यदि मिट्टी तपती है, तो वह अच्छा रूप ले लेती है, सोना भी तपकर अच्छा रूप लेता है, मेहंदी घिसती है तो अच्छा रंग ला देती है और इंसान तपता है तो वह एक दिन भगवान बन जाता है: आचार्य श्री देवनंदी जी

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जन संख्या में जैन आंकड़े का खेल!

सान्ध्य महालक्ष्मी डिजीटल / 17 सितंबर 2021

गर मोक्ष को पाना है, गर पाप मिटाना है
तो हर दिन पर्यूषण का संयम से बिताना है
संयम से बिताना है

जितना तप-त्याग करेंगे, जितना माया से डरेंगे
उतना मन पावन होगा, उतना अध्यात्म करेंगे
जियो और जीने दो, ये ही सार है आत्म का
पर्यूषण आया है, कर दूर द्वेष मन का

संयोजक श्री जिनेश्वर जैन, इंदौर : भगवान महावीर देशना फाउंडेशन के द्वारा पूरे विश्व में 18 दिवसीय पर्यूषण पर्व की आराधना और साधना के लिये संयोजित जूम मीटिंग में सभी का अभिनंदन करते हुए श्री जिनेश्वर जैन ने कहा कि पिछले दिनों में हमने कर्म के मैल को धोकर मंगलमय मनाए। श्वेतांबर परंपरा के 8 दिन और दिगंबर परंपरा के 10 दिन, न 8, न 19 अब 18 बस – इस मंत्र को स्वीकार कर भ. महावीर देशना फाउंडेशन ने 18 दिवसीय पर्यूषण पर्व की आराधना प.पू. आचार्य श्री देवनंदी जी, प.पू. उपाध्याय श्री रविन्द्र मुनि जी म., प.पू. स्वस्ति भूषण माताजी और महासाध्वी मधु स्मिता जी म.सा. के दिशा-निर्देशन में 18 दिवसीय तप की साधना का यह मंगलयम आयोजन चल रहा है।

डायरेक्टर श्री मनोज जैन : मेरी भावना की कुछ पंक्तियों को मंगलाचरण के रूप में प्रस्तुत करते हुए श्री मनोज जैन ने कहा कि आज की प्रयोगशाला में आज का दिवस है उत्तम तप। उत्तम तप निरवांछित पाले, सो नर कर्मशत्रु को टाले।

उपाध्याय श्री रविन्द्र मुनि जी म.: इस मंच पर नित्य नवीन, नये विषयों पर धार्मिक एवं सामाजिक चिंतन सभी वक्ता अपने-अपने तरीके से प्रस्तुत कर रहे हैं।
तप तो हमारा समाज भलि-भांति परिचित है। मेरा आज का चिंतन आज कुछ और है। दो-तीन दिन पहले कुछ वक्तागण जैनों की घटती जनसंख्या को लेकर अपनी चिंता व्यक्त कर रहे थे कि जैनों की संख्या की भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक करीब 45 लाख है। हम अपने घर में अनुमान एक से डेढ़ करोड़ लगाए, तो खुशफहमी पालने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन आंकड़े के खेल सारी दुनिया में चलते हैं और आंकड़ों का बड़ा भारी महत्व होता है।
सन् 1970 के आसपास तक आम भारतीय परिवार जिसमें जैन परिवार भी थे, 5-5, 6-6 भाई-बहन आम घरों में मिल जाया करते थे, जैसे-जैसे शिक्षा का विस्तार होता गया और हमारे जैन समाज में शिक्षा का स्तर आज भी बढ़िया है और तब भी अच्छा था, तो हमारे लोगों ने परिवार नियोजन को बड़ी तीव्रता के साथ औरों से भी जल्दी बढ़ाया और परिणाम यह है कि हमारी जनसंख्या धीरे – धीरे कम भी होने लगी और घरों के वातावरण भी बड़ी तेजी के साथ बदलने लगी। सवाल यह पैदा होता है कि यह उजड्डों की तरह यह आदेश अपने समाज को यह नहीं दे सकते कि आप 4-4, 5-5 बच्चे अपने घरों में करें, और कह भी दें तो इसका असर होने वाला भी नहीं है। उसको कई रूपों में लोग देखते हैं। आर्थिक कारणों से, बच्चों की शादियों को लेकर और भी कई बातों इससे जुड़ी हुई हैं। हमें और आपको एक चिंतन करना है कि जैनों की संख्या उसके बावजूद भी कैसे बढ़े। सबसे बड़ी बात है कि जैन एक धर्म है, न कि जाति, जो इस माने, इसके पद पर चले, भगवान महावीर के सिद्धांतों पर चलें वो जैन है। तो हमें यह प्रयत्न चाहिये कि जैनेत्तर समाज को जैन धर्म की ओर हम कैसे आकर्षित कर सकते हैं। एक शहर में जैन मुनि बैठे थे, कुछ महिलाएं आई, कुछ समाज के लोग थे। समाज के लोगों ने छूटते ही कहा कि महाराज साहब वे नान जैन होते हुए भी, हमारे जैन धर्म को मानते हैं। वो महिला पढ़ी-लिखी थी, जैन संतों के पास आती थी, प्रवचन सुनती थी। उसने कहा जब भाईसाहब आप हमें नान जैन कहते हैं तो हमें गाली लगती है। आप हमें नान जैन की जगह न्यू जैन कहेंगे तो हमें अच्छा लगेगा।

सन् 1956 में स्थानक परंपरा के एक संत हुए समीर मुनि जी म.। उन्होंने चित्तौरगढ़, मंसूर जिला, उदयपुर, भीलवाड़ा आदि इन जिलों में एक जाति विशेष के लोग थे जिन्हें आम भाषा में हम खटीक कहते हैं, जिनका काम होता है मरे हुए जानवर का चमड़ा उतारना, साफ करना और बेचना। यह सुनकर आपभी अलग ही मन में भाव लाएंगे। लेकिन महाराज के पास चार लोग ऐसे आएं, जिन्होंने कहा हम जैन धर्म के मार्ग पर चलना चाहते हैं। महाराजश्री ने श्रमण संघ का एक सम्मेलन था, बड़े संत से आशीर्वाद मांगा और इस काम में लग गए। इसका परिणाम है कि सारे इलाके में आज छोटे-बड़े सब मिलाकर 17 हजार लोग जो खटीक थे, 17 हजार लोग जैन धर्म को प्रेक्टिकली अपनाएं हुए हैं और महाराज ने अपने समय में ही एक गौत्र दे दिया था धीरवाल। आप कल्पना करें संत के महान काम को जिसने गांव-गांव, डगर-डगर जाकर काम किया और बड़े-बड़े नगरों का मोह त्यागा। अभी इसी साल में चितौड़गढ़ में उनके अहिंसा नगर में उनका सम्मेलन था। सम्मेलन में गया, बहुत सारी बातें सुन रखी थी, वहां देखी, महसूस की। पूरे 17 हजार लोगों की नसल बदल गई। आर्थिक रूप से, शिक्षा के हिसाब से वो लोग काफी तरक्की कर रहे हैं।
इस तरह से केन्द्र में मंत्री रहे हैं डॉक्टर सत्यनारायण जटिया। जाति दृष्टि से कहें तो पिछड़ी जाति के हैं, लेकिन उज्जैन के जैन स्थानक मे नमक मंडी में उनके पिताजी 5-5 सामायिक करते थे और पूर्ण शाकाहारी जीवन, और जैन धर्म से प्रेक्टिकली जुड़े, उसका प्रभाव सत्यनारायण जटिया के जीवन और व्यक्तित्व के ऊपर आया और वे जैन धर्म के प्रति प्रभावित रहे।
ऐसी ही स्थानक वासी समाज के एक और संत हुए हैं पूज्य श्री नानालालजी महाराज जिन्होंने ऐसे ही वर्ग के अन्य वर्ग के लोगों को जैन धर्म से जोड़ा और उन्हें नया नाम दिया – धर्मपाल। उन्हें जैन तत्व सिखायें, जैन धर्म में लेकर आएं, उन्हें अपनापन दिया, उन्हें ढालने का काम किया। हरियाणा में ऐसे बहुत गांव हैं जहां जाट लोग रहते हैं, जैसे बड़ौदा गांव, गूजर खेड़ी गांव जहां जाट लोग बड़ी संख्या में रहते हैं और प्रेक्टिकली जैन धर्म को अपनायें हुए हैं। श्वेतांबर स्थानकवासी का पिछले सौ-सवा सौ साल का इतिहास चलायें तो तो कम से कम सौ-डेढ़ सौ साधु-साध्वियों ने स्थानकवासी परंपरा में दीक्षा ली तो निश्चित रूप से उनके परिवारों के लोग उससे जुड़ते हैं।

महाराज अग्रेसन के पोते थे लोहित। लोहित ने जैन धर्म में दीक्षा ली और उनके गुरु का जब स्वर्गवास होने का समय नजदीक आया। तब गुरु ने कहा कि तुम राजा के पोते हो, तुम्हारी सुनवाई ज्यादा है और प्रजा में सम्मान है। आज का हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उ.प्र. जहां महराजा अग्रसेन का ज्यादा प्रभाव है, उन लोगों के बीच में जाकर एक ही काम किया – णमोकार मंत्र का सिखाना, 7 प्रकार के कुव्यसनों का त्याग कराना, अहिंसा धर्म की शिक्षा देना, आज हम जिन्हें अग्रवाल जैन कहते हैं,नाम के आगे जैन, शादी के समय जब गौत्र पूछते हैं तो गोयल, मित्तल, सिंधल वगैरह ये गौत्र होते हैं। आज वे पूर्णत: तन मन धन से जैन धर्म के प्रति समर्पित होकर के काम कर रहे हैं।
हमारे दिगंबर मुनियों में उल्लेखनीय कार्य किया पूज्यनीय आचार्य श्री ज्ञान सागरजी महाराज ने। जिन्होंने झारखंड के अंदर सराक जाति के आदिवासी लोगों को श्रावक बनाकर उनका उद्धार करके बड़ा भारी काम किया। सराक जाति के कल्याण में ज्ञान सागरजी महाराज का बड़ा भारी योगदान रहा।
एक बात कहना चाहूंगा कि आज हमारे तकरीबन सारे सम्प्रदायों के जैन मुनियों की एक आदत पड़ गई है कि हमें नगर-महानगरों में रहना है, चमक-दमक के बीच रहना है, जहां जैन समाज हमें बहुत वन्दना करता रहे और हम हाथ-हाथ उठाकर आशीर्वाद देते हैं, बडेÞ-बड़े आयोजन करते रहें, वाह-वाही लूटते रहें। जैनों के बीच भाषण देना आसान है, जैनत्तर लोगों के बीच में जाना, काम करना, मिशनरी तरीके से काम करना है, वे बहुत ही कम करते हैं। एक जैन साधु काम करके जाता है बाद में हमारा श्रावक और साधु वर्ग उसे सम्भालता नहीं है। बाद में क्या होता है, धीरे-धीरे करी-कराई मेहनत सब बेकार हो जाती है। मुझे नहीं मालूम कि ज्ञान सागरजी महाराज के देवलोकगमन के बाद सराक जाति को संस्कारित करने का काम कोई संस्था, व्यक्ति कर रहे हैं या नहीं और ऐसे कार्यों के लिये हमारे पास फंड की बहुत कमी रहती है। जहां नाम हो, बिल्डिंग बनानी हो, ग्रेनाइट पर नाम आना हो, वहां के लिये पैसा बहुत। लेकिन ठोस वर्ग जहां हमारी संख्या बड़े, प्रभाव बड़े, उसके लिये हमारे पास पैसा है, न समय है, न प्लानिंग है – यह दशा में प्रेक्टिकली कह रहा हूं।

जोधपुर की एक लड़की है – शिखा संचेती जो तीन अनाथालय चला रही है – जोधपुर, बैंगलोर और सूरत में। उसने कहा कि मेरा एक लक्ष्य है, अनाथ बच्चों की सेवा तो होगी ही, आज मेरे पास करीब डेढ़Þ सौ बच्चे हैं, उनको मैं णमोकार मंत्र, 24 तीर्थंकरों के नाम, रात्रि भोजन का त्याग, आश्रम के नियम है जिनका बच्चे पालन कर रहे हैं। लेकिन मेरे पास धन की कमी रहती है। मेरी भावना है कि ग्रेजुएशन तक ऐसे बच्चे पढ़े और उन अनाथ लड़के-लड़कियों के समय आने पर परस्पर में विवाह करायें। कुछ लोगों से चर्चा की तो उन्होंने कहा सहयोग करें। लेकिन हमें बड़े पैमाने पर थोड़े से अच्छे, ऐसे अनाथ बच्चों को सहारा भी देंगे, मानवता का भी काम करेंगे और हमें मानने और चाहने वालों की संख्या भी बढ़ेगी। उस लड़की ने बताया कि मैं जब बैंगलोर में किसी सरकारी कार्य में बिजी थी, तो चार बच्चों को बहकाकर क्रिश्चयन लोग ले गये और क्लीयरकट कहा उसकी मां से कि हम तो नानवैज भी खिलायेंगे, और इनको क्रिश्चयन भी बनाएंगे। तुम्हें मंजूर हो तो छोड़ो। मरता, क्या न करता। उस अनपढ़ लोगों के पास 6 बेटियां थीं, दोनों पति-पत्नी मजदूरी करते थे। लेकिन वो जैन लड़की वहां जा कर लड़कर – झगड़कर चारों लड़कियों को अपनी संस्था में लेकर आई और उसकी भावना है कि मैं इस माध्यम से, इस तरीके से जैन धर्म का काम करूंगी। एक सुझाव है सबके लिए – हम बहुत तरह के धार्मिक आयोजन करते हैं। हमारे उन कार्यक्रमों में कभी-कभी आईएएस, आईपीएस, एमपी, एमएलए को बुलाते हैं, लेकिन होता है क्या है उनके आने पर सभा डिस्टर्ब हो जाती है। समाज के लोग उन्हें घेर कर फोटो खिंचवाने लगते हैं। मैं ऐसा मानता हूं कि हमें थोड़ा तरीका बदलना होगा। आईएएस, आईपीएस बुद्धिजीवी हैं, एमपी भी आज पढ़े -लिखे आ रहे हैं, वो जनप्रतिनिधि हैं। जब वे आपकी धार्मिक सभा में आए तो लोग बिल्कुल साइड हो जाएं और एक समझदार व्यक्ति कुछ बातें बतलाने के लिये उनके पास रहे। आप उन्हें शॉल माला मोमेन्टो दें न दें, उन्हें चिह्नित साहित्य भगवान महावीर का जीवन दर्शन और सिद्धान्तों के माध्यम से वेलकम करें और समय की सेटिंग करें कि जितने देर वो बैठे वो कुशल वक्ता उस प्रसंग के बारे में थोड़ा जमकर बोले ताकि उस व्यक्ति को पता चला कि आज मैं किस काम के लिये यहां आया हूं।
तो हमें जैनों की जनसंख्या बढ़ानी है तो हमें तरीकें बदलने होंगे और उसके लिये प्लानिंग, पैसा सब चीजें करते हुए हमें आगे बढ़ना होगा। जैनेत्तर लोगों को अपने में पचाने की क्षमता हमें ही विकसित करनी होगी। उनसे घृणा करना, दूर-दूर रहना, उनसे पीछे हटना ये सब बातें हमें छोड़नी होंगी।

परम पूज्य महासाध्वी श्री मधुस्मिता जी महाराज : रविन्द्र मुनि जी म. ने बताया कि जो मोमेन्टो जो महंगे-मंहगे बतायें हैं उसके संदर्भ में हमने नई कल्पना चालू की है। हम जो शाल और माला पहनाते हैं, वे अतिथि वहीं उतारकर रख देते हैं। अगर हम गले की माला की अपेक्षा हाथ की माला दी जाती है, स्फुटिक की माला है। उसे एक डिब्बी में रख कर दी जाती है जिसे अपनी कल्पना से कि वह सातों दुर्व्यसन छोड़ें। वो सप्त दुर्व्यसन के कार्ड छपवाएं हैं। जो हर साल में जैन 31वां दिवस मनाते हैं। 12 बजे बराबर मंगल पाठ देते हैं। 10-10 हजार लोग वहां पर होते हैं, जिसमें अधिकांश कॉलेज-यूनिवर्सिटी के बच्चे होते हैं। उनको जब हम ये दे रहे थे दो साल पहले, जिसके ऊपर सात दुर्व्यसन लिखे होते हैं। उसमें इस जमाने के दोषों को नई परिभाषा में दिये हैं और आखिर मैं लिखा है कि मैं जैन हूं, मैं शुद्ध आत्मा हूं। छोटी-छोटी किताबें प्रकाशित की हैं जिनके अदंर बहुत सा सार दिया है। वो कोनवेंट के बच्चे मंदिर में नहीं जाता लेकिन उनका जैन होने का ज्ञान तो दे ही सकते हैं।
तप विषय पर बस इतना ही कहूंगा कि हम लोग आज बाह्य तप, अनशन पर अटक गये हैं। अभ्यंतर तप में आता है स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग – इन बातोें को थोड़ा सा दुर्लक्ष्य किया जा रहा है। इन्हें ज्यादा से ज्यादा दृष्टि पथ में लाएं। ध्यान का स्तोत्र तीर्थंकरों से ही आया है। 24 तीर्थंकरों ने ध्यान का मार्ग बताया है। उन्होंने स्वयं किया है, करवाया है।


आर्यिका श्री स्वस्ति भूषण माता जी
: जैन धर्म आज सिकुड़ता, सीमित होता जा रहा है। और धर्म अपने प्रचार-प्रसार के लिये धर्म परिवर्तन करा रहे हैं। लेकिन अगर कोई अजैन हमारे जैन मंदिर में आ जो तो सारे जैनी ऐसे देखते हैं कि पता नहीं वह कहां से आ गया और जैनी हनुमान मंदिर, वैष्णोदेवी और पता नहीं कहां-कहां जाते हैं, वैसी दृष्टि से कभी नहीं देखा जाता है। ऐसा क्यों?

एक आचार्य लोहाचार्य जी हुए हैं जिनका संकल्प था कि जबकि एक दिन में 100 व्यक्तियों को जैन नहीं बना लूंगा, तब तक मैं आहार नहीं करूंगा। ऐसे करके उन्होंने जैन संख्या को बढ़ाया, जैन धर्म को आगे बढ़ाया। हम अपने नियमों पर अपने इतने दृढ़ रहते हैं, कि दूसरों को हम समाहित नहीं कर पाते। हम दूसरों को समाहित करने के लिये जैन धर्म का प्रचार-प्रसार अच्छी तरह से करें। जैन स्कूल हर शहर में जैन मंदिर के साथ होना चाहिए उसमें णमोकार महामंत्र, अहिंसा आदि के संस्कार दिये जाने चाहिए।
एक कौन तो ऐसी है कि वो ये कहती है कि जो हमारे भगवान को न माने, उसको मार दो और हमारा धर्म ऐसा है कि किसी जीव की हत्या नहीं करना। तो जब उनकी बहुलता होगी तो हमारे जैनियों का क्या होगा? तो हमें उसके लिये कुछ वीर लोग, क्षत्रिय लोग तैयार करने हैं जो समय आने पर युद्ध कर सकें।

आज उत्तम तप का दिन है। इच्छाओं का निरोध करना तप कहलाता है और आज का संपूर्ण जितना भारत का गृहस्थ है उसमें 80 प्रतिशत लोग भौतिक इच्छाओं में इस तरह घुस चुके हैं, उससे निकालने बहुत मुश्किल हो रहा है। हम यहां तपस्या की चर्चा करते हैं और वहां इच्छाओं की पूर्ति की बात होती है। अभी जो आपके बच्चे हैं उन्हें आपकी छाया मिल रही हैं, लेकिन जो आने वाली पीढ़ी है, आप जैसे बुजुर्गों की छाया नहीं मिलेगी, वो बच्चे धर्म को कैसे समझेंगे। आज से 25 साल बाद धर्म का क्या स्वरूप होगा? उसकी भी एक रूपरेखा तैयार होनी चाहिए। आज जो 70-80 साल के हैं, जब वो नहीं रहेंगे, उसके बाद धर्म कैसे चलेगा, उस पर विचार होना चाहिए।
आवश्यकता की पूर्ति करना संभव है मगर इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं है, क्योंकि इच्छाएं असीमित है। ये जीवन पूरा हो जाता है मगर इच्छाएं पूरी नहीं होती है। इन्हीं इच्छाओं को रोकने को तप कहा जाता है। तपस्या करने से पाप कर्मों की निर्जरा होती है। जब पाप कर्म आपको सता रहे हैं, आपके काम में बाधा डाल रहे हैं, तो तपस्या करने से कर्मों की निर्जरा होती है। तपस्या जीवन का आवश्यक अंग है। सूरज तपता है तब ये धरती खिलखिलाती है। सोना तपता है तो आभूषण बनने के योग्य हो जाता है। ऐसा ही यह जीवन जब तपस्या की अग्नि में तपता है तो यह भी खरा सोना बनकर एक दिन भगवान बन जाता है।
हैप्पी बर्थडे अमितजी

डायरेक्टर श्री राजीव जैन सीए : आज उपाध्याय जी ने जो चर्चा की हमारे समाज का महत्वपूर्ण विषय भी साथ में उठ गया कि हम किस प्रकार हम जैनों की संख्या को आगे बढ़ायें और किस प्रकार जिन जैन परिवारों को अपने साथ जोड़ा गया, उन्हें अपने साथ लेकर चलें।
उन्होंने समस्त मंच की ओर से डॉ. अमित राय जैन जी के जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित की। उन्होंने डॉ. अमित जी को ब्रांड अम्बेसडर की उपाधि से सम्बोधित किया।
इस आयोजन समिति में दोनों संयोजकों ने श्री हंसमुख जैन एवं अमित राय जी ने जिस प्रकार से देश के सभी संतों को जोड़ दिया और यह अभूतपूर्व कार्य किया है, मैं समझता हंूं कि 1974 के बाद, इन दो वर्षो में जो भगवान महावीर देशना फाउंडेशन केतत्वावधान में कार्य किया गया, कि पूरे जैन समाज के सभी परंपराओं के संत एक मंच पर आकर, सामाजिक विषयों पर और जैन सिद्धांतों पर चर्चा कर रहे हैं, एक से एक विद्वान आ रहे हैं। उसका श्रेय निश्चित रूप से हमारे संयोजकों पर जाता है। जिस उद्देश्य को लेकर हमने इस मंच का निर्माण किया है, भविष्य में हम उस लक्ष्य को प्राप्त करेंगे। इसी के साथ अमितजी के जीवन के विस्मरणीय क्षणों का एक छोटा वीडियो प्रस्तुत किया गया।
श्री मनोज जी ने कहा कि आज अमित जी आप बड़े ही सौभाग्यशाली है कि संतों के कार्यक्रम के बीच में आपके जन्मदिन का यह कार्यक्रम मनाया जा रहा है। शुभकामनाएं कुछ चंद शब्दों में इस तरह –
एक दुआ मांगते हैं हम महावीर भगवान से
चाहते हैं आपकी खुशियां पूरे इमान से
सब हसरतें पूरी हो आपकी और
आप मुस्कराये दिलो-जान से।

डायेरक्टर श्री सुभाष जैन ओसवाल : यह महावीर देशना फाउंडेशन का सौभाग्य है कि आज इस मंच के माध्यम से जैन समाज के नवरत्न श्री अमित राय जैन, जो कि जैन एकता का बहुत बड़ा पक्षधर है, युवकों का हृदय सम्राट है, सेवा और समर्पण में अपने आपको समर्पित रखता है और साहित्य की सेवा में जिस रूप से इन्होंने कार्य किया है, ऐसे युवा का जन्मदिन हम अपने मंच के माध्यम से मना रहे हैं, यह बड़े गौरव की बात है। हमें इनसे बड़ी आशायें हैं कि जैन समाज को जैन एकता को, आगे बढ़ाने में हमारे साथ कदम-कदम से मिलाकर चलकर एक नये युग का सूत्रपात करें, इन्हीं भावनाओं के साथ समस्त साथियों की ओर से अमित जी का स्वागत करता हूं।

डायरेक्टर श्री अनिल जी : सचुमच हम गौरवशाली है कि इस मंच पर हमें आपका जन्मदिवस मनाने का अवसर मिला है। इस मंच पर कई महान आत्माओं के दर्शन करने का प्राप्त हुआ है। आज का दिन उत्तम तप रूपी सुगंधदशमी का दिन भी है। आप स्वयं तो सुंगधित हैं हीं, साथ में सभी के जीवन को सुगंधित करते रहें। कबूल करें दुआयें हमारी, खुशियां कभी न जुदा हो आपसे। आपकी रहमत व आपके समर्पण में कभी कमी न आये। देश और धर्म की सेवा में आप सदैव तत्पर रहें।

डॉ. अमित राय जैन : सन् 1992 में उपाध्याय रविन्द्र मुनि जी म. का चातुर्मास बड़ौत में हुआ, जहां मेरा जन्म हुआ। इस क्षेत्र का मैं बहुत छोटा व्यक्ति हूं, जो काम करने का प्रयास कर रहा हूं। अगर मैं उस कार्य को समर्पित करूं तो उपाध्याय श्री रविन्द्र मुनि जी म. को समर्पित करूंगा। मैंने स्वयं देखा कि हम कई महीने लगे रहे वहां की लाइब्रेरी को सैट करने में रात के 12-12 बजे तक लगे रहे। कुछ प्रेरणा उनसे प्राप्त हुई, आज लगभग 28-29 साल हो गये लगातार उस काम को आगे बढ़ाते हुए। आज मंच पर मौजूद सभी संतों को भी कृतज्ञता प्रकट करता हूं।

डॉ. वीर सागर जैन : भ. महावीर देशना फाउंडेशन द्वारा इस सुंदर आयोजन में उपस्थित होकर आज मुझे अपरंपार हर्ष हो रहा है। मैं इस कार्यक्रम से बहुत गहराई से, अंतरात्मा से जुड़ा रहता हूं। गत वर्ष इसका लाभ प्राप्त किया था, और इस बार भी जुड़ा हुआ है। ऐसा इसलिये है, क्योंकि यह हमारी पूरी समाज को समन्वित की समन्वित करके एकता के सूत्र में बांधने का एक बहुत ही आवश्यक ही और महत्वपूर्ण प्रयास है। जैन समाज अल्पसंख्यक है लेकिन फिर भी यदि वो संगठित हो जाए बहुत बड़ा काम हो सकता है। बहुत बड़ा क्या, उसकी सारी समस्याएं दूर हो सकती हैं, उसका अल्पसंख्यकता भी दूर हो सकती है, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है।

मैं यहां मौजूद सभी महानुभावों से कहना चाहता हूं कि पहले हम इस बात का महत्व हमारी समाज के हर व्यक्ति को समझायें कि एकता का क्या महत्व होता है। देखो, समाज में कुछ लोग ऐसे मिल जाते हैं, जो मिलजुल कर नहीं रहना पसंद करते। वे अपने को बड़े सिद्धांतवादी, कट्टरवादी कह-कहकर समाज में दूरियां बनाते हैं, लेकिन हमको इस बात पर थोड़ा वर्क करना होगा कि हम कैसे एकता की भावना को विकसित करें। मैं ये नहीं कह रहा हूं कि हम अपनी सिद्धांतों को छोड़ दें। हमारे अंदर मान लो जो भी कोई ले-देकर दो-तीन मतभेद हैं छोटे-छोटे, मैं कहता हूं कि वे कदाचित् बने रहें, हमारे घर में भी तो बने रहते हैं। मेरे दादाजी पगड़ी, मेरे पिताजी टोपी लगाते हैं और मैं कुछ नहीं लगाते और मेरा बेटा टाई लगाता है, फिर भी हम चारों एक परिवार में मिलजुलकर रहते हैं न। मतभेद रहते हुए भी मनभेद न रखने की कला यदि हम हमारी समाज को सिखा सकें तो यह बहुत बड़ा काम होगा। देखिये, मैं इस बात पर बहुत गहराई से सोचता हैं। जैन धर्म एक बहुत ही प्राचीन, वैज्ञानिक धर्म है लेकिन फिर भी आज उसकी स्थिति वास्तव में ही बहुत चिंताजनक हैं।

भविष्य क्या होगा, सोचकर कभी-कभी रोंगटें खड़े हो जाते हैं। कहीं ऐसा न हो कि कहीं हम लुप्त प्रजाति में न गिने जाने लगे। मैं बहुत खतरनाक स्थितियां देख रहा हूं। शासन में प्रभाव कम हो रहा है, यूनिवर्सटियों में जहां – जहां जैन दर्शन का अध्यापन हो रहा है, वहां भी स्थितियां बहुत खराब हो रही हैं। समाज में टुकड़े अलग होते जा रहे हैं, बच्चे दूर भाग रहे हैं। ऐसी बहुत सारी समस्याएं हैं, लेकिन सारी समस्याएं की एक रामबाण चाबी है, वह है एकता का वातावरण बने, एकता की भावना विकसित हो। हम अपना धर्म जैन, इतना ही परिचय केवल हों। हम कैसे एकता की भावना जैन समाज के बच्चे-बच्चे में पैदा करें, इस बात को सोचना है। मनभेद न रहे, मतभेद रहते हुए भी, सिद्धांत भेद रहते हुए भी हम कैसे एक रहकर अपने धर्म की, हमारे तीर्थों पर खतरा मंडरा रहा है, बहुत सारी बातें हैं। इसलिये जरूरी बात है कि हम ये समझ लें कि उन्नति करने का पहला सूत्र है – एकता। बिना एकता और समन्वयता के जैन धर्म, जैन समाज उन्नति नहीं कर सकेगा। यह बुनियादी बात है। हमें इस पर कुछ प्रोजेक्ट बनाकर, अपने लोगों को समझाना चाहिए। कैसे हम अपने भाईयों का जरा सी बात-बात कर बहिष्कार न करें, हमें करना आता हो तो परिष्कार करें, बहिष्कार कदापि न करें। ये एकता नहीं होगी तो हमारे सारे उपाय उन्नति के व्यर्थ हो जाएंगे।
आचार्य श्री विद्यानंद जी बार-बार बोलते थे – कैची जैसा काम मत करो, सुई धागे जैसा काम करो। समाज को जोड़ों, जोड़ों, जरा भी मत तोड़ों। हमारे पास स्याद्वाद जैसा सुंदर सिद्धांत हैं, फिर भी हम ऐसी बातें करते हैं। दिगंबर कहता है हम पर्यूषण नहीं कह सकते और श्वेतांबर कहेंगे कि हम दस लक्षण नहीं कराएंगे। कोई कहेगा प्रतिक्रमण श्वेतांबर होता है, दिगंबरों में नहीं। कोई कहता है दिगंबर में आलोचना होती है।

उत्तम तप में महत्वपूर्ण तप है स्वाध्याय। अज्ञान सारी समस्याओं का मूल है और ज्ञान उनका हल है। प्रायश्चित के तीन भेद होते हैं – एक आलोचना, एक प्रतिक्रम और एक प्रत्याख्यान। ये दोनों सम्प्रदायों में हैं। सिद्धांतगत दोनों में है। वर्तमान में दोषों का परिष्कार आलोचना, भूतकाल के दोषों का परिष्कार प्रतिक्रमण और भविष्य काल के दोषों का परिष्कार प्रत्याख्यान कहलाता है। तीनों मिलकर तो बनकर प्रायश्चित बनते हैं। मैं जीवन में कभी जमीकंद नहीं खाऊंगा, ये होगा प्रत्याख्यान। मैं पापी हूं, हिंसा करता हूं, झूठ बोलता हूं, क्रोध करता हूं – ये अपनी निंदा हो गया आलोचना और मैंने आज तक बहुत हिंसा की, झूठ बोला, चोरी की, एक इन्द्रिय, दो इन्द्रिय जीवों को सताया, ये हो गया प्रतिक्रमण। तो तीनों चीजों को जोड़कर पूरी बात बनती है।

हमें जो लोग अल्पज्ञान से अज्ञान से समाज में कोई गलतफहमी फैलाते हैं, उनका समाधान करना है, सबको जोड़कर रखना है। ये जोड़ना कई स्तरों पर हो सकता है, चरणों में भी कर सकते हैं। जैसे पहले दिगंबर समाज कम से कम पूरी एक हो, श्वेतांबर समाज पूरी एक हो। दूसरे चरण में दिगंबर – श्वेतांबर एक हो। जैसे दिगंबर समाज में फिर भी कुछ एकता है। इतने टुकड़े नहीं है, भले तेरापंथ, बीसपंथ चलता है, कोई बुलेगा तारणपंथ है, मुनिपंथ है, कोई बोलेगा कांजीपंथ है। लेकिन वहां कोई फर्क नहीं है, सारे दिगंबर एक हैं, मिलकर हैं, उनमें कोई फर्क नहीं है। लेकिन श्वेतांबर समाज में तीन भेद उभरकर आये हैं। मैं बहुत अच्छे श्वेतांबर भाईयों से निवेदन करना चाहता हूं कि वो एक बार वहां भी एकता का वातावरण बनायें। कम से कम सरकारी स्तर पर, दूसरों के साथ बैठकर तो हम ऐसी बातें करें। ये भी बहुत बड़ा तप है। तप माने सहिष्णुता। हम दूसरे को सहन कर सकें। हमारे वाइसचांसलर कहा करते थे कि एक शब्द है रहन-सहन। इसका मतलब क्या होता है? इसका मतलब कि वही व्यक्ति इस दुनिया में रह सकता है, वह इस दुनिया में सह सकता है। जैसे हम परिवार में सहते हैं और रहते हैं, हम समाज में सबको सहते हैं और रहते हैं। भगवान महावीर की दो आंखें है, हम दो हाथ है, दो पैर हैं, ये सब मिलें और उत्तम तप धर्म का, दसों धर्म का, आठों कर्मों का, यदि किसी ने आठ कर्मों का स्वरूप समझ लिया, उनके आस्रव बंध- संवर – निर्जरा की प्रक्रिया समझ ली, यदि दस धर्मों का स्वरूप समझ लिया तो सारा काम हो गया। तप क्या चीज है? तप एक ऐसी अग्नि है, जो कर्मों को क्षण भर में भस्म कर देती है।

आचार्य श्री विमत सागरजी महाराज : आज इंदौर शहर में भ. महावीर देशना फाउंडेशन के माध्यम से जन-जन में धर्म का समाचार, धर्म की प्रभावना करने का भाव जागृत हुआ है। जिस प्रकार से जिस वृक्ष में बादल का पानी पहुंचता है, वह हरा भरा होता है और उसमें फूल आते हैं, फिर उसमें फल आते हैं और वहां का समाज आनंदित होता है। उसी प्रकार भगवान महावीर की देशना, सिद्धांत, वाणी जिस भव्य जीव के हृदय स्थल में पहुंचता है, जीवन में पहुंचता है, उसके जीवन की काया पलट हो जाती है।
जैनों की एकता, अखंडता हम अपने जीवन में एकता को बनाकर के जाएं, क्योंकि कलिकाल में एकता में ही शक्ति है। हम सब महावीर स्वामी के भक्त हैं, उनकी परंपरा निर्बाध रूप से चल रही हैं। जब तक दूसरे तीर्थंकर नहीं हो जाएंगे, तब तक भ. महावीर स्वामी की परंपरा चलती रहेगी। हमारे में मतभेद हों, लेकिन मनभेद न हो। हमारी परंपरायें अलग-अलग हैं लेकिन जब कोई बात होती है तो चारों संप्रदायों को एक होकर सामने आना चाहिए।

जब ये समाज पहले मंदिरों के नाम पर बंटा, पंथ के नाम पर बंटा, साधुओं ने संभाला, लेकिन आज साधुओं के नाम पर समाज बंट रहा, कौन संभाले?
आज हमारे समाज की विडंबना यही है। पद सबको चाहिये, पर काम किसी को नहीं करना। जिसे गद्दी मिल जाती है, वह पद नहीं छोड़ता। पद तुम्हें इसीलिये दिया गया है कि तुम मंदिर की व्यवस्था को संभाले। मंदिर विवाद की नहीं, धर्म का स्थान है। हर व्यक्ति धर्म पर, मंदिर पर कब्जा करना चाहता है। एकता की बात सब कोई करते हैं, लेकिन एकता के सूत्र में कोई बंधना नहीं जानता। मोतियों के बीच में जाने वाला मोती भी हार की कामत पा लेता है। मोतियों के बीच से निकलने वाला धागा में मोतियों की माला की कामत पा लेता है। जब तक वे मोती ज्ञान में समाज के श्रोतागण जब तक वह मोती धागे में बंधा रहता है, वह हार कहलता है, जब वह टूट जाता है, बिखर जाता है तो कोई पूछता नहीं है। समाज में एकता, अखंडता तब बनेगी, जब हम समाज के लोगों को लेकर चलेंगे। गरीब-अमीर सबको लेकर चलेंगे। जो साधु आता है, अपना-अपना ग्रुप बनाया, चला जाता है, जो साधु होता है, वह लाखों-करोड़ों का फंड दूसरे स्थानों पर जाता है। बताईये उस समाज का विकास हो कैसे? हमारे स्वयं के यहां संतों के लिए अच्छी व्यवस्थायें नहीं है और हम फंड अन्यत्र दे रहे हैं। आज संतवाद का जहर सबसे ज्यादा दुखदाई है। अगर ऊपर का बटन गलत लगा है, तो नीचे तक के बटन गलत लगते जाएंगे। पहले संघ आता था, लोग व्यवस्था करते थे और आज लोग पहले पूछते हैं कौन से संघ से साधु हैं, आदि-आदि। आज यदि समाज को नहीं संभाला गया तो आने वाले समय में धर्म के अस्तित्व को समाप्त होने में समय नहीं लगेगा। सारे समाज को एक बैनर के अंदर आना ही पड़ेगा। मंदिर अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन धर्म अलग-अलग नहीं है।

स्वाध्याय परम तप है, पर समाज के एकता में रखना महातप है। नि:स्वार्थ साधु ही समाज को एकता के सूत्र में बांध सकता है। आज विडंबना है कि जिनकी लोग सुनते है, वो बोलते नहीं है और जो साधु बोलते हैं, उनकी सुनते नहीं है। सुधरे तो सुधरे कैसे? कोई अपने को श्वेतांबर कहे, कोई तेरापंथी, कोई बीसपंथी कहे, कोई अग्रवाल कहे, कुछ भी कहो, लेकिन अंत में कहा कि सबके भगवान एक ही हैं। हम परस्पर में प्रेम, वात्सल्य का भाव रखें, हमारी अखंडता का नाजायज दूसरे लोग आज फायदा उठा रहे हैं।

आचार्य श्री देवनंदी जी : धर्म हमें तोड़ता नहीं, जोड़ता है। जैन धर्म में अनंत आत्माओं को एक सूत्र में पिरोकर सिद्धत्व के रूप में बैठा दिया और सिद्धत्व को वहीं प्राप्त कर सकता है, जो अपनी आत्मा को तपाते हुए, किसी भी समाज, परिवार से किसी प्रकार का संघर्ष, विवाद, मतभेद न करते हुए अपनी आत्मउन्नति के लिये तप करें, तप किसी को सताने के लिये नहीं है, किसी को कष्ट देने के लिये नहीं है। तप अपने बंधे हुए कर्मों को क्षीण करने के लिये हैं। तप चाहे किसी भी रूप में हो, हम इसे निरर्थक नहीं कह सकते।
यदि मिट्टी तपती है, तो वह अच्छा रूप ले लेती है, सोना भी तपकर अच्छा रूप लेता है, मेहंदी घिसती है तो अच्छा रंग ला देती है और इंसान तपता है तो वह एक दिन भगवान बन जाता है। ये हमारे तप करने का सबसे बड़ा उदाहरण है।

तप हमारी आत्मा को तपाता है। आत्मा में चिपके जो कर्म हैं उन्हें अलग करता है। जैसे दूध में घी है, लेकिन उस घी को प्राप्त करने के लिये तपाना होगा। दूध को हमें किसी बर्तन में रखकर ही तपाना होगा और जब बर्तन तपेगा, तो दूध तपेगा और तब जाकर मलाई निकलेगी और उससे तब घी निकलेगा। इसी तरह हमें आत्मा को तपाना है तो शरीर रूपी बर्तन है। इस शरीर को जब हम अनेक प्रकार के तपों से तपायें, तभी आत्म का उद्धार होता है। खाली वेश धारण करने से कोई तपस्वी नहीं है, हमारा सिद्धांत कहता है, जिन्होंने अपने संसार शरीर भोगों को त्याग कर दिया है, जिन्हें किसी प्रकार की विषय – कषायों की वांछा नहीं है, जो सांसारिक प्रलोभनों में फंसते नहीं है, ऐसे ज्ञानी ध्यानी साधुओं को तपस्वी रत्न कहा जाता है।

संयोजक श्री हंसमुख जैन, इंदौर : मंच पर आये सभी साधु-वृंद के चरणों में नमन करते हुए कहा कि आचार्य श्री विमत सागरजी का जो आशीर्वाद प्राप्त हुआ, उन्होंने बहुत ही जबर्दस्त प्रभावशाली रूप में अपनी बात रखें। प्रो. वीर सागरजी की जैन धर्म पर जबर्दस्त पकड़ हैं। उन्होंने जैन एकता पर जो बात कहीं, उसके लिये बहुत आभार। जैन एकता के अमिट रहने की शुभकामनाएं प्रेषित की।
(Day 14 समाप्त)