जीवों की हत्या के लिये नाना प्रकार के साधन जुटाने के लिये मनुष्य अपने कंट्रोल से बाहर हो गया, तो आज वह कोरोना जैसी त्रासदी में तड़प रहा है

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संयम से ही होता है धर्म मे प्रेवश
सान्ध्य महालक्ष्मी डिजीटल / 16 सितंबर 2021

संयोजक श्री जिनेश्वर जैन, इंदौर : भ. महावीर देशना फाउंडेशन द्वारा संचालित, संवर्धिक, प्रवर्तित धर्म के अंतर्गत 18 दिवसीय पर्यूषण महापर्व की आराधना और साधना का अवसर प्राप्त हो रहा है। यह मंच दिगंबर – श्वेतांबर दोनों परम्पराओं के पर्यूषण पर्व की आराधना करवा रहा है। हम सबका परम सौभाग्य है कि हम सब इसके माध्यम से प्रभु के द्वारा प्रारूपित जिनवाणी का रस पान कर रहे हैं। सभी सम्प्रदाय के वरिष्ठ संतों का आशीर्वाद और मंगल उद्बोधन हमें प्राप्त हो रहा है।

डायेरक्टर श्री मनोज जैन : मेरी भावना की पंक्तियां –
जिसने राग-द्वेष कामादिक जीते जग सब जान लिया
सब जीवों को मोक्ष मार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया
रहे सदा सत्संग उन्हीं का, ध्यान उन्हीं का नित्य रहे
उन्हीं जैसी चर्या में यह चित्त सदा अनुरक्त रहे।
नहीं सताऊं किसी जीव को,
झूठ कभी नहीं कहा करूं
परधन वनिता पर न लुभाऊं,
संतोषामृत पिया करूं।

इसके साथ ही उन्होंने कहा कि आज उत्तम संयम दिवस पर चर्चा होगी जिसका दो शब्दों में वर्णन आचार्यों ने कुछ इस तरह कहा है – उत्तम संयम पाले ज्ञाता, नरभव करे ले साता।

धर्म वही उत्कृष्ट और मंगलकारी है जहां,अहिंसा, संयम – तप विद्यमान है

उपाध्याय श्री रविन्द्र मुनि जी महाराज : उत्तम संयम : संयम का साधु के जीवन में ही नहीं साधारण व्यक्ति के जीवन में भी महत्व है। संयम के बिना साधना के मार्ग की हम कल्पना नहीं कर सकते हैं। साधना मार्ग पर चलने वाले को पग-पग पर संयम की आवश्यकता रहती है। पांच महाव्रत हो, पांच समिति, तीन गुप्ति, श्रावक के 12 अणुव्रत हो, वे संयम मार्ग पर बढ़ने के इतने सुंदर साधन आगमों के अंदर बिखरें पड़े हैं। बस हमें थोड़ा सा जानने, समझने और मनन- चिंतन करके आचरण में लाने की जरूरत है। संयमित व्यक्ति का आचरण लोगों के जीवन में प्रभाव पैदा करने वाला होता है। हम ऐसे साधु की कल्पना करें, जिसमें संयम न हो तो वह लोगों में आदर प्राप्त नहीं कर पाएगा। आदर्श श्रावक भी तब हो सकता है जब वह मर्यादाओं से बंधा हो, अनेक प्रकार के नियम उसके जीवन में हो।

वही धर्म उत्कृष्ट और मंगलकारी जहां अहिंसा, संयम और तप विद्यमान हो। मन, वचन, काया, इन्द्रियों का संयम आदि का जीवन में स्थान पाना ही चाहिए, बिना संयम के जीवन में कई प्रकार की विपरीत स्थितियां उत्पन्न होती है और जीव भटकता है। आचार्य भगवंतों ने कहा है कि आदर्श गृहस्थी वह है जो 7 प्रकार के कुव्यसनों का त्यागी है। शरीब, शिकार, वेश्यावृत्ति, जुआ आदि-आदि दुर्व्यसनों का प्रारंभिक स्तर पर त्याग करने का आदर्श बताया गया है।

साधु-साध्वी के लिये कहा कि वह ढाई हाथ आगे जमीन देखकर चलें, यह चलने का संयम ही तो है कहीं चींटी मकोड़ों के बिल हैं, हरी घार से, काई जमी हुई है, साधु को वहां नहीं जाना। साधु – श्रावक दोनों के जीवन में संयम कायम होना चाहिए। मेरा स्वास्थ्य भी अच्छा रहे और त्याग की वृत्ति में रहूं, यह सोचकर हम बहुत से संयम धारण कर लेते हैं। साधुओं का फर्ज है कि उन्होंने साधु जीवन को ग्रहण कर लिया तो अपने संयम को हमेशा मजबूत करें और उसमें शिथिलता न आने दें। अपने ज्ञान से वह आगे बढ़ने का काम जरूर करना चाहिए। दस धर्मों के माध्यम से हमें संयम प्राप्त होता है और हम इसे स्वीकार करते चलें।

जैन बहु न ला पाए तो भी उसे संस्कारित कर स्वीकार करो

पिछली चर्चा में बात आई थी हमारे समाज की लड़कियां हमारे समाज में विवाह करें या हमारे घरों में जैन परिवार की ही लड़कियां आए। यह सच है कि प्रथम श्रेणी में हमें इस प्रकार का प्रयास करना चाहिए। इसमें साधु अपनी मर्यादा में रहते हुए समाज का मार्गदर्शन करे और समाज का फर्ज है कि वे अपने बेटे-बेटियों का विवाह जैन परिवारों में करें।
लेकिन आज जो विश्व व्यापी परिवर्तन चल रहा है, खासतौर पर हमारे समाज का। हमारे बच्चे हास्टल में जाकर पढ़ते हैं और आज के सभी आधुनिक साधन आपके घरों में उपलब्ध हैं। तो आप अपने बच्चे को बहुत लंबे समय तक पढ़ने में रख नहीं सकते, तो संस्कार तो बालपन में दे देने चाहिए। प्रेम विवाह अन्य जातियों में विवाह को आप पूर्ण रूप से रोक नहीं सकते। 15-20 प्रतिशत आपके बच्चे अन्य जातियों में और अन्य जातियों की लड़कियां आपके घरों में आयेगी। मेरा कहना है कि अगर अन्य जाति की लड़की आपके यहां आ गई है तो उसका बहिष्कार न करें, ऐसे ही अगर आपकी लड़की दूसरी जाति में चली गई है तो दामाद का आना जाना बंद न करें, उन्हें प्यार से जैन धर्म में लगाना का प्रयास करें। अन्य लड़की बहु बनकर आपके घर में आई है तो आप अपने प्यार, स्नेह, अपनेपन से उसे णमोकार मंत्र सिखाओ, साधु-संतों के चरणों में लेकर जाओ, मंदिर स्थानक में लेकर जाओ, उन्हें संस्कारित करने का काम करो। अगर आप ऐसा नहीं करते हैं तो आप और ज्यादा अपने समाज का नुकसान करते हैं।

नये जुड़े न जुड़े लेकिन पुरानों से नाता न तोड़ो

20 साल पहले आचार्य श्री विद्यानंद जी का आर्टिकल पढ़ा था, उसमें उन्होंने कहा था कि किसी खानदान के अंदर दो पीढ़ी – तीन पीढ़ी – चार पीढ़ी पहले कभी किसी ने गलत काम किया, लोग उसका जातीय बहिष्कार कर दिया करते थे। विद्यानंद जी महाराज ने उसमें लिखा था कि मेरा ऐसा चिंतन है कि आप ऐसे परिवारों के साथ लंबे समय तक घृणापूर्ण व्यवहार न करें और उन्हें भी अपने साथ जोड़कर चलें।
आरएसएस के संघ प्रमुख रज्जू जी भैया की कोटेशन में कहा – नया व्यक्ति आपसे जुड़े या न जुड़े, लेकिन पुराना आपसे टूटना नहीं चाहिए। कई बार हमारा व्यवहार पुराने को तोड़कर उनको अलग कर देता था, तो ऐसी चीजों में हमें व्यापक सोच रखनी चाहिए और समाज को कम से कम क्षति हो, इन बातों का हमें विशेष ध्यान रखना चाहिए।
बिना ब्रेक की गाड़ी, बिना संयम का जीवन किसी काम का नहीं

आर्यिका श्री स्वस्ति भूषण माताजी : जैसे गाड़ी पर ब्रेक की जरूरत होती है, हाथी को अंकुश की, घोड़े को लगाम की जरूरत होती है, वैसे ही जीवन में संयम की आवश्यकता होती है। ब्रेक वाली गाड़ी मैं आप बैठ कर निश्चिंत होकर मंजिल तक पहुंच सकते हैं, हाथी पर अंकुश है तो हाथी जैसा बड़ा प्राणी भी एक छोटे से मनुष्य के बस में हो जाता है, घोड़े पर लगाम है तो यात्रा पूरी हो जाती है, ऐसे ही अगर हमारे जीवन में संयम हो तो मोक्ष मंजिल तक पहुंचा जा सकता है।

भगवान महावीर ने दो तरह के संयम बताया – प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम। एक इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम कहलता है। अपने मन-वचन-काय से पांचों इन्द्रियों को वश में रखना संयम कहलता है। संयम की आवश्यकता हर जगह है। बिना संविधान के देश नहीं चल सकता, बिना नियम के खेल नहीं हो सकते तो बिना नियम के धर्म कैसे हो सकता है? धर्म में भी प्रवेश तभी होगा, जब संयम की शुरूआत होती है।
अगर जीवन में अच्छा विचार आ जाए, अच्छा बोला जाए, अच्छा किया जाए तो स्वयं का जीवन भी अच्छा होता है और जिस वातावरण में आप रह रहे हैं उसे भी अच्छा बनाया जा सकता है। काया का संयम है व्रत-उपवास, साधना कीजिए।

मानव के असंयम ने ही दी है कोरोना जैसी महामारियां

महासाध्वी श्री मधुस्मिता जी महाराज: मन, वचन और इन्द्रियों का संयम कहलता है, जिसे हम जीवन के अंदर अनुशासन कहते हैं। उसे हम सिर्फ दीक्षा लेना, या संन्यास ग्रहण करना, ऐसा न लिखकर हम हर क्षेत्र में संयम को लेकर, जैसे नदी दो किनारों के अंदर बहती है, अगर वह किनारों में न बहे तो नदी नहीं कहलाती। वह दो किनारों में बहती है तो निश्चित रूप से सागर तक पहुंचती है। हमें नियम-संयम के दो किनारों के अंदर अपने जीवन सरिता को बहाना है और पूर्ण रूपी सागर तक पहुंच जाना है। हमारा जैन दर्शन संयम में, नियंत्रण में बड़ा विश्वास रखने वाला होता है। व्रत-नियम पाले ही जाने चाहिए। कोरोना जैसी महामारियां मनुष्य के असंयम के कारण ही आया है। छह काया मन वचन इन विषयों के अंदर जब वह अति प्रमाद में उसका दुपर्योग करने लगा, इन जीवों की हत्या के लिये नाना प्रकार के साधन जुटाने के लिये वह अपने कंट्रोल से बाहर हो गया, तो आज वह कोरोना जैसी त्रासदी में तड़प रहा है।

चो चर्चा हम कर रहे हैं, उस आचारण में लाना होगा

डायेरक्टर श्री अनिल जैन : आज का विषय बहुत विशेष है। उसे जानने के साथ-साथ यह भी समझना होगा कि भगवान कि हम जो आराधना कर रहे हैं, उसे आचारण और व्यवहार में नहीं लाएंगें तो अनुशासन अपने पर नहीं होगा। ये जो मंच है हमारे समक्ष, इस मंच पर इतने दिनों से चर्चा कर रहे हैं, पिछले वर्ष भी हमने 20 दिनों तक चर्चा की। अगले पांच दिनों में हम निश्चित रूप से चाहेंगे, इतने सारे निर्देश, सुझावों को लेकर हम किस तरह से आगे बढ़ायें। इस विचार का जन्म क्यों हुआ? वास्तव में आज जितनी भी संघ व संस्थायें बनती है वे कही न कही एक-दो संप्रदाय या चार संप्रदाय की समर्थक होती है। हमारे सामने ऐसे अनेक महान साधु है जो भगवान महावीर की देशना कर रहे हैं। यहां जितने लोग हैं, वास्तव में अपने आप में एक इंस्टीट्यूशन हैं, वो यदि चाहें तो यह संदेश लाखों तक पहुंचा सकते हैं कि आज हम एक नहीं दो नहीं लाखों लोगों तक पहुंच सकते हैं। हम पांच लाख लोगों तक कैसे पहुंचेंगे? जब तक संख्या को नहीं बढ़ाएंगे तब तक केवल कोरी बात करते रहे जाएंगें। कोरोना को धन्यवाद दें, कि कोरोना ने पिछले साल भी और इस साल भी आत्म अवलोकन करने का मौका दिया।

हम दूसरे के ऊपर उंगली ने उठायें, हम दूसरों के दोषों और निर्दोष का निरूपड़ न करें। सभी मान्यताएं एक ही दिशा में जाती है, वो है मोक्ष का मार्ग। उसे पाने के लिये भगवान महावीर की देशना उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी वह 2500 वर्ष पहले थी। हमें पर्यूषण पर्व की वजह से एक मौका मिला है कि जीवन को जीवंत कैसे बनायें? इसकी शिक्षा हमें भ. महावीर ने दी है। और शायद उसीका आचरण करते-करते हम देखें तो लिट्रेसी रेट हमारा 95 प्रतिशत और धनाढय वर्ग में हम 70 प्रतिशत हैं। हमारे पास आंकलन करने के लिये कोई विषय है तो हमें आंकलन ये नहीं करना चाहिए कि हमारे मंदिरों, धर्मशालाओं ने, इतिहास ने हमें क्या दिया। अगर हम इतिहास के पन्ने पलटे तो पायेंगे कि श्रमण संस्कृति का उदय के साथ देखें तो हमारे सामने केवल तीन ही धर्म – जैन, बौद्ध तथा आजीवक की चर्चा मिलती है। हम आजीवक का नाम नहीं जानते। सबकी कर्मभूमि, धर्मभूमि, क्षेत्र उ.प्र. और बिहार के बीच में मगध प्रांत में सीमित हो जाता है। उस प्रांत से निकला एक दर्शन खत्म हो गया। दूसरा दर्शन दस देशों में प्रभावशाली रूप से मेजोरिटी में है। तीसरा दर्शन 50 लाख है, लेकिन उसमें 95 प्रतिशत लोग साक्षर हैं। हम लोग गांव में क्यों नहीं रहते क्योंकि हम विकासशील हैं। हम लोग जहां विकास बन सकता है, वहीं जाकर रहते हैं और काम करते हैं। आज समाजवाद का सबसे बड़ा विषय है।

इस मंच पर चार डायरेक्टरों ने पूरे देश से 8 कोहिनूरों को चुना और हमने शपथ ली कि हम 18 दिवसीय पर्यूषण सिर्फ इस वर्ष ही नहीं, जीवन पर्यंत तक मनाएंगे। उसके बाद तीन सूत्रीय प्रस्ताव बनाए गए जिसकी चर्चा रोजाना फाउंडेशन के डायरेक्टर कर रहे हैं। आज हम में से प्रत्येक व्यक्ति को कुछ करके दिखाना होगा। इसी चीज के लिये यह मंच है। भ. महावीर देशना फाउंडेशन मात्र एक मंच है जो कभी महात्मा गांधी ने फिक्की जैसी चीज के लिये बिरला जी से कहा और आज वह एक विशाल रूप में मौजूद है। सीए के दो ही काम है – या तो किसी के खाते लिखते हैं या उसको सोल्यूशन उपलब्ध कराते हैं। सोल्यूशन भी नियम-कायदे समझकर किया जाता है। आज राजीव जी ने भी इस फाउंडेशन की स्थापना की है। इस मंच पर प्रत्येक व्यक्ति जरूर बतायें कि मैं क्या कर सकता हूं। ये न कहें कि आपने यह क्यों नहीं किया? हम तो ये कहेंगे कि हम करेंगे और करके दिखायेंगे।
भोगो ने हमें शारीरिक-मानसिक रूप से कमजोर बना दिया है

ब्र. जय कुमार निशातजी, टीकमगढ़ : हमें सभी मुनिराजों, आचार्यों, साध्वियों का आशीर्वाद लेते हुए जो खाई हमारे बीच में है, उसे पाटने के लिये विशेष पुरुषार्थ करना पड़ेगा। उत्तम संयम : जिसके द्वारा विषय कषायों को, उनके प्रभाव का क्षमन किया जाए, उसे संयम कहते हैं। लौकिक संयम में हम अपने जीवन की व्यवहारता को निभाते हैं। आंतरिक संयम से हम अपने आत्मा के विभाव-स्वभाव को संयमित करके, अपने विभाव-स्वभाव में आकर, जो कषाय प्राणि मात्र के प्रति दुर्भावना पैदा करती है, उन भावनाओं को अपने जीवन को अलग करने का प्रयास करना है। वर्तमान में आज हम भोगों में इतने लिप्त हो गये हैं, चाहे वह टीवी, मोबाइल हो, एसी हो, वे साधन हमारे जीवन के अंग बन गये हैं। इनके बिना जीवन अधूरा सा लगता है। इनसे हमारे इंद्रिय संयम की विराधना होती है, हमारे शरीर की शक्ति क्षीण होती है। शारीरिक -मानसिक क्षीण होने से हम साधना नहीं कर सकते हैं, अपने जीवन को तपश्चर्या से नहीं जोड़ सकते हैं। इसलिये भौतिक साधनों का प्रयोग अतिरेक में हो रहा है, इसकी ओर हमे विशेष ध्यान देना पड़ेगा। जो द्वितीय लहर आई थी कोरोना की, उसमें जैनों के लिये बहुत घातक सिद्ध हुई, उसका एक ही कारण था कि हम भोगों को भोगने में अत्यधिक लिप्त हो गये हैं, हम आंतरिक इम्युनेशन नहीं बड़ा पाए हैं।

प्राणी संयम : प्रत्येक संयमधारी प्रतिक्रमण का पाठ करते हैं, जिसमें एक इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक की बात करते हैं, लेकिन यह केवल शाब्दिक प्रतिक्रमण होता है। शाब्दिक प्रतिक्रमण से हमारे अंदर की स्वच्छता नहीं आ सकती। प्राणी संयम में जो हमारा मैत्री भाव है वह नारकी से लेकर सिद्ध भगवान तक होता है। जिन अरिहंत भगवान से हमें मार्गदर्शन मिला है, उनके प्रति समर्पण करना है। हमें ध्यान रखना है कि हमारे सामाजिक ढांचे की बहुत बड़ी विराधना हो गई है, वह चरमरा गया है। कहीं कोई सामाजिक अंकुश किसी पर भी नहीं है, सब अपनी मनमानी करना चाहते हैं और असंयमित होकर कुछ नया करने की कोशिश में अपने सिद्धांतों की अवहेलना कर देते हैं।

खूबियों का स्वागत, कमियों का आत्ममंथन करें

श्री पदम कुमार पाटनी, दुबई: हमें अपनी इन्द्रियों को कंट्रोल में रखना है। जिस तरह हम जिस देश में रहते हैं, उसका संविधान मानना पड़ता है, उसी तरह हमें अपने पर संयम रखना आवश्यक है। चाहे वह समाज का हो, देश का हो। हम लोग यहां पर 18 दिवसीय पर्यूषण पर्व मनाना दो साल से आरंभ कर दिया है। यहां सभी श्वेतांबर – दिगंबर अपने सभी पर्व एक साथ मनाते हैं। भ. महावीर का जन्म कल्याणक भी एक साथ मनाते हैं। हमें खूबियों का स्वागत करना चाहिए और कमियों का आत्ममंथन करना चाहिए। हमें जयजिनेन्द्र से ही अभिवादन करना चाहिए। हमें समाज के बच्चों को आईएएस, आईपीएस बनने में सहयोग करना चाहिए। हमारे बच्चों इन औदों पर बैठेंगे तो हमारे समाज की सुरक्षा हो सकेगी।

आचार्य श्री देवनंदी जी महाराज : सम्यकदर्शन को जिसे पहली सीढ़ी मोक्ष की कहा है, वह सम्यकदर्शन पूर्वक, सम्यकज्ञान के उपलब्ध होने के पश्चात् यदि मोक्ष मार्ग को प्राप्त करना है तो चारित्र की सीढ़ी पर चढ़ना होगा। चारित्र, संयम हमारे स्वर्ग का नहीं, मोक्ष का सोपान है। संयम शरीर का नहीं आत्मा का श्रृंगार है। अत: धर्मों में श्रेष्ठ और आत्म का उद्धारक कर्म निर्जरा का साक्षात कारणी भूत यह संयम धर्म आज जिसे पालन करने जा रहे हैं, यह हमारे 18 दिवसीय धर्मो में 13वां दिन एवं दसलक्षण धर्म में छठवां दिन है। अभ्यास करते-करते, एक-एक धर्म का भी अपने जीवन में विश्वासपूर्वक धारण करते हैं, धीरे-धीरे संयम का पालन करते हैं तो अपनी आत्मा का उद्धार कर सकते हैं।
संयम का मतलब है अपने जीवन में संतुलन रखना। काया, वचनों और मन का संतुलन। थोड़ा सा संयम खो जाता है तो उसका दुष्परिणाम हमारे परिवार, समाज पर, देश पर पड़ता है। आज जिस मानव काया को हमने पाया है, मैं समझता हूं कि यह मानव काया संसार को तरने के लिये नौका है। यह नौका मोक्ष मार्ग को पाने का अवसर है। जिन शरीरों को हमने मनुष्य के अलावा अन्य पर्यायों में धारण किया वह हमारे लिये किसी काम में नहीं आए बस कर्म बंध करत रहे।

मनुष्य में कोई विशेषता है वह उसके संयम की वजह से है। संयम जैनों को विरासत में मिला है, लेकिन यह सारी मानव जाति के लिये है। मनुष्य जन्म से नहीं, कर्म से महान बनता है। जैन धर्म में जात-पात परे रहकर सिर्फ नैतिकता, सदाचार का पाठ अगर किसी ने दिया है तो तीर्थंकरों ने, भगवंतों ने दिया है।
हमारे अंदर इंसानियत बैठी है। यदि मनुष्य को अच्छे गुरु की शरण प्राप्त होती है, वह संयम को स्वीकार कर लेता है, जीवन को संयमित बनाकर के संयम की भूमि में डालता है तो उसके अंदर का ईश्वरपना प्रकट हो सकता है। मनुष्य की पूजा उसके गुणों से होती है। आज एक मनुष्य अच्छा इंसान बन जाए तो वह परिवार में ही नहीं, समाज में, देश में, पूरे संसार में पूज्य बन सकता है। चारित्र, सज्जनता, गुण विश्व पूजनीय बना सकते हैं।

साधुओं को चित्र की जरूरत नहीं होती है, वे सिर्फ चारित्र के धनी होते हैं। जब कोई अगरबत्ती जलती है तो उसकी खुशबू चारों तरफ फैलने लगती है, इसी तरह जब कोई महात्मा अपने चारित्र से, संयम से अपने जीवन को सुशोभित करता है तो उसकी सौरभ चारों ओर स्वयं फैलने लगती है।
संयम मार्ग पर जब आरूढ़ होते हैं, धीरे-धीरे राग हमारा कम होता है, वैराग्य में हम अपने आपको डालते जाते हैं और वही वैराग्य हमारी संयम की दृढ़ता का काम करता है। इसीलिय महावीर ने आंतरिक शुद्धि के लिए अणुव्रतों, मूल गणों के लिये प्रदान किया। जैन श्रावक जन्म से कभी मद, मास, मधु का सेवन नहीं करता है, यह जैन धर्मावलंबियों के जीवन का सबसे पहला संयम है। संयम आशीर्वाद लेने का और देने का है। संयम हम सबको खुश रखने का मार्ग है। संयम की कार में बैठिये, कोई एक्सीडेंट नहीं होगा। यह दो कौड़ी का श्रृंगार पड़ा रह जाएगा बेकार, सम्यकचारित्र के बिना क्या कभी हो सकेगा उद्धार। इसलिये हम अपने जीवन में संयम को महत्व दे।

स्वामी रविन्द्र कीर्ति जी : सम्यकदर्शन सम्यकज्ञान सम्यकचारित्र तीनों की एकता ही मोक्ष दिलाने वाली है। सम्यकचारित्र की प्राप्ति, चारित्र को धारण करना एक ही पर्याय, मनुष्य पर्याय में मिलता है। मोक्ष को जाने का जो रास्ता है, वह बिना चारित्र के प्राप्त नहीं हो सकता और चारित्र और संयम में कोई अंतर नहीं है। चारित्र को धारण करना क्रम, क्रम से मोक्ष का मार्ग बनाता है।

आज हमारे देश में जैन समाज बहुत ही छोटी संख्या में है। जितने भी समुदाय भारत में है, उन सबमें सबसे अल्पसंख्यक जैन समाज है। आज हमें देश में अपने संगठन की आवश्यकता है। हम किसी भी धार्मिक मंच, सामाजिक मंच पर दिगंबर और श्वेतांबर जब एक हो कर बैठते हैं और वाणी एकसाथ निकलाते हैं, तो वह आनंद की अनुभूति देता है। आज हमें संगठन की आवश्यकता है। संगठन में वो ताकत है, कि हम कुछ भी कर सकते हैं। और संगठन हमें श्वेतांबर – दिगंबर के मतभेद को दूर करके, जो सामाजिक कार्यक्रम हैं, जहां पूजा-पद्धति, किसी अधिकार का विषय नहीं है, उसमें हम सब एक होकर के अपने संगठन का प्रदर्शन करें ताकि दिखाई दें कि हम संगठित हैं और एक हैं। दिगंबर जैन समाज के अंदर लगभग 1600 पिच्छीधारी संत हैं, जो चारित्र को धारण करे हुए हैं। आज हमारे मुनि लोग 28 मूल गुणों का पालन करते हैं। मैं स्पष्ट रूप कहना चाहता हूं कि अगर आज मोक्ष का साक्षात रास्ता नहीं खुला है, लेकिन संयम धारण करने की योग्यता इस मनुष्य पर्याय में ही है। हम छोटा सा नियम लेते हैं, वह संयम की कोटि में आता है। भारत देश त्याग मार्ग, संयम का देश है। इस देश में इतना त्याग लोग धारण करने की प्रेरणा करते हैं, उतना किसी ओर देश में प्राप्त नहीं हो सकता। भारत में ही त्याग और त्यागियों की पूजा होती है। बड़ा से बड़ा नेता, उद्योगपति आज संयम के सामने नतमस्तक होता है। हमें शक्ति के अनुसार घर में रहकर भी कुछ न कुछ संयम धारण करते रहे हैं, क्योंकि हमें मनुष्य पर्याय हमें अनेक भवों के पुण्यों के प्रताप से प्राप्त हुई है और हमने इसे बिना संयम के गंवा दिया तो हमें इष्ट की प्राप्ति नहीं होगी, आत्म कल्याण नहीं होगा।

(Day 13 समाप्त)