व देते गये। मन के पीछे चलते गये। बुद्धि से निर्णय लेते गये, अपने पराये के भेद बनाते गये, संकल्प-विकल्प करते गये, कभी भूतकाल का चिंतन कर रुद्र ध्यान किया, कभी भविष्य काल में जुड़कर आर्त और रुद्र ध्यान ध्याया। जरा कल्पना कर, ऐसा आर्त और रुद्ध ध्याने से इस देह में रेंगते हुए विभाव अवस्था के कारण स्वयं को देह मानने से, जिसे मिथ्यत्व कहते हैं, ऐसे मिथ्यत्व के कारण और देह के मोह में पड़े, कितने कर्म बांधे?

ये बंधे कर्म कैसे क्षय करो? धर्म ध्यान की कुछ क्रियाओं से ये अनादि काल के बंधे, ये अनंत कर्म क्षय नहीं होने वाले। हे आत्मन् आज प्रथम आलोचना कीजिए, अपने विभाव की आलोचना कीजिए, मैंने स्वयं को देह माना, देह मानकर जिया, मैंने कर्ता-भोक्ता भाव का पोषण किया, मैं किसी देह के भीतर जीव तत्व का दर्शन नहीं कर पाया। मैंने मिथ्या दृष्टि को महत्व दिया, मैंने पुद्गलों का चिंतन किया, उनमें सुख खोजा, इस कारण है जीवात्मन् अपने से क्षमा मांगो, यानि मिथ जीवात्मा से क्षमा जो हमारे ही कारण, हमारे मिथ्यत्व, हमारे मोह के कारण इस देह में है, इस संसार में है, जिसमें केवल्य, सिद्धत्व होने का सामर्थ्य है, वो हमारे ही कारण संसार में पड़ा, संसार का चिंतन कर। हमने स्वयं से शत्रुता कर ली, पुद्गलों का चिंतन कर स्वयं से शत्रुता कर ली। जहां अनंत सुख था, उस सुख को गौण कर, पुद्गलों में सुख खोजकर हमने स्वयं के साथ अन्याय कर लिया। कर्मों को दबाकर प्रार्थनाओं के द्वारा हमने कार्बन देह पर से कर्मों का क्षय नहीं होने दिया। आप, हम सब जीवात्मा हैं, आप, हम जैसे अनंत जीव सिद्ध होकर चार गति से मुक्त हो गये, सिद्धशिला अशरीरी स्थिति को प्राप्त हो गये। आप, हम, हम सब सिद्ध होंगे, कब? जबस्वयं को देह नहीं जीव जानेंगे। जब स्वयं को जीव जानकर प्रात:काल से अर्धरात्रि तक, अर्धरात्रि से प्रात:काल तक देह व धर्म की क्रियाओं को कर्ता भाव से नहीं, अक्रिय स्थिति में जियें, हे आत्म सिद्ध होने के अलावा अगर कोई लक्ष्य बनाया, आज दिन के इस क्षण तक इस देह में रखकर या पूर्व के उन अनंत देह में रखकर सिद्ध होने के अलावा कोई लक्ष्य बनाया हो, तो आज से प्रतिक्रमण कर दें।

हे आत्मन्न स्वयं को देह मानकर जितना मोहनीय कर्म का पोषण किया है, आज उसके लिये क्षमा मांगो, कर्ता भोक्ता भाव के पोषण भाव के लिये क्षमा मांगो। आप जीवात्मा हैं, आपको मुक्त होना है, आपने जब-जब पुद्गलों में सुख खोजा, अपनी मिथ्यादृष्टि के लिये क्षमा मांग, सुख में पुदगल में नहीं, आपने जब जन्म को जन्म, मृत्यु को मृत्यु जाना, इस विभाव, इस अज्ञान, इस मिथ्यत्व के लिये क्षमा मांगो। जीव जीवात्मा का कोई जन्म नहीं है, जीवात्मा की मृत्यु कभी संभव नहीं है। आपका, हमारा, आप हम जैसे समस्त जीव का किसी का कभी जन्म नहीं हुआ है, गर्भ से देह धारण कर एक जीव बाहर निकला, बाहर निकलकर जितना भी मिथ्यात्व का पोषण किया, जितने भी कर्म के बंधन बांधे, उसकी अनुमोदन करना, यानि किसी का जन्मदिन मनाना, ऐसे ही आप, हम, हम सब अनंत काल से यात्रा कर रहे हैं और आपका -हमारा न कभी जन्म हुई है, न कभी मृत्यु संभव है। मृत्यु का भय मिटा दो। हे आत्मन् सम्यक्ती बनकर सिद्धशिला को पंचम गति सिद्धालय को अपना लक्ष्य बना। अनंत काल में मिले, अनंत देह छूट गये, इस देह को भी छूटने वाला जाने। वर्तमान में आप जिस काया में है, उस काया को इसी समय छूटने वाला जानें, ये काया छुटेगी, जहां आयुष्य कर्म पूरा हुआ, इस जड़ से जीव निकल जाएगा, आकार से निराकार तत्व निकल जाएगा।

जीव निकल जाएगा, यात्रा जीव की चल रही है, हे जीवत्मा आप, हम, हम सब यात्री हैं। अपने जीव की ओर देखें, क्या किया, इस जीव के लिये क्या किया। देह को जब भूख लगी, भोजन दिया, प्यास लगी पानी दिया। जब सुख सुविधा के साधनों की आवश्यकता लगी, वो साधन उपलब्ध कराया। देह को जब जो चाहिए दिया, पर जीव को क्या दिया? हे आत्मन् यहां समझ जड़ में जीव दो भिन्न तत्व साथ हैं, पर जुदा हैं। एक समय आएगा, जड़ से जीव निकल जाएगा, ये यात्री अपनी यात्रा में आगे निकल जाएगा। मात्र-मात्र जीव तत्व को महत्व दे, जीव तत्व को महत्व देने से अनंत जीव सिद्ध हो गये। पर पुदगल को महत्व देने वाले संसार में देह धारण किये हुये चार गति में चौरासी लाख योनि में पड़े हैं, 15 कर्म भूमि में पड़े हैं। हे आत्मन्, अब तक विभाव के कारण, मिथ्यात्व के कारण बहुत समय जड़ को, पुदगलों को दिया। अब होश में आकर निज जीव को तत्व को समय दो। कर्म कोई भी, कैसा भी, कभी भी निकल कर आए, कोई प्रश्न नहीं कि यह कर्म क्यों निकला? ये कर्म तुम्हारे ही द्वारा बंधा था, तुम्हारे विभाव के कारण बंधा था, तुम्हारे मोह-मिथ्यात्व के कारण बंधा था, ये कर्म निकल रहा है, इस निकलते कर्म के दृष्टा हो जाओ, तुम्हारे दृष्टा होने से ये कर्म ठहर नहीं पाए, ये कर्म क्षय होगा, इस प्रकार सत्ता में पड़ा एक नहीं, अनंत कर्म इस स्वभाव में रहकर सम्यकदृष्टि के द्वारा, निकलते कर्म को दृष्टा भाव से देखकर देह को एक प्रयोगशाला बनाकर क्षय किया जा सकता है, क्योंकि हे जीवात्मन् तुझे सिद्ध होना है।

वर्तमान के इस देह की पहचान को स्वयं की पहचान नहीं जानना, जो दिख रहा है, वह मैं नहीं हूं, इस नाम से आगे इस जाति कुल सम्प्रदाय से आगे, इस आकार से आगे तुम्हारा अस्तित्व है। यह देह है, तब भी तुम हो, यह देह छूट जाएगा, तुम तब भी रहोगे, तुम शाश्वत तत्व हो। हे आत्मन्, निज जीवात्मा को महत्व दो, जीव को महत्व दोगे, तो सत्ता में पड़े कर्मन देह पर पड़े, अनादि काल से पड़े वे कर्म निश्चित रूप से दह होंगे, जब तक देह को महत्व दोगे, ये कर्म क्षय की धारा नहीं पकड़ पाएंगे। जिसने जीव को महत्व दिया, वह सिद्धत्व की ओर आगे बढ़ जाएगा। हे जीवात्मन् आज प्रतिक्रमण कर लो, उस प्रत्येक श्वांस-प्रश्वांस का, जहां स्वयं को देह जान, मानकर, जो क्रिया की देह की या धर्म की आज उसका प्रतिक्रमण कर लो। जब देह जानकर किसी की निंदा की, उपहास किया, जब कभी कर्ता-भोक्ता बने, किसी भी अवस्था के, उसका प्रतिक्रमण किया, जब कभी पुदगलों में सुख खोजने का यत्न किया, तो उसके लिये आज क्षमा मांग लो। सुख जीवात्मा में है। और जितना समय पुदगल के इस पिंड को दिया, आज उसके लिये क्षमा मांग लो। समय अपने जीव आत्मा को देना है।

इस प्रकार आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित कर सम्यकदृष्टि आप, हम, हम सब चार गति की यात्रा पूर्ण कर लें। यही पुरुषार्थ, यही संकल्प, समस्त सम्यक्त्व आत्माओं को नमन, जो सिद्धत्व के मार्ग पर देह को एक प्रयोगशाला बनाकर आगे बढ़ रहे हैं, उन्हें नमन। इन्हें नमन, वंदन और भेद विज्ञान से जुड़े भावों में, जिसमें जड़ और चेतन दो भिन्न हैं, इन्हीं प्रतिक्रमण, आलोचना और प्रायश्चित भरे भावों, जहां मोह कर्म की आलोचना की, जहां कर्ता-भोक्ता भाव, आर्त-रौद्र ध्यान की आलोचना की, जहां पुदगल में सुख खोजे, जहां किसी देह को देह जानकर उसपर प्रतिक्रिया की इसकी आलोचना के भावों। एक सामान्य श्वास भीतर, धीरे-धीरे छोड़ दें। दोनों हाथ आंखों पर कोमल सा स्पर्श, जब भी लगे आप अपनी आंखें खोल सकते हैं।

उपाध्याय श्री रविन्द्र मुनि महाराज : आज क्षमा का दिन है, चार गति चौरासी लाख जीवन योनि के साथ हम क्षमा याचना करते हैं, लेकिन हमारे ईद-गिर्द रहने वाले लोगों के साथ भी हम प्रयोगिक रूप से क्षमा के आदर्श को अपने जीवन में प्रेक्टिकल रूप में उतारे। जहां भी कहीं राग-द्वेष और कषायों की परणीति हुई हैं, उससे पीछे हटने का प्रयास करें। प्रतिक्रमण है वापस लौटना, वापसी पवित्र ठिकाने पर पहुंचने का लक्ष्य रखें वह है हमारी आत्मा।

क्षमा एक प्रकार से स्नेह है, कोमलता है। जब तक स्नेह है, वहीं पर क्षमा का भाव है। विज्ञान कहता है दो हड्डियों के बीच चिकनाहट होती है जिसे हम कार्टिलिज कहते हैं। किसी कारण से वो झिल्ली फट जाए तो हमारे कितनी पीड़ा उस घुटने, पंजे, ज्वाएंट्स में प्रारंभ हो जाती है। तो हमारे जीवन में कोमलता, क्षमा जो है, हमें जोड़ने का काम करती है, हमारे को आगे बढ़ने की सुंदर प्रेरणा प्रदान करती है। आज दुनिया में धर्म के नाम पर हिंसा का बोलबाला बढ़ रहा है, अपने-अपने धर्म के वर्चस्व की लड़ाई चल रही है और विस्तारवादी सोच सबके मन मानस में आज अपनी स्थान बनाई हुई है।

क्या हम ऐसे धर्मों को धर्म कह सकते हैं, जहां ये सब देखने को मिलता है। जो मनुष्य को मनुष्य के प्रति कठोर बनने की प्रेरणा दे रहा है, शत्रु बना रहा है, घृणा भर रहा है और अपनी सुरक्षा के लिये मनुष्य की बलि मांग रहा है और जो धर्म आत्मा की पवित्र वेदी से हटकर जाति परंपरा एकरस हो जाता है, वह स्नेह के बदले मूर्च्छता की धारा प्रवाहित करता है, एकता की जगह विभाजन को बल देता है, ऐसे धर्मों से मनुष्य जाति को बहुत त्रास है, पीड़ा है और ऐसी जातियां पूरी दुनिया का संतुलन गड़बड़ाने का काम कर रहे हैं। आज ऐसे धर्म की जरूरत है जिसमें वीतरागता धर्म जोड़ने,प्रेम, क्षमा, मानव मात्र की बात करता है और उससे आगे बढ़कर प्राणी मात्र की बात करता है। ऐसे जैन धर्म के क्षमा के महान धर्म के अवसर पर इन18 दिवसीय कार्यक्रम में मेरे द्वारा बोलने में, किसी व्यवहार से सम्पूर्ण कार्यकारिणी के लोगों का, आयोजन समिति के सदस्यों का किसी भी प्रकार से मनमानस आहत हुआ हो, इसके लिये मैं हार्दिक व कानून रूप से क्षमा प्रेषित करता हूं। भ. महावीर देशना फाउंडेशन के चारों डायरेक्टरों ने चार स्तम्भों की तरह काम किया लेकिन आयोजक समिति ने भी बहुत अहं भूमिका निभाई है।

आचार्य श्री प्रज्ञ सागरजी : आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और क्षमा ये जैन धर्म के बहुत ही वैज्ञानिक शब्द हैं। ये शब्द भगवान महावीर समिति उपदेश से प्राप्त है। एक-एक शब्द में गूढ़ता है, शब्द में इतनी गूढ़ता है तो अर्थ में कितनी गूढ़ता होगी? आलोचना मतलब संपूर्ण रूप से अपने को देखना। अपने को पूर्ण रूप से चारों तरफ से देखो, मैं क्या हूं? मैं कैसा हूं, कौन हूं, क्या कर रहा हूं? जो गल्तियां हो, उसकी तत्काल ही जो निंदा होती है, अपनी आत्मा की साक्षी में उसे आलोचना कहते हैं। जिसमें गुरु के सामने अपने दोषों को प्रकट किया जाता है, वो आत्म दर्घा है, जो तत्काल मन में पश्चाताप का परिणाम आया, जो मुझसे गलत हुआ है, वह हमारी तत्काल की आलोचना होती है। तत्काल दोषों की गलती को मानना उसका नाम आलोचना है। इसके बाद मैं प्रतिक्रमण करता हूं, अपने स्वरूप में लौटने के लिये।

जो मैंने दोष किया वो विभाव, वो प्रकट करके किया है, अब में अपने स्वभाव में लौट जाऊं, इस भाव से हम प्रतिक्रमण करते हैं। प्रतिक्रमण में जाने-अनजाने, भूल-चूक, प्रमाद, अज्ञानता आदि अनेक कारणों से मेरे व्रत, महाव्रत, नियम और जीवन में किसी प्रकार का दोष, अतिचार लगा हो, अतिक्रम, गतिक्रम, अतिचार और अनाचार – ये चार चीजें हैं। मन में जो दोष प्रकट होता है, वह अतिक्रम है। उसके लिये हम एक कदम और आगे बढ़ते हैं, वह गतिक्रम है। उसमें दोष भी लगा देते हैं काया आदि से तो वो अतिचार है और फिर में उसमे आसक्त हो जाते हैं तो वह अनाचार है।

जैसे एक बैल बैठा हुआ है, खेत के किनारे और खेत में लगी है झांडी सुरक्षा के लिये। उसके मन में आया कि मैं इसकी फसल खाऊं, इसका नाम हुआ अतिक्रम। उसने झांड़ी में मुंह डालने की कोशिश जो की वह हुआ गतिक्रम और उसने उसमें से एक ग्रास खा भी लिया, इसका नाम हुआ अतिचार। ये अतिचार तक तो क्षम्य है और अब खेत में चला जाए और बार बार खाता रहा और उसमें आसक्ति हो जाए तो उसका नाम है अनाचार। अतिचार तक लगे दोषों का हम प्रायश्चित लेते हैं, लेकिन अनाचार में तो व्रत ही भंग हो जाते हैं तो कोई प्रायश्चित ही नहीं है। अब आप तो पाप की संज्ञा में आ चुके हैं। अतिचारों के प्रायश्चित हैं। हम आलोचना करते हैं अपने अतिचारों की। अनाचार हो जाए तो गुरु से पुन: व्रत लेना है।

प्रत्याख्यान का मतलब है संकल्प कि मैं आगामी काल में ऐसा कार्य नहीं करूंगा। इसके लिये हम प्रायश्चित लेते हैं यानि चित्त की शुद्धि, मन की शुद्धि, आत्मा की शुद्धि। इस प्रकार से हमारे जीवन में जो आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और प्रायश्चित समझ लेता है, उसका जीवन बाहर जगत भी बहुत सुंदर और आत्मा भी पावन-पुनीत हो जाती है। आत्मा को शुद्ध करने के लिये ही आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान है। अब कोई रोज गलती करें, रोज प्रत्याख्यान करें तो ऐसा करने से क्या फायदा? ऐसा नहीं सोचना, कम से कम रोज गलती कर रहे हो, तो आप उसे स्वीकार तो कर रहे हो। आप रोज-रोज स्वीकार करते हैं कि मैं गलत कार्य करता हूं, मेरे से बहुत हिंसा, झूठ चोरी आदि होती है। इस तरह आप बार-बार स्मरण करते रहेंगे तो आप एक दिन संपूर्ण रूप से त्याग कर, ध्यान में बैठकर स्वयं सिद्ध परमेष्ठी बन जाएंगे। यदि आपने अपनी आलोचना करनी बंद कर दिया तो हमारे पास कोई ओप्शन पाप और बुरे आचारण के अलावा नहीं रह जाएगा।
क्षमा – जहां मान का क्षय होता है। खम्मामि सब जीवाणां – मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूं, इसमें मेरा क्रोध का अभाव होता है। मेरे अंदर क्रोध बना रहेगा तो मैं क्षमा नहीं करूंगा।

खम्मामि सर्व जीवानाम् सव्वे जीवा खमंतु मे – सभी जीव मुझे क्षमा करें – जब मैं ऐसा भाव बोलता हूं, वाणी से बोलता हूं, तब मेरे मान का अभाव होता है। क्षमा मांगने में और क्षमा करने में दो कषायों का अभाव होता है। क्षमा करने में क्रोध का अभाव और क्षमा मांगने में मान का अभाव होता है। इन दोनों के अभाव से ही हमारे में मैत्री भाव प्रकट हो ता है, सब जीवों के प्रति सौम्य भाव प्रकट होता है। ऐसे धर्म को हमने पाया है – वैरं मज्झणं न केडवि – वैर मेरा किसी जीव से न रहे। यह वैर यह महादुखदायी है, यह वैर न वैर मिटाता है, यह वैर निरंतर प्राणी को भवसागर में भटकाता है। तो वैर की गांठ जिस गांठ में रस नहीं होता है, वह नीरस होती है, ऐसी जीवन में बांधी हुई गांठ नीरस होती है, सरस नहीं होती, जीवन को सरस नहीं बनाती है।

हम सब लोग इस क्षमा भाव को धारण करें और क्षमा धर्म राष्ट्रीय धर्म होना चाहिए, क्षमावाणी होना चाहिए। हम उनसे क्षमा मांगे, जिनका हमने नुकसान पहुंचाया है एक इन्द्रिय से पांच इन्द्रिय जीवों से और जिनको हमने जानबूझकर दुख दिया है, उनसे सबसे पहले क्षमा मांगे, क्षमा करें, क्षमा को धारण करें – ये सर्वश्रेष्ठ धर्म है। प्रथम भी क्षमा और अंतिम भी क्षमावणी से इसका समापन हो रहा है। इसका मतलब है कि हमने आज तक जितने भी धर्म किये वो सब क्षमा को प्रकट करें।

आचार्य श्री विमल सागर सूरिजी महाराज : फाउंडेशन को साधुवाद देते हुए कहना चाहता हूं जैन एकता के लिये, हमारे संगठन के लिये, आने वाले भविष्य को देखते हुए ये वक्त का तकाजा है, प्रयास होने चाहिए, सफलता की चिंता नहीं करनी है। निरंतर प्रयास होंगे, तो लोगों के विचार बदलेंगे, एक-दूसरे को सपोर्ट करना प्रारंभ करेंगे। अच्छा प्रयास है। एक जमाना था सब अलग-अलग बैठते हैं, अपनी-अपनी बात करते हैं। आज सब एक मंच पर तो हैं।

जैन समाज संक्रमण काल से गुजर रहा है, हमारे प्रयासों से ही हम सुरक्षित रह सकेंगे। चारों तरफ विकटतायें, विषमतायें हैं, राजनीतिक परिवेश भी हमारे बहुत पक्ष में नहीं है, इसलिये सबसे पहले जैन साधु-साध्वियों, भगवंतों को वैचारिक एकता दिखानी होगी, भले ही हम सम्प्रदाय से अलग-अलग हों। हम अपना कुछ न छोड़ सकें, लेकिन आरोप-प्रत्यारोप की सारी स्थितियों को छोड़ें, सद्भावना रूप से मिलते जाएं, तो हम निश्चित तौर पर हम बहुत लंबे समय तक आगे चल सकेंगे। श्रावकों को भी यही सिखायें, श्रावक भी मिलकर यही प्रयास करें। चारों तरफ फैला हुआ जैन समाज है, लेकिन उसकी संख्या बहुत कम है। हमारा दुर्भाग्य है कि हमारा प्रजनन दर भी बहुत कम है, इसीलिये बहुत बड़ी मात्रा में जैन समाज की ताकत नहीं है। किसी समय में जैन समाज राजनीति में अपना वर्चस्व रखता था। आज राजनीति में कमजोर हो गया है, मीडिया में भी जैन समाज का बहुत बोलबाला नहीं है, ऐसे में संगठित होना सबसे बड़ा काम है।

छोटे-बड़े आयोजन तो सबके हो रहे हैं, उत्सव-महोत्सव होते हैं, मंदिर बनते हैं, स्थानक बनते हैं, छोटे बड़े चातुर्मास होते हैं, लेकिन सबसे बड़ी आवश्यकता है कि इन आराधनाओं के साथ हम सबके दिलों दिमाग में ये बात घुल मिल जाए कि हम जैन हैं, हम महावीर प्रभु के अनुयायी हैं। नुकसान दिगंबर का हो या श्वेतांबर का हो, स्थानकवासी का हो या तेरापंथी का हो, नुकसान राजस्थानी का हो या गुजराती का हो, जब नुकसान होता है तो वह जिनशासन का नुकसान है। इसलिये मैं हमेशा मन में यह सोचता रहता हूं कि जहां से भी हो, डैमेज कंट्रोल करने का प्रयास करें, सबको सपोर्ट करें और इस प्रकार आगे बढ़े चाहे कोई अनूप मंडल का मामला हो, चाहे अन्य कोई भी मामले हो। अभी दक्षिण भारत में बहुत बड़ी मात्रा में इस्लाम, ईसायित फैल रही है। थोड़ी देर में हम पाएंगे कि हिंदू बहुत कमजोर हो गया है। ऐसी स्थिति में जैन तो कही दिखाई नहीं दे रहा। जगह-जगह अपनी मूर्तियां हैं, लोग पचाकर के बैठे हैं, हमारे मंदिर खण्डहर बन चुके हैं, हमारे लोग बदल रहे हैं, हमारी बेटियां बाहर जा रही हैं, हमारे जैन समाज का काफी नुकसान हो रहा है। हमें इकट्ठा होना होगा, एक-दूसरे का ध्यान देना होगा। जहां बड़ी मात्रा में जैन समाज है वहां प्रभाव दिखाई देता है, लेकिन जहां जैन समाज की ताकत कम है चाहे कर्नाटक हो, तमिलनाडु हो, तेलांगना हो, महाराष्ट्र के अन्य इलाके हों, ऐसा स्पष्ट दिखाई देता है कि जहां कम हैं, वहां बहुत मुसीबते हंैं। इसीलिये हम संगठित होकर ही हम सामना कर सकते हैं। सभी साधु भगवंतों को कहना चाहूंगा कि इस प्रकार जब हम सोशल मीडिया पर एक-दूसरे के विचार प्रस्तुत कर रहे हैं, हम आज ये इन चीजों को चलाते जाएं, जब प्रेक्टिकली मिलना हो जाना हो, कोशिश करें कि अपने -अपने समाज को ये सिखाते रहें। हम मान्यताएं मानें लेकिन साथ में मिलजुल कर रहें।

आने वाली पीढ़ी जो है, उसे बचाना होना। उन्हें क्या-क्या चीजें तकलीफदेह लग रही हैं, उनके समाधान ढूंढने होंगे। जैन बच्चा जब पढ़ लिखकर विद्वान होकर आता है, तो वह आधा ईसाई बन गया होता है। ऐसी उसकी स्थिति बन गई है, नाना प्रकार से उसकी सोच बदल गई है, हमारी बच्चियों की सोच बदल गई है। हम ये मानें कि मंदिरों में बूढ़े लोग आते रहेंगे, करते रहेंगे, सफलता मिलती रहेगी, इतने में नहीं होगी। आने वाला जमानी उनका होगा, वो हमारे हाथ में नहीं रहे तो हमको बहुत नुकसान भुगतना होगा।

आर्यिका श्री स्वस्ति भूषण माताजी : आज के समय में एक समस्या है, अभी पढ़ा – लिखा युवक आया, बोला – जैन धर्म है तो बहुत अच्छा, लेकिन यदि में किसी एसपी के यहां पैदा हुआ होता, तो नौकरी तो मिल जाता। मैंने कहा – ऐसा मत बोला, जैन धर्म नौकरी नहीं कराता है, वह तो मालिक बनाता है, वह नौकरी देने की बात करता है। आप ऐसी विशाल सोच रखो, जैन धर्म बहुत विशाल है, गहरा है, बहुत ऊंचाई है, उसे जानने – समझने वाला चाहिए।
मुझे घर छोड़े हुए करीब 30 वर्ष हो चुके। जितना – जितना पढ़ती जा रही हूं, मुझे लगता है बहुत कम पढ़ा है, अभी और ज्यादा गहराई है। जैन धर्म में इतनी गहराई होते हुए आज हम दुखी रहे, हम अपने घर में लड़ाई-झगड़े रखें, कारण क्या है? इसका कारण धर्म नहीं है, क्षमा में ही धर्म है। समाज में क्षमा नहीं है। क्षमा उससे मांगनी चाहिए जिससे हमारी लड़ाई हुई है। मिठाई का डिब्बा लेजाकर उन्हें जाकर देना चाहिए जिससे हमारी लड़ाई हुई है, कम से कम मीठे संबंध बनेंगे।
आज जरूरी है एक होकर चलना, इतने देश अगर चल रहे हैं तो उनको मिलाकर केंद्रीयकरण है। ऐसे ही दो परंपराओं को मिलाकर आगे बढ़ेंगे तो हमारे युवाओं को बहुत सहयोग मिलेगा। आने वाली पीढ़ी को सुरक्षा की बहुत जरूरत है, यदि वे इसी तरह से रहे तो बहुत पीछे रह जाएंगे।

महावीर फाउंडेशन देशना समिति ने इस 18 दिन के प्रोग्राम में अनेक संतों का समादर किया, अनेक संतों को निवदेन कर उनके वचन सुनें और एक होने का उनके विचार सुने। आपमें जोश है, कि हमें एक होना है। जैसा हमारा ओरा होगा, उस ओरे के हिसाब से सारे खिंचे आएंगे। हमारा तो काम करने का है। आज आरएसएस को देखिये। सफलता मिलेगी या नहीं, यह हमारा विषय नहीं है। हमारा विषय है झंडा उठाये, भीड़ अपने आप जुड़ती चली जाएगी।

महासाध्वी श्री मधुस्मिता जी : ये जो सत्र चल रहा है, वह आगे बढ़ेगा परंतु मुझे लगता है कि इसे 12 माह तक समय दिया जाए तो बहुत देर हो जाती है। इस मंच को पुन: 4 या 6 महीने बाद 2-3 दिन के लिये लेना चाहिए। चार-चार महीने से दो बार या 6-6 महीने में दो बार चिंतन किया जाए। दूसरी बात जब तक हम अगले सत्र में न मिले तब तक स्वाध्याय का अभ्यास करना सभी श्रावकों के लिये जरूरी है, उसमें भी चारों सम्प्रदाय के ग्रंथों का अध्ययन करना होगा। क्या कहना है, क्या जरूरी है, कहां परिवर्तन जरूरी है, इसका श्रावक को अध्ययन करना पड़ेगा, जैसे समयसार, नियमसार आदि।

अब जो जमाना आया है, इसमें ज्यादा से ज्यादा अपने ग्रंथों को, साहित्य को, मौलिक ग्रंथों को डिजीटल बनायें, अपने नवयुवकों तक पहुंचायें। जब तक डिजीटाइलेशन नहीं होगा, सबतक नहीं पहुंचेगा। समाज के साथ चल रहे हैं तो उनकी मांग रहेगी की हम ये आलोचन, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित तो करते ही है, परंतु कुछ कारणों से समय अभाव के कारण, कुछ अपने विचारों के कारण, लेखनों के कारण जो थोड़े से दूर फेंके गयें, उनको भी अपने साथ लिया जाए। बहिष्कार नहीं परिष्कार करेंगे। क्षमा पर सुंदर पंक्तियों से महासाध्वी जी ने अपना वक्तव्य समाप्त किया।

आचार्य श्री देवनंदी जी महाराज : आज 18 वर्षीय दिवसीय पर्यूषण पर्व का समापन दिवस और भाव आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित के साथ उत्तम क्षमापना का दिन है। ये 18 दिवस का एक निचोड़ है। हमने दही मथ करके नहीं बनाया, लेकिन मक्खन कितना निकाला, ये आज मक्खन निकालने का दिन है। जैसे कोई मंदिर बनाते हैं, मंदिर में सुंदर मूर्ति वेदी पर विराजमान करते हैं, मंदिर सुंदर बने, वेदी भी सुंदर हो, मूर्ति भी सुंदर हो। यदि मंदिर पर शिखर, शिखर पर कलश और कलश पर ध्वजा न हो, वह मंदिर अधूरा होता है। उसी तरह से हमने 18 दिवसीय पर्यूषण पर्व मनाया। अब ये पर्यूषण पर्व एक प्रकार से हमारी समाज का एक मंच नहीं, मंदिर तैयार हो गया है। इस मंदिर में हम एकता के साथ प्रवेश कर रहे हैं, किंतु इस एकता में आवश्यकता है भाव आलोचना की, प्रतिक्रमण की, प्रायश्चित और क्षमा की। हम क्यों किसी दूसरे की आलोचना करें, क्यों न खुद अपनी आलोचना कर लें।

और जब हमने इस मंच को ही अपना मंदिर मान लिया है तो फिर ये मंच अब सभी का आलोचनाओं को सुनकर के क्यों न सभी के दोषों को समाप्त करें। जैसे परमात्मा के समक्ष हम अपनी आलोचना करते हैं, आत्मसाक्षी में अपनी निंदा करते हैं तो हमारे दोष माफ हो सकते हैं। कोर्ट में भी जब हम जाते हैं, वहां पर हम समर्पण कर देते हैं, वहां किये समर्पण से न्यायाधीश भी हमारे लिये क्षमा कर देते हैं। ये मंच, मंच नहीं, भगवान महावीर देशना फाउंडेशन मंदिर का ही रूप है, हम सब इस मंदिर में इकट्ठे हो रहे हैं, तो हम अपनी-अपनी आलोचनाएं करें, अपनी आत्म निंदा करें और अपने दोषों को हम जैसे भगवान के समक्ष कहते हैं, वैसे ही अपनी आलोचना कर लें। मंच फाउंडेशन ये हर महीने कुछ विचार ले कर आएगा, किंतु नये विचारों के साथ यदि जैन एकता को हम समाज में लाना चाहते हैं तो हमारे समाज की हर महीने जो समस्याएं हैं, सामाजिक, साधु-संतों की समस्याओं को, चाहें वे विहार, गोचरी, चाहे वे वैयावृत्ति को लेकर समस्याएं हों, विहार काल में साधुओं को आवासीय समस्याएं हैं, साधुओं के साथ दुर्घटनायें वाली समस्यायें हैं, हम क्यों ने इन पर विचार करें और फाउंडेशन देशभर में चातुर्मास के बाद विचरण करने वाले साधुओं के लिये एक गांव से दूसरे गांव तक जाने के लिये हम एक ऐसा बीएफटी के अंतर्गत एक ऐसा संघ का निर्माण करें जो गांव – गांव में जो साधुओं की समस्याओं का निवारण करें, विहार करायें, दुर्घटनाओं को रोक सकें। हमें अपनी सामाजिक समस्याओं को सबसे पहले निबटाना है। हम यह कहकर अलग न हो जाए कि यह हमारे घर की समस्या नहीं है, ये उनके परिवार की समस्या है।

पर व्यक्ति-व्यक्ति मिलने से परिवार, परिवार – परिवार मिलने से समाज बनती है और जब सारी समाज एकसाथ होती है, तभी हमारी समाज की सुरक्षा है, तभी हमारे समाज का समरक्षण और संवर्धन है।

संयोजक श्री हंसमुख जैन इंदौर : 18 दिवसीय पर्यूषण पर्व की प्रयोगशाला का फाउंडेशन का सशक्त है, इससे अच्छी इमारत जो बनी है, उस इमारत को बुलंदी पर ले जाने के लिये आज हमें इतने सारे आचार्य भगवंतों ने आशीर्वाद दिया, उनके विचार निश्चित रूप से हमें आगे मिलता रहेगा। आज के क्षमापना दिवस पर हमने बहुत सुंदर प्रतिक्रमण किया, और आभास दिला दिया कि यदि पंचम गति प्राप्त करनी हो तो किस तरह इन विकारों को बाहर करना है। मैं चारों स्थाई सान्निध्य प्रदानकर्ता, सभी गुरु भगवंतों को नमन करते हुए और चारों डायरेक्टरों तथा सभी आयोजकों से क्षमा याचना करता हूं एवं हम अगले आयोजन के लिये आगे बढ़ेंगे।

डायरेक्टर श्री सुभाष जैन ओसवाल : क्षमा के उद्घोषण भगवान महावीर को कोटि-कोटि नमन करते हुए, साधना के शिखर पुरुष, जैन एकता के सूत्रधार आचार्य देवनंदी जी महाराज, परम श्रद्धेय रविन्द्र मुनि जी महाराज, परम विदुषी साध्वी मधुस्मिता जी महाराज, स्वस्ति भूषण माताजी और सम्मानित मंच, महावीर देशना फाउंडेशन का यह कार्यक्रम आत्मशुद्धि के साथ विश्व शांति का कार्यक्रम भी है। जिस रूप से आठ नहीं, दस नहीं, अट्ठारह, हमने मनाया और संतों की सामाजिक व्यवस्थाओं को लेकर जो चर्चा हुई और आगे की व्यवस्थाओं के लिये हमें क्या करना चाहिए, इसकी रूपरेखा बनी तो उसका श्रेय संतों को, महात्माओं को, साध्वियों को जाता है। प्रज्ञ सागरजी महाराज, श्रद्धेय युवाचार्य महेन्द्र ऋषि जी महाराज, जिनकी ये प्रेरणा रही इस संस्था को निर्माण करने में, रविन्द्र मुनि जी महाराज और उसका यह प्रतिफल है कि एक अल्पसमय में इस संस्था ने एक बहुत सुंदर रूप धारण कर लिया। 18 दिन तक जिस रूप से आचार्य देवनंदी जी महाराज – कितनी शांत, मुस्कराता चेहरा अभूतपूर्व रही। कई टेलीफोन आएं कि आचार्य श्री कहां विराजमान हैं, इन्हें दिल्ली क्यों नहीं बुलाते। इसी भावना से आपको दिल्ली का निवेदन है।

(Day 18 समाप्त)