सरकारी कर्मचारी को एक- सवा लाख की सैलरी , फिर भी वह हाय रिश्वत, हाय रिश्वत… करता है, बड़ा सोचनीय विषय

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त्याग से ही सम्मान है

सान्ध्य महालक्ष्मी डिजीटल / 18 सितंबर 2021

अब तक किये जो पाप, वो धोने का वक्त आया
भक्ति, तप और साधना करने का वक्त आया
आया पर्यूषण आया, जैनों का त्यौहार आया
हो… जैनों का त्यौहार आया।
जैन धर्म के सार को समझने का वक्त आया
क्षमा वीरस्य भूषणम् कहने का वक्त आया
आया पर्यूषण आया, जैनों का त्यौहार आया
हो… जैनों का त्यौहार आया।
बैर हटाओ, सबको खमाओ
कर दो क्षमा, कर्म खपाओ
गुरुवाणी सुनकर दोष मिटाओ
कल्पसूत्र सुनकर आनंद पाओ
एकासन करो, करो व्यासना का,
तेला करो, तप साधना
सब पर्वों का है राजा आया
जैनों का त्यौहार आया।
अब तक किये जो पाप वो धोने का वक्त आया
भक्ति तप और साधना करने का वक्त आया
आया पर्यूषण आया, जैनों का त्यौहार आया
हो… जैनों का त्यौहार आया।

संयोजक श्री हंसमुख जैन गांधी, इंदौर : जैन एकता के जयकारे से उत्तम त्याग धर्म पर विवेचना दिवस का शुभारंभ किया। 18 दिवसीय कार्यक्रम में लगातार सान्निध्य प्रदान कर रहें चारों संतों के चरणों में नमन करते हुए फाउंडेशन के संस्थापक डायेरक्टर श्री सुभाष जैन ओसवाल को प्रथम वक्ता के रूप में आमंत्रित किया।

संस्थापक श्री सुभाष जैन ओसवाल : भगवान महावीर देशना फाउंडेशन की स्थापना केवल 2 वर्ष पूर्व की। कोरोना महामारी काल में पिछले वर्ष जिस वातावरण से हम गुजर रहे थे कि जिनशासन की प्रभावना कैसे हो, इस सोच के साथ हमारे साथियों – अनिलजी, राजीवजी, मनोज जी ने कहा कि जूम के माध्यम से देश के संतों को जोड़ा जाए, प्रबुद्ध श्रावकों, साध्वियों को जोड़ा जाए, जो महावीर शासन की सारे देश में ये किस रूप में प्रभावना कर रहे हैं, उसी दृष्टि को ध्यान में रखते हुए पिछले वर्ष हमने आरंभ किया। आज हमारे इस कार्यक्रम में 15 दिनों से सान्निध्य दे रहे हैं – आचार्य श्री देवनंदी जी महाराज, उपा. रविन्द्र मुनि जी म., परम विदुषी साध्वी मधु स्मिता जी म. , परम पू. आर्यिका श्री स्वस्ति भूषण माताजी और आज के मंच पर जिस रूप से लोग आ रहे हैं, लोगों को बुलाया जा रहा है, वह भी अभूतपूर्व है। पिछले वर्ष भी लगभग 40 जैन आचार्यों, वरिष्ठ संतों ने इसे सान्निध्य दिया – आ. श्री शिवमुनि जी म. , विमल सागरजी, नम्र मुनि जी – सभी वरिष्ठ संतों ने अपनी वाणी को जन-जन तक पहुंचाया। इस वर्ष भी हमारे चार संत तो शुरू से जुड़कर हमें पूरे समय तक सान्निध्य देते हैं और हमारा उत्साहवर्धन करते हैं।

आसक्ति का त्याग और अच्छे भावों को ग्रहण कीजिए

परम पूज्य महासाध्वी श्री मधुस्मिता जी महाराज : नवकार महामंत्र के उच्चारण के साथ पूज्य महाराजश्री ने कार्यक्रम का शुभारंभ किया। मूर्छा यानि आसक्ति जो हो, उसका त्याग करना चाहिए। आसक्ति भाव का हर क्षेत्र में होना जरूरी है, अंतर और बाह्य में। अंतर मन के अंदर जिस बात की पकड़ है, चाहे वह कषाय हो, वस्तु हो या पदार्थ हो, उसका त्याग करना चाहिए और अच्छी चीजों को ग्रहण करना चाहिए।
गृहस्थ भोगों में निर्लिप्त न होते हुए कर्तव्य भावना से कार्य करें

उपाध्याय श्री रविन्द्र मुनि जी म. : दिगंबर आचार्यों में हुए हैं आचार्य अकलंक, उन्होंने कहा सचेतन और अचेतन यानि जीव और अजीव – ये दोनों प्रकार की चीजों को छोड़ना ही त्याग है। सचेतन में जितने हमारे मोह-ममता के संबंध हैं, उन्हें छोड़ना। क्या हर व्यक्ति छोड़ सकता है? साधु छोड़ देते हैं, इसलिये वे अलग मार्ग पर चल देते हैं। आप गृहस्थ में रहकर नहीं छोड़ सकते, लेकिन गृहस्थ में रहते हुए आप उनसे निर्लिप्त रह सकते हैं, मोह नहीं पालें, निरासक्त भाव से, कर्तव्य भावना से गृहस्थ के कार्य करें। ये तो सचेतन की बात है। दास-दासी, पशु-पक्षी इत्यादि इन सबके त्याग भी सचेतन में समाई है।

अचेतन में जितने भी द्रव्य पदार्थ – कपड़ा, मकान, कोठी, घोड़ा, बंगला, गाड़ी – उनका त्याग जितना-जितना कर सकते हैं, वो करने का भाव रखें। हालांकि जैनों के सामने प्रश्नचिह्न हमेशा रहता है, और वह रहेगा, कि सर्वाधिक सम्पन्न दिखते हैं, सर्वाधिक पैसे के भागम-भाग में लगे रहते हैं, फिर त्याग धर्म को कैसे अपनाएंगे? अपनी उम्र के रहते-रहते कुछ त्याग को, कुछ अणुव्रतों को अंगीकार करें और जीवन में समय सीमा के बाद हमें त्याग करने ही चाहिए। आचार्य कुंद कुंद ने त्याग के बारे में कहा कि अपने से भिन्न सभी पर पदार्थ हैं और परपदार्थों का हमें त्याग करना चाहिए। अपने से भिन्न मतलब है आत्मा। आत्मा के अतिरिक्त जो भी है, वह परपदार्थ है। यह शरीर भी परपदार्थ है। परपदार्थों को त्यागने की बात कुंद कुंद आचार्य ने कही है। तो त्याग कहें, अपरिग्रह कहें लगभग-लगभग बात एकसी है। जैसे – जैसे हम त्याग की ओर बढ़ते हैं, वैसे-वैसे हम अपरिग्रही होना प्रारंभ कर देते हैं और त्याग में तथा दान में अंतर है। त्याग में व्यक्ति स्वयं त्याग सकता है और वह त्यागने में स्वतंत्र है। दान में देने वाला, लेने वाला और बीच में पदार्थ है। दान को हम त्याग की श्रेणी में नहीं गिन सकते। त्याग एक स्वतंत्र चीज है। ध्यान रहे, जहां-जहां त्याग है वहां उसका प्रभाव है। जहां भोग विलास है, तो उसका प्रभाव नहीं है। आज भी घोर भौतिकवादी युग में जैन मुनियों का स्वयं अपने समाज और अन्य समाजों में जो मान-सम्मान और विश्वास है, वह है उनके त्याग की वजह से। अगर साधुओं में त्याग गड़बड़ा जाएगा तो बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न हमारे समाने, समाज के सामने लग जाएगा। तो साधु समाज त्याग को बनाकर रखें और गृहस्थ भी थोड़ा-थोड़ा त्याग करने की प्रवृत्ति अपने जीवन के अंदर अंगीकार करके चलें। भारत की आजादी के आंदोलन में गांधी जी यदि त्याग के स्वरूप में देश के सामने नहीं आते तो ये बहुत बड़ा चिंतन का विषय है कि लाखों – लाखों लोग उनकी एक आवाज पर घरों से निकल जाते थे, शायद वो न निकलते। गांधी जी ने त्याग की प्रवृत्ति के द्वारा अंग्रेजों की नाम में दम कर दिया, और एक आंदोलन को किस प्रकार से खड़ा कर दिया। त्याग चाहे साधु का हो, चाहे गृहस्थ का हो, वह बहुत अच्छा है।

सरकार किसी सरकारी कर्मचारी को एक लाख सवा लाख की सैलरी देती है, फिर भी वह हाय रिश्वत, हाय रिश्वत… करता है, वो बड़ा सोचनीय विषय है कि जीवन में कोई त्याग नहीं है, क्या, सारी दुनिया का पैसा तुम्हें ही चाहिए क्या? कोई दूसरी एमएनसी कंपनी, प्राइवेट नौकरी कर रहा है, वहां चोरी चकारी, बेईमानी, भ्रष्टाचर क्यों? जीवन में समय-सीमा में हमारे पास त्याग होना चाहिए। त्याग होगा, तो जीवन अच्छे से चलेगा।
जैन धर्म के प्रचार-प्रसार की परम आवश्यकता है

जैन एकता की आवश्यकता है, वहीं जैन धर्म के प्रचार-प्रसार की भी परम आवश्यकता है। वो प्रचार-प्रसार समन्वित, सुनियोजित, सुचिंतित हो और अनाप-शनाप जो हमारा बजट इधर-उधर फालतू खर्च होता है, उस पर रोक लगाकर हम जैन धर्म के प्रचार-प्रसार पर ध्यान दें। खासतौर पर चुनिंदा साहित्य जैसे भगवान महावीर का अच्छा सा जीवन चारित्र, ऐसी किताब जिसमें जैन सिद्धान्तों को सरलता से प्रस्तुत दिया गया हो, ऐसे साहित्य को देश की विभिन्न भाषाओं में हम अनुवाद कराकर देश के सभी कॉलेज-यूनिवर्सिटियों में, लाइब्रेरियों में पहुंचाएं, लेखक-पत्रकार, आईएएस, नेताओं के पास फ्री में साहित्य क्रियश्चनों की तरह पहुंचाने का योजनाबद्ध तरीके से काम करें। डॉ. नेमिचंद जैन – तीर्थंकर पत्रिका के संपादक, उन्होेंने बहुत ही साइंटिफिक तरीके से बुकलेट तैयार की थी और अनेक भाषाओं में अनुवाद कराकर, पूरे देश में वितरण कराया था और उन चीजों का प्रभाव देखने में आता था। आज हम अहिंसा और शाकाहार के प्रचार के क्षेत्र में आज से 30-40 साल पहले जो हमारी इमेज थी, आज वह प्रभावित हुई है और उस ओर हमारे रुझान भी कम हुआ है। हम दो-दो ढाई मिनट के वीडियो, बड़े साइंटिफिक, जिनका फिल्मांकन साफ-सुथरा अच्छा हो, संवाद जिनके अच्छे हो, ऐसे अहिंसा शाकाहार पर हम छोटे-छोटे वीडियो के द्वारा पूरे सोशल प्लेटफार्म के द्वारा पूरी दुनिया में मैसेज देने में सफल हो सकते हैं।
माह – दो माह में जूम मीटिंग पर समस्याओं का मंथन-चिंतन जारी रखें

संपूर्ण जैन धर्म की चारों संप्रदाय के जो कॉमन समस्यायें हैं, उनके मंथन चिंतन के लिये भ. महावीर देशना फाउंडेशन को कहूंगा कि पूरे वर्ष भर, हर महीने, दो महीने में ऐसी जूम मीटिंगों का आयोजन करें, जिसमें अनेक जैन आचार्य, उपाध्याय आदि, गणमान्य विद्वान संत और गृहस्थ श्रावक आएं और सामूहिक चिंतन करें और उसका सार निकालने का काम करें। एक चीज का ध्यान रखना है कि जब तक जैन समाज के बड़े-बड़े लोग झगड़ेंगे, संस्थाओं के लिए, धर्मस्थानों के लिए तो ध्यान रखना कि नवयुवक जो होता है, उसका खून गर्म होता है, वह तुरंत प्रतिक्रिया वादी होता है, वह अपने धर्म से, समाज से मायूस होकर दूर हट जाता है। तो युवाओं पर बड़े लोगों और संतों के विवाद और संघर्षों की छाया न पड़े, इसका ध्यान और विवेक सबको रखने की आवश्यकता है। हम जैन धर्म के प्रचार के लिये आंतरिक एक प्रोग्राम बनायें, जितने भी नेशनल न्यूज पेपर हैं, राष्ट्रीय हिंंदी-अंग्रेजी आदि, उनमें हमारे धर्म समाज के आर्टिकल – दया, अहिंसा, पार्श्वनाथ जयंती, महावीर जयंती, भ. महावीर और जातिवाद, नारीवाद, भ. महावीर ने आगमों में पर्यावरण की कहां चर्चा की – ऐसे आर्टिकिल्स आना चाहिए। हम जो अपने मंदिर-स्थानक में जो बात कहते हैं, वो 100-200 लोग सुनते हैं, लेकिन अखबारों में प्रसार करें जो लाखों लोग पढ़ते हैं। हम अखबार में लंबे-लंबे विज्ञापन देते हैं, लेकिन न्यूज भी आपकी छपनी चाहिए।

डॉ. सुरेंद्र जैन : भ. महावीर देशना फाउंडेशन की व्याख्यानमाला में सभी का अभिनंदन करते हुए कहा कि इन 18 दिनों में मानव जीवन किस प्रकार की समस्याओं से जूझ रहा है, उसका समाधान क्या है? मानव जीवन को किस प्रकार से अधिक से अधिक सुखी बनाया जा सकें, वह मार्ग क्या है, उस मार्ग पर कैसे चला जा सकें, इन सबका मंथन, चिंतन आप सब लोगों ने किया। बहुत लोगों ने अपना मार्गदर्शन भी दिया। वास्तव में मानव के सामने कौन-कौन सी समस्यायें आती हैं, इस पर चिंतन हमेशा से चलता रहा। जीवन को कैसे सुखी बनाया जाए, जीवन के कांटों को कैसे दूर किया जा सके, इस पर हमेशा से हमारे संत, हमारे महापुरुष, हमारे भगवंत, हमारे तीर्थंकर इस पर चिंतन करते रहे हैं, और हमें मार्ग दिखाते रहें।

आज भी रविन्द्र मुनि जी महाराज ने किस सरल ढंग से उन्होंने जीवन की कुछ बातों को सामने रखा, निश्चित तौर पर ये हमारे संतों की विशेषता है कि वो जीवन की महत्वपूर्ण, जो बहुत कठिन गुत्थियां हैं, उनको भी सरल तरीके से सुलझाया जा सके, उसका मार्ग आप सब लोग हमेशा से प्रशस्त करते हैं। केवल जैन समाज नहीं, केवल भारत की धरती नहीं, संपूर्ण दुनिया के अंदर एक बड़ा वर्ग है, इस प्रकार के चिंतन पर चलने वाला कि दुनिया के सामने कौन सी समस्याएं हैं, उनका समाधान कैसे निकाला जा सकें? मैं एक थिंक टैंक से जुड़ा हुआ है। मैं आज ही प्रात:काल अमेरिका में चलने वाले जो थिंक टैंक हैं, उन थिंक टैंक के आवश्यक विषयों पर पढ़ रहा था, वे क्या चिंतन कर रहे हैं? यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि अकेले अमरीका के अंदर एक हजार नौ सो चौरासी थिंक टैंक हैं, जिनका काम है समस्याओं पर विचार करना, सोचना, उनका समाधान ढूंढना और उनके समाधान के मार्ग पर चलने के लिये सरकारों को प्रेरित करना और कुछ थिंक टैंक तो इतने मजबूत हैं कि वे विवश भी कर सकते हैं। मैंने जब 1984 की सूची देखनी शुरू की तो उसमें टॉप फिफ्टी कौन से हैं? सबसे बड़ा है ब्रूकिंग इंस्टीट्यूशन, हैरिटेज फाउंडेशन, वेफर्स सेंटर, अर्थ इंस्टीट्यूट, ह्यूमन राइट वॉच। इनमें से कईयों के बजट तो इतने बढ़े हैं कि वे हमारी कई राज्य सरकारों के भी नहीं है। वे जिन विषयों पर चिंतन करते हैं, ये वही हैं, जिन विषयों पर हमारे पूज्य संत बहुत विशद वर्णन किया करते हैं। इनमें बहुत का वर्णन हमारे आगमों में है, हमारे भगवंत करते रहे हैं। सबसे बड़ा संकट दो दुनिया में बताया गया उनके कुछ केंद्रबिंदुओं का जिक्र मैं कर रहा हूं जिनका समाधान जैन दर्शन के माध्यम से कैसे हो सकता है? भारतीय दर्शन के माध्यम से कैसे हो सकता है?

1. पर्यावरण : इसे दो भागों में बांटा एक प्रदूषण जिसमें ध्वनि, वायु, जल प्रदूषण। वे वेचारिक प्रदूषण तक नहीं पहुंचे जो हमारा आगम चिंतन करता है।
दूसरा विषय है वातावरण का परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिग बढ़ रही है, ग्लेशियर्स पिघल रही हैं, गर्मियां बढ़ रही हैं, समुद्र का स्तर बढ़ रहा है, शहर-धरती सिमटती जा रही है।

तीसरा विषय : हिंसक प्रवृत्ति का विस्तार – मानवों की प्रवृत्ति हिंसक बनती जा रही है। विद्यालयों के अंदर हथियार लेकर जा रहे हैं।
चौथा विषय : आम जन की सुरक्षा। उसका विकास कैसे हो सकता है? विकास का मतलब आर्थिक विकास से लेते हैं, लेकिन भारतीय दर्शन आर्थिक विकास तक सीमित नहीं है।

पांचवां विषय : शिक्षा का अभाव – बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, कुपोषण, नशीले पदार्थ युवा पीढ़ी में बढ़ता हुआ, आतंकवाद बहुत बड़ा मुद्दा है। इन पर बड़ी-बड़ी गोष्ठियां हुई है। आपको जानकर गर्व होगा कि अधिकांश कांफ्रेंस सब एक मार्ग पर पहुंचती हैं कि इन समस्याओं का अगर कहीं से मिल सकता है तो वह भारत की धरती है, कोई समाधान कर सकता है तो भारत का दर्शन कर सकता है। पिछले दिनों पर्यावरण पर हेग में एक सम्मेलन हुआ, जिसमें बेल्जियम के विदेश मंत्री महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि अगर हमें अपने पर्यावरण को बचाना है, धरती को प्रदूषण से मुक्त करना है, मानव जीवन सुखी बनाना है तो हमें उसका मार्ग भारतीय दर्शन में तलाशना पड़ेगा, और कहीं संभव नहीं। पिछले दिनों यूएस टुडे पत्रिका में, महिला पत्रकार लिखती है कि अगर हमें शांतिपूर्ण, सहअस्तित्व की ओर जाना है, भावी पीढ़ी की सुखी भविष्य देना है तो वह हमें सीखना पड़ेगा भारतीय दर्शन से और उसके मार्ग पर चलकर ही शांतिपूर्ण अस्तित्व की गांरटी दे सकते हैं।

जब हम पर्यावरण पर कोई सम्मेलन विश्व के स्तर पर होते हैं, आरोप लगाने वाली उंगली उठती है। जो विकसित देश हैं वो कहते हैं चीन है, भारत है इस तरह के देश हैं, जो विकास की दिशा की ओर बढ़ रहे हैं, उनके यहां अत्यधिक यातायात का प्रयोग होता है, इसलिये वो रोक लगायें, प्रदूषण उनके साथ होता है। भारत जैसे, चीन जैसे देश कहते हैं कि जिन लोगों ने विकास किया है और आज भी निरंतर उस दिशा में बढ़ रहे हैं, जिम्मेदारी उनकी ज्यादा बनती है, कि वो अब अपने विकास पर उस प्रकार की गतिविधियों पर अंकुश लगायें। दुनिया का समाधान विवादों से, आरोप लगाने वाली उंगली से नहीं हो सकता। इसका समाधान विमर्श के माध्यम से और समाधान है त्याग पूर्ण उपभोग। आखिर प्रदूषण क्यों ज्यादा है? क्योंकि हमने अपने उपभोग को असीम बना लिया है। हमें असीम उपभोग और त्याग में से एक पथ चुनना होगा। असीम उपभोग औद्यागिकरण, अधिक उत्पादन, वस्तुओं की अधिकतम उपयोग करना। सृष्टि हमारी मां है, मां सब इच्छाओं की पूर्ति कर सकती है लेकिन वासना की पूर्ति नहीं कर सकती। हम अपनी इच्छाओं को सीमित रखें क्या? मेरा काम अगर रोटी दो रोटी से चल सकता है और अपनी थाली में 4 रोटी रखकर दो खाऊं और दो फेंकू।

इसकी जगह में 2 खाकर 2 गरीब को नहीं खिला सकता? मेरी आवश्यकता है 10 जोड़ी कपड़े की हो सकती है, क्यों मेरे पास दस अलमारियां भरी हैं कपड़ों से। ऐसे कपड़े भी है, जिनका नंबर कई वर्षों में एक बार भी नहीं आता। इसकी जगह क्या ये अच्छा नहीं है कि मैं 10 जोड़ी कपड़े रखकर बाकि गरीबों में बांट दूं। तो त्याग पूर्ण उपभोग यह इसका मार्ग है प्रकृति को मां के समान समझें, हम उसका शोषण नहीं, उपयोग करें। जितनी जरूरत है, उतना ही लेना। उससे ज्यादा क्यों लेना? ज्यादा खनन करेंगे तो दिक्कत आएगी। आखिर पेट्रोलियम के पदार्थ थोड़े ही दिन के तो रह जाएंगे, खत्म हो जाएंगे तो क्या होगा पूरी दुनिया का – ये सोच रहे हैं आल्टरनेटिव रिसोर्सिस आॅफ एनर्जी। कोई सोलर एनर्जी की तो कोई कुछ और बात कर रहा है। आखिर उसकी भी सीमा समाप्त हो जाएगी, तो फिर कहां जाएंगे।

इसीलिये महात्मा गांधी के जीवन का उदाहरण आता है। साबरमती का आश्रम, बगल में ही साबरमती बहती है, पर्याप्त पानी है। नदी के किनारे गांधी जी भोजन करके उठें, जिस बहन ने हाथ धुलाया, उसने पूरा लोटा उड़ेलने की कोशिश की। उन्होंने कहा रूक जाओ, मेरा काम थोड़े पानी से चल सकता है, पूरा लौटा क्यों? बहन ने कहा यहां पानी की क्या कमी है, जितनी जरूरत होगी, नदी से ले लेंगे। उन्होंने कहा यही चिंतन में दोष है, मुझे नदी से उतना ही लेना है, जितना मुझे चाहिए, उन्हें बाकियों की जरूरतें भी पूरी करनी है। गांधी जी ने यह सीख बचपन से जैन संतों के पास वो रहे थे। उनसे उन्होंने उपदेश प्राप्त किये थे, वहीं से उन्होंने सीखे।

तो प्रकृति का उतना उपभोग करें, जितनी आवश्यकता है, उतना ही संग्रह करें। त्यागपूर्ण उपभोग करें। संतों ने नियम दिलाया कि आप इस चीज का उपभोग करें, क्या मेरा जीवन उसके बिना नहीं चलते? लेकिन भोग वृत्ति वाले व्यक्ति कहते हैं, क्यों छोड़ना? आखिर प्रकृति ने बनाई किसलिये? प्रकृति ने बनाई है संतुलन के लिये, उपभोग के लिये। जीव – जीव रक्षा के लिये बना है, उसका भोग करने के लिये नहीं – ये इस धरती का चिंतन है। इसको हमारे यहां अपरिग्रह कहा गया है।
अगर पर्यावरण को बचाना है तो उसे बचाना पड़ेगा भारतीय दर्शन अहिंसा से। स्कूलों में छोटे-छोटे बच्चे बंदूक, चाकू लेकर जा रहे हैं। पश्चिम में यह बहुत ज्यादा हो गया है। हमारी न्यू कास्मोप्लेटिन सिटीज हैं, जहां जमीनें बेचकर खूब पैसा आ गया, वहां बच्चे पिस्तौल लेकर जाने लगे हैं, छोटी-छोटी बात पर गोलियां निकालने लगे हैं। किसी बात पर पत्नी नाराज हो जाएं तो वह भी मारने ली है, पति तो पहले मारते ही थे। तो हिंसक प्रवृत्ति को रोकने का मार्ग है योग। इस पर रोक लग सकता है योग और तपस्या के माध्यम से। ये चिंतन पश्चिम नहीं, चिंतन हमारा ही। आप योग करते-करते अपनी प्रवृत्तियों पर रोक लगा सकते हैं।

मेरे से गली हो गई है, कोई बात नहीं, कुछ दिन तपस्या कीजिए, उसका निदान कीजिए। अपने को परिमार्जित करिये। पर्यूषण पर्व यही तो है। आत्मा से आत्मा को देखने का अवसर, अपने अंदर देखने का अवसर, अपने आई कमियों को दूर करने का अवसर है, यही पर्यूषण पर्व है। चाहे गृहस्थ हो, चाहे संत हो, सभी इसी काम में लगे रहते हैं और उसमें सभी प्रकार की प्रवृतियों पर रोक लगाई जा सकती है। हिंसक प्रवृत्ति तो पूर्ण रूप से समाप्त हो जाएगी, जब मैं अहिंसक बनूंगा, किसी को मारूंगा नहीं, सबका संरक्षण करने का प्रयास करूंगा। कितने सुंदर तरीके से कैसे जीव की रक्षा करना, जियो और जीने दो मात्र यहां तक नहीं सीमित रहता। जीने दो ही नहीं, कोई मार रहा है तो उसे भी रोको। हमें जियो और जीने दो सूत्र से आगे बढ़ना पड़ेगा। हमारे तीर्थंकरों के चिह्नों को देखियों, देवियों के वाहनों को देखिये। इससे पता चलता है जीव मात्र से प्यार करना। इतना गहरा चिंतन पश्चिम में हो ही नहीं सकता, जो हमारी धरती पर है। एक इन्द्रिय जीव की रक्षा कैसे की जा सकती है, इतनी मानसिक रूप से अपने आपको इतना साधना कि हम अपना जीवन अहिंसामयी बना लें।

आज दुनिया सबसे ज्यादा त्रस्त आतंकवाद से जूझ रही है। हमने तालिबान का स्वरूप अफगानिस्तान में देखा ही है। भारत तो आतंकवाद पूर्ण रूप से त्रस्त है। कैसे इससे बचा जाए, समाधान हो। दुनिया में कोई इसका समाधान नहीं ढूंढ पा रहा। 20 साल तक अमेरिका डब्ल्यूटीसी को दोबारा न दोहराया जा सके, इसके लिये अफगानिस्तान में अपने सैकड़ों, हजारों सैनिकों को झोक रहा है, हजारों का तो बलिदान हो चुका है। कौन सा पश्चिमी देश है, जो आतंकवाद से नहीं जूझ रहा है। भारत भी त्रस्त है। विचारधारा के नाम पर चलने वाले इस आतंकवाद ने मानवता को कितना त्रस्त किया है, कितनी संस्कृतियां नष्ट कर दी है, कितने ज्ञान के भंडार नष्ट कर दिये हैं। समाधान है तो हमारे पास है। तीर्थंकर, ऋषि मुनियों की इस धरती पर। मैं ही ठीक हूं, बाकि गलत है और जो गलत हैं उसको जीने का अधिकार नहीं है, यह चिंतन नहीं चल सकता, यही आतंकवाद का मूल आधार है। हमारा अनेकांतवाद इसका समाधान है।

मैं ही ठीक हूं, ऐसा नहीं। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि पूरी दुनिया की सभी समस्याओं का समाधान कहीं है तो भारत की धरती से है। ये पूरी दुनिया के श्रेष्ठ लोग इसी दिशा में विचार करते हैं। भारतीय दर्शन की दो परंपरायें वैदिक और श्रमण – दोनों ही एक – दूसरे की पूरक हैं। हम सांझी विरासत के हैं। मिलजुल कर साथ काम किया है। श्रमण परंपरा में जैन परंपरा और बौद्ध परंपरा आती है। हम सबके विरासत सांझी है, हम सबके तीर्थं सांझे हैं, हम सबके ज्ञान की परंपरा सांझी है। आखिर कर्नाटक का धर्मस्थल भगवान शंकर का स्थान है, वहां का पुजारी वैष्णव है, वहां के मठाधिपति जैन हैं। आखिरकार मौनी अमावस्या मनाते हैं – सनातन परंपरा मनाती है। भ. ऋषभदेव की 12 वर्ष की तपस्या पूर्ण हुई थी, उनका मौन समाप्त हुआ था। ऐसे पचासों उदाहरण हम देख सकते हैं। भारत की परंपरा संघर्ष की नहीं, विमर्श की है। अब दिग्विजय का समय है भारतीय दर्शन के लिये, और हमें यह दिग्विजय हिंसा के आधार पर नहीं, वैचारिक आधार पर करनी होगी। हम अपनी नाभि में छिपी इस कस्तूरी को पहचाने, उस पर काम करें, दुनिया को इसका परिचय करायें, दुनिया इस पर चलेगी तो मानव जीवन सुखी होगा, हम मानव को वीर और वीर को महावीर बनाने की क्षमता रखते हैं। अपनी इस क्षमता का स्मरण रखें।

डॉ. तृप्ति जैन : त्याग और दान अलग-अलग होते हुए भी कहीं न कहीं एकता आ जाती है। दान हमेशा अच्छी चीजों का और त्याग बुरी चीजों का किया जाता है। दान स्व और पर दोनों का किया जाता है अर्थात् जब धन या ज्ञान का दान कर रहे हैं तो ज्ञान स्व हो और जो भी किसी वस्तु का दान किया जाता है वह पर होता है। लेकिन त्याग सिर्फ पर का किया जाता है। यानि आत्मा का स्वभाव है, वह स्वाभाविक है और उससे विपरीत जो कुछ भी विभाव हैं, उन सबका त्याग करना ही पर है। त्याग और दान दोनों अलग होते हुए भी संबंध यह है कि जब दान किया जाता है, जैसे धन का दान, तो वह कही न कही हमारी असक्ति का त्याग किया जा रहा है। इस अपेक्षा से हम कह सकते हैं कि दान में त्याग किया जाता है।

त्याग करें किसका? आसक्ति की त्याग करना बहुत बड़ी बात है। आज प्रेक्टिकल लाइफ में इसे कैसे लाएं? ये एक चक्र है। कहते हैं धर्म के अनुसार आसक्ति का त्याग करना ही उत्तम त्याग है। सबसे ज्यादा करीब कोई है तो वह हमारा शरीर है। इसके प्रति हमारी आसक्ति सबसे मजबूत होती है। हमें जानना होगा कि क्या यह आसक्ति रियल है? इससे भी ज्यादा एक मजेदार और चीज है जिसे प्रेक्टिकली पहला छोड़ना पड़ेगा, वह है हमारा आलस जिसे जैन दर्शन में प्रमाद कहते हैं। सुबह उठना सेहत के लिये बहुत अच्छा है, स्वच्छ वायु, कसरत हमारे लिये अच्छा है लेकिन क्या हम प्रमादवश इसे कन्ट्यूनिटी में अप्लाई करते हैं। हम आलस करते हैं और सुबह 5 बजे नहीं उठते। इसलिये आलस्य का त्याग जरूर है।

दूसरा उत्तम त्याग है जो समाज के लिये आवश्यक है – विचारों का त्याग। हमारी जो धारणा बनी होती है, उसका त्याग। किसी व्यक्ति के प्रति जो धारणा बनी होती है, आज समाज में यही झगड़े का कारण है कि हम एक-दूसरे के प्रति धारणा बना लेते हैं कि वह तो ऐसा ही होगा। दूसरी धारणा हमारी किसी वस्तु के प्रति होती है। अगर हमें कोई सुख दे सकती है तो वह कोई वस्तु ही दे सकती है। जैसे आज अपने भाई नहीं, धन पर भरोसा करते हैं। इस तरह की भावना क्यों पैदा हो गई? साइंस ने सिद्ध किया है कि जैसी हमारी भावना होती है, वैसा ही होता है। तीसरी धारण हमारे विचारों के प्रति धारणा। हम जो सोचते हैं, विचार करते हैं। यह सीधा श्रद्धा से जुड़ता है। हमारी श्रद्धा कहां से जुड़ी है। ओक्सीटोसिन नामक कैमिकल हमारी इस धारणा से कनेक्ट होता है। जब बच्चे का जन्म होता है, इसका इंजेक्शन दिया जाता है। ये हमारे जैन धर्म में काफी कनेक्ट करता है और इस धारणा को तोड़ने में बहुत बड़ा सहयोगी बनता है।
हमें सबसे पहले त्याग आलस्य का और दूसरा हमारे धारणाओं का – व्यक्ति, वस्तु और विचारों के प्रति।

डायेरक्टर श्री मनोज जैन : भगवान महावीर देशना फाउंडेशन के सभी डायरेक्टरों की तरफ से हमारे देश के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के 71वें जन्मदिवस पर एक पत्र लिखा और उनको शुभकामनाएं दीं। हमने लिखा कि हमेशा स्वस्थ, ऊर्जावान रहे, भगवान महावीर से यही प्रार्थना करते हैं कि जिस ऊर्जा से आप देश के लिये सेवा में तल्लीन हैं, ईश्वर आपको दीर्घायु बनाये। जिस तरह से आप शाकाहार होकर, देश-विदेश में शाकाहार को बढ़ावा दे रहे हैं, इसके लिये आपको कोटिश: धन्यवाद और आभार। दरअसल शाकाहारी होने से जिंदगी के प्रति आपके नजरिये में बदलाव आता है, यह सब आपके व्यक्तित्व एवं आपकी कार्यशैली देखने में साफ पता चलता है।

हमने इस पत्र के माध्यम से उनको अंत में लिखा है कि शाकाहार को बढ़ावा देने के लिये कठोर कानून बनाने के साथ हमने उनको निवेदन किया है, हमने माननीय प्रधानमंत्री से उनके जन्मदिवस के तोहफे के रूप में मांगा है कि वो गो हत्या को भारत के अंदर बंद करें।

श्री सुशील जैन एडवोकेट : अपने समाज के अंदर ही आज त्याग को नहीं अपना रहे। हम छोटी-छोटी बात के लिये करोड़ों रुपया खर्च कर देते हैं। क्या हम कुछ बातों का त्याग कर, उन मसलों को अपने घर के अंदर ही न सुलझा लें। सन् 1975 में जब भगवान महावीर का 2500वां निर्वाण दिवस मनाया जा रहा है, उस समय हमारे समाज के लोग इंदिराजी के पास गये और उनसे कहा कि हमारे भगवान का 2500वां निर्वाण दिवस मनाया जाए। इन्दिरा जी ने सबसे पहली एक बात कही कि आप सब मिलकर आएं। उस समय हमारा एक झंडा बना, चिह्न बना। आज आप लोगों के प्रयास से वापिस हम एक मंच पर बैठें हैं – 18 दिवसीय पर्यूषण महापर्व में, इसकी बहुत खुशी है।

आचार्य श्री देवनंदी जी : भ. महावीर स्वामी सिर्फ जन-जन के तीर्थंकर हुए, उनकी देशना प्राणी मात्र के कल्याण के लिये हुई। भ. महावीर ने हमारे लिये एक-दूसरे के नजदीक जानने के लिये, अपनी मलिनता, वासनाओं, पंचेन्द्रिय आकांक्षाओं, राग-द्वेष मोह को त्यागने की बात कही है। त्याग के समक्ष सारी दुनिया झुकती है। बिना त्याग के किसी को वंदन, प्रणाम, नमस्कार नहीं मिलता है। हमारा जैन धर्म संयम, अहिंसा और तप पर टिका है। इसलिये भ. महावीर के अंतेवासी शिष्य गौतम गणधर ने यह भी कहा कि अहिंसा, संयम और तप, त्याग की एक रूप होता है, देव भी उनके लिये प्रणाम करते हैं। देवता गण सर्वोच्च सुख-सुविधाओं को प्राप्त हैं, लेकिन फिर भी त्यागी के समक्ष झुकाते हैं। गौतम स्वामी भ. महावीर के समक्ष नतमस्तक हुए। त्याग से हम जन-मानस के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच सकते हैं, यह निर्विवाद सत्य है।

मैं आपका आत्म हूं, जैसी आदिनाथ की आत्म है, सिद्धात्माओं की आत्मा है, वैसा ही मैं आत्मा हूं। जैसे अन्य तीर्थंकरों की आत्मा में ज्ञान-दर्शन समाया हुआ है, वैसे ही मेरे आत्मा में भी ज्ञान और दर्शन है। ये भावना अपने में लाते हुए, इसके अलावा जितना भी है, वह एक संयोग है, चाहे वह हमारा शरीर, परिवार, धन-दौलत है, ये सबकुछ संयोग मात्र है और वह भी तब तक जब तक हमारी आंखें खुली हुई हैं। ऐसी एकत्वपने की भावना जब हमारे अंदर आती है, तो हमें लगता है कि तब हमें लगता है कि संसार में कोई सार नहीं है। संग्रहवृत्ति हमें हमेशा नीचे की ओर ले जाती है। जो पल्ला तराजू का हल्का होगा वह हमेशा ऊपर जाएगा। जो भी मन में भ्रम, कषाय, अहंकार, छल-कपट उसका त्याग करो। संग्रहवृत्ति के कारण ही आज सारी ज्वलंत समस्याएं बढ़ रही हैं।

सौ लोगों में कोई एक शूरवीर होता है, सहस्त्रों में कोई एक विद्वान और वक्ता लाखों में एक होता है लेकिन दाता लाखों में भी मिलेगा या नहीं मिलेगा, हम बोल नहीं सकते। कौरवों की भावना थी कि मेरा सो मेरा, तेरा भी मेरा। पांडवों की भावना थी कि तेरा सो तेरा, मेरा सो मेरा किंतु राम की भावना थी तेरा सो तेरा, मेरा भी तेरा, लेकिन भगवान महावीर ने कहा न कुछ तेरा, न कुछ मेरा, ये सिर्फ रैन बसेरा।

राष्ट्रसंत चन्द्रप्रभ महाराज : हम सभी लोग एक होते हैं, एक साथ हमारे विचारों का आदान-प्रदान करते हैं, मिलते-जुलते हैं तो ये हमारे लिये बहुत बड़े सौभाग्य की बात है। पूरा भारत देश त्याग प्रधान देश रहा है। यहां जब भी पूजा गया, त्याग ही पूजा गया। यहां कभी भी वैभव की पूजा नहीं हुई है। मानता हूं कि सिकंदर चौराहे पर मूर्ति बनकर पूजे जा सकते हैं, लेकिन भ. महावीर सदा श्रद्धा के केन्द्र रहते हैं। भारतवासी सदा श्रद्धा हमेशा त्याग और तपस्या को देते हैं, अमेरिका भले ही धन में आगे होगा। पर गौर कीजिए हमारा भारत देश धर्म में आगे हैं। जब इंसान का शरीर छूटता है तो धन यही रहता है और धर्म उसके साथ चला जाता है।

मैं अनुरोध करूंगा कि हर व्यक्ति को त्याग और तपस्वी जीवन जीना चाहिए। छह महीने का एक बालक होता है तो जब वह हाथ-पैर चलाता है, तो दादी, बुआ, मां, पापा और अन्य लोग ये ही कहते हैं कि ये मुझ पर गया है। वहीं बच्चा जब बढ़ा होता है, शैतानी करें तो सारे लोग घर के मिलकर पूछते हैं कि ये किस पर गया है? इसका मतलब है कि छह महीने का बच्चा चेहरे के बलबूते चलेगा और 26 वर्ष का बेटा, केवल चेहरे के बलबूते नहीं, चारित्र के बलबूत चलेगा। आज अगर 2600 साल के बाद भी भगवान महावीर इस दुनिया में पूजे जा रहे हैं तो इसलिये नहीं कि उनका चेहरा सुंदर था, वो इसलिये पूजे जा रहे हैं क्योंकि उनका चारित्र सुंदर था। सुंदर चेहरा दो दिन, ज्यादा धन दो महीने याद रहता है, पर आदमी का सुंदर चारित्र, त्यागमय जीवन युगों-युगों तक मानवता उसे हमेशा याद किया करती है।

जब हम ये अपेक्षा रखते हैं कि हमारे साधु त्यागमय और तपस्यामय जीवन जियें तो यह जरूरी है कि गृहस्थ लोग भी अपने जीवन को त्यागमय बनायें। हर इंसान को अपना जीवन बहुत संयमित, सादगीपूर्ण, त्यागपूर्ण, नियमपूर्वक और अपने विवेक के साथ समिति और गुप्ति का पालन करते हुए, व्यक्ति को जीवन जीना चाहिए। जो आपने एकता का माहौल बनाया, उसका बहुत-बहुत अभिनंदन करते हैं। हम मानते हैं कि हमारे हाथ में ये तो नहीं है कि हम श्वेतांबर, दिगंबर, तेरापंथ, मंदिरमार्गी, स्थानकवासी को जो दीवारें हैं, उन दीवारों को हटा सकें। लेकिन एक बात है दीवारें हटें न हटें पर इन दीवारों में एक दरवाजा तो खोल ही सकते हैं। फाउंडेशन ने जो प्रयास किया है, यह प्रयास दीवारों में दरवाजे खोलने का प्रयास है, कि हम मिलते रहे, एक-दूसरे के करीब आते-जाते रहे।

जिसके जीवन में सदाचार का संचार है, अहिंसा जिसका अलंकार है, जिसे जीवमात्र से प्यार है। जो स्वयं गुणों का भंडार है, जिसमें नम्रता और सरलता है, जो बुराई से डरता है, सच्चाई पर चलता है, जो खुद भी नेक है, जिसमें विनय और विवेक है। जो जानता है, मानता है कि मुक्ति के मार्ग अनेक हैं, फिर भी हम सब एक हैं। मानवता में जो विश्वास रखता है, जो भगवान महावीर का फेन है, सच्चाई में वही दुनिया का जैन है।

हम अनुरोध करते हैं कि जब उत्तम त्याग का दिन है, हम सभी लोगों को मानसिकता बनानी चाहिए कि मैं अपने जीवन में आज छोटा – मोटा कोई ऐसा संकल्प जरूर करूंगा। भ. महावीर ने त्याग और तप के इतने छोटे-छोटे रूप दिये हैं जिन्हें हम जीवन में उतार लेते हैं, तो वे बहुत लाभकारी बन सकते हैं। अगर किसी व्यक्ति को नये कर्म के बंधन से बचना हो, तो उसके लिये चारित्र को जीवन में स्वीकार करना पड़ता है और अगर किसी व्यक्ति को पूर्वापार्जित कर्मों का नाश करना हो तो उसके लिये तप और त्याग बेहद जरूरी है। चारित्र हमारे नये कर्म का बंधन न हो, इसमें भूमिका अदा करता है और उत्तम त्याग और तपस्या हमारे पूर्व उपार्जित कर्मों का नाश करती है। छोटे-छोटे संकल्पों से भी जीवन का परिवर्तन हो सकते हैं। बड़े -बड़े त्याग न कर सकें पर मैं पूर देशभर के श्रद्धालुओं से और सकल जैन समाज से आग्रह करूंगा कि ये तो हम संकल्प कर सकते हैं कि हम रात्रि भोजन का त्याग कर सकें। त्याग की चर्चा करना अलग बात है और त्याग की चर्या करना अलग बात है। भ. महावीर तब बनें जब उन्होंने त्याग की चर्या की थी।

एक दिन में एक बार, सात दिन में एक बार और कम से कम एक बार सामायिक व्रत जरूर करूंगा। हम संकल्प कर सकते हैं कि हम सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद अपनी मुंह में किसी प्रकार की भोजन सामग्री का उपयोग नहीं करूंगा यानि रात्रि भोजन का त्याग करूंगा। मैं रोज आधे घंटा किन्हीं पवित्र किताब का स्वाध्याय जरूर करूंगा क्योंकि स्वाध्याय करने से हमें मानसिक शक्ति मिलती है, बौद्धिक प्रतिभा का विकास होता है, हमें साक्षात ईश्वर की वाणी, वीतराग प्रभु की वाणी, आगम की वाणी, शास्त्रों की वाणी सुनने का भाग्य मिलता है। भूख से दो कोर कम खाऊंगा, त्याग हो गया, मेरे पास धन है, उसका एक अंश सहयोग में दूंगा, जीवन शीलता से जीऊंगा, अपनी भावनाओं को हमेशा निर्मल रखूंगा। । इस तरह हम छोटे-छोटे संकल्प लेना चाहिए।

अमृत को हाथ में लेने से जीवन अमृत नहीं होता, उसे पीने से होता है। ऐसे ही लड्डू हाथ में लेने से नहीं, खाने से मुंह मीठा होता है। ऐसे ही चारित्र, तप, त्याग, तपस्या का पालन जीवन में कहने से नहीं, चर्या में उतारने से होता है। केवल शरीर को मत सजाते रहो, जो एक दिन मिट्टी में मिल जाना है। सजाओ तो आत्मा को सजाओ, जिसे एक दिन परमात्मा के पास जाना है।
अच्छी बातें केवल कहनी की नहीं, अच्छी बातें जीवन में उतारने के लिये होती है। हम स्वयं को भी मोटिवेट कर रहे हैं कि हम जीवन में तप और त्याग के प्रति सावधान हूं।

जो भी इस मंच पर है, जो सुन रहा है तो उसे अगर कोई गलत व्यसन की आदत हो तो जरूर त्यागे। हमारा तो पहला संदेश है कि पूरा देश व्यसन मुक्त रहे। हर व्यक्ति को, अगर समाज का कोई भी पदाधिकारी बनता है, ट्रस्टी बनता है, संघ और ट्रस्ट का पदाधिकारी बनता है, उसके लिये पहली शर्त, ये न ढूंढा जाए कि वह कितना अमीर है? अमीर कम हो, तो भी चलेगा, अमीर ज्यादा हो तो भी चलेगा लेकिन उसके लिये पहला नियम होना चाहिए कि व्यक्ति नैतिक, उसका जीवन पवित्र हो, उसका जीवन त्यागपूर्ण हो और अनिवार्य शर्त होनी चाहिए कि समाज में वही व्यक्ति ट्रस्टी बनेगा जो पूर्णत: व्यसनमुक्त हो। अगर हम व्यसनमुक्त जीवन जीने की महान प्रेरणा अपने जीवन में लेते हैं, कि हम ये संकल्प कर लें कि किसी भी तरह की बुरी आदत हमारे जीवन में है, तो हम उसका त्याग करें, अपने आपको संस्कारशील बनाने की कोशिश करें। मैं एक नैतिक, पवित्र और नीति-नियम से चलने वाले जीवन को जीने की कोशिश करूंगा।

डायरेक्टर श्री अनिल जैन : मानव जीवन को सुखी बनाने का मार्ग व मार्गदर्शन यदि कही प्राप्त होता है तो वह आत्मा को आत्मा के अवलोकन से ही प्राप्त हो सकता है और उसके लिये किसी तरह के धन संग्रह की आवश्यकता नहीं होगा। अगर वह संग्रह नहीं होता तो संभवत: हमें बाह्य त्याग नहीं करना पड़ेगा लेकिन अंतरंग त्याग तो करना पड़ेगा। इन सभी के बीच सभी गुरुवर की बात को हमने जाना, सभी एकता के पक्षधर नजर आए। अमेरिका धन के कारण जाना जाता है और भारत धर्म के कारण – यह बहुत बड़ी बात है। जैन धर्म के परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम धर्म के भी और धन के भी वाहक हैं। आज हमारे पास धर्म और धन दोनों ही है। आज के अच्छे उद्बोधनों से हम यदि उपकृत महसूस करते हैं तो हमें निश्चित रूप से इस पंचम काल में इस सिद्धांत तक ध्यान रखना चाहिए कि जो कार्य कल करना है, उसे आज करना है। आज हम इतनी बड़ी आबादी के बावजूद टीकाकरण में फ्रांस को छोड़कर आगे निकल गये हैं। आज हम प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर दो करोड़ 11 लाख का आज वैक्सीनेशन हुआ। जब हम देश के रूप में, समाज के रूप में, सम्प्रदाय के रूप में बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं।
(Day 15 समाप्त)