छोटे-बड़े, ऊंचे-नीचे, गरीब-अमीर, रोगी-निरोगी जो भी हमें देखने को मिल रहे हैं, वे सब कर्मों का प्रभाव है: आचार्य श्री देवनंदि जी

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भगवान महावीर देशना फाउण्डेशन 18 दिवसीय जैन पर्यूषण पर्व 2021 दर्शनावर्णीय कर्म निर्जरा – डे टू

सान्ध्य महालक्ष्मी डिजीटल / 05 सितंबर 2021
भगवान महावीर फाउंडेशन के द्वारा पूरे विश्वभर के जैन समाज की एकता, समन्वय, सौहार्द की दृष्टि से 18 दिवसीय पयूर्षण पर्व की आराधना का विशिष्ट आयोजन के द्वितीय दिवस का शुभारंभ करते हुए संयोजक अमित राय जैन बड़ौत ने कहा कि भगवान महावीर की अहिंसा, करुणा, सद्भावना और विश्व स्तर पर भ. महावीर का अनेकांतवाद जो कि विश्व शांति की रूप रेखा पूरे विश्व के सामने रख सकता है, लेकिन जैन समाज की अखंडता प्राथमिक रूप से हम लोगों के लिए आवश्यक है। भगवान महावीर देशना फाउंडेशन की स्थापना एकमात्र उद्देश्य यही है कि जैन समाज पूर्ण रूप से जिस तरह से आजादी आंदोलन के बाद पूर्ण स्वराज की कामना की गई, उसके बाद पूर्ण देश के अंदर एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की बात की गई तो भ. महावीर देशना फाउंडेशन जैन समाज का आज आह्वान करता है कि हम लोगों को पूर्ण रूप से एक होना है और जैन धर्म के पर्यूषण पर्व जो सर्वमान्य है। जैन धर्म का हर व्यक्ति चाहे वह उच्चस्थ है या फिर अपनी जो स्थितियां हैं, कस्बों-गावों में रह करके अपने समाज – परिवार क कार्यों को चला रहा है, वह अपने-अपने स्तर पर पर्यूषण पर्व मनाता है। भ. महावीर देशना फाउंडेशन ने 18 दिवसीय पर्यूषण के माध्यम से एक सिंहनाद पूरे जैन समाज का किया है। यह हर्ष का विषय है कि देशभर के हमारे वरिष्ठ संत, आचार्य, मुनिराज, विभिन्न सम्प्रदाय-उपसम्प्रदाय के मुनि वर्ग, त्यागी वर्ग और शीर्षस्थ जैन संस्थाओं के प्रमुख हैं, उन्होंने पिछले वर्ष 2020 में वर्च्युल मोड पर किये गये 18 दिवसीय पर्यूषण पर्व की बेहद प्रशंसा की। वर्तमान मेेंं आज दूसरे दिन (04 सितंबर 2021) के अंतर्गत हम ‘कर्म निर्जरा ज्ञानवर्णीय’ पर चर्चा कर रहे हैं।

ज्ञान हमारे पास अनंत है, किंतु वह ढका हुआ है

महासाध्वी श्री मधुस्मिता जी म.सा. : णमोकार महामंत्र के मंगल पाठ के पश्चात् महासाध्वीजी ने आज की सभा का शुभारंभ किया। अपने उद्बोधन में उन्होंने कहा कि आत्मा के अंदर जो संवेदना होती है वह सारी पारिणामिक भावों से होती है। उसके अंदर जब क्रोध, मान, माया, लोभ सारे विभाव है और विभाव में जब आत्मा एक रूप होने का काम करता है तो वह अज्ञानी हो जाता है। ज्ञानावर्णीय कर्म के कारण वह अज्ञानी हो जाता है। साधना मतलब स्वभाव में रहना। जब विभाव आकर हमको टकराते हैं, उस समय हम प्रभावित हो जाते हैं, वह हमारा अज्ञान होता है। तो ज्ञानावर्णीय कर्म के कारण हम ज्ञान का प्रकाश नहीं पा सकते हैं। हमारे पास ज्ञान का सागर है, लेकिन सारा ज्ञान हमारा ढका हुआ है, क्योंकि हम लगातार विभाव में जाते हैं, उस कारण से ज्ञानावर्णीय कर्म बंध जाते हैं। ज्ञान हमारे पास अनंत है, किंतु वह ढका हुआ है। जो लंगड़े, नेत्रहीन, गूंगे होते हैं, उन्हें ज्ञानावर्णीय कर्म का उदय होता है। ये ज्ञानावर्णीय कर्म दूर करना है, तो विभाव में जाने की आदत कम करनी होगी। यानी हमें क्रोध, मान, माया, लोभ नहीं करना चाहिए। ज्ञान को खोजना हमारी साधना है।

‘जैनम् जयतु शासनम् ’ कैसे आए?

डायेरक्टर अनिल जैन एफसीए : 18 दिवसीय पर्यूषण पर्व की इस प्रयोगशाला में कहा कि हमारी कंपनी फेडरेशन, एक चैम्बर्स आॅफ कामर्स के रूप में काम करेगी। यह एक ऐसी संस्था है जिसमें चुनाव नहीं होंगे, जिसका सदस्य बनना आवश्यक नहीं होगा। दूसरी बार हमें यह अवसर प्राप्त हुआ है जिसमें हम चार डायरेक्टर – श्री सुभाष जैन ओसवाल जी, राजीव जैन साहब सीए, मनोज जैन और मैं सभी का स्वागत करता हूं। यह मात्र एक संस्था नहीं है, व्यापार करना इसका उद्देश्य नहीं है, एक सामाजिक संगठन को उस परिवेश में तैयार करना जिसका प्रमुख उद्देश्य है जैनम् जयतु शासनम् कैसे आए और कैसे आ सके, उस पर चिंतन करके एक समीकरण आपके समक्ष रखा गया है। आज हम आराधना की प्रयोगशाला के रूप में दूसरी बार देख रहे हैं, जहां पर चतुर्विध संघ की स्थापना है, जहां हमें साक्षात बिना किसी भेदभाव के भगवान महावीर की देशना प्राप्त होगी, जिस देशना के हम सारे वाहक हैं। पयूर्षण पर्व के साथ भगवान के पंच महाव्रत – अहिंसा, सद्भवाना, सहिष्णुता, करुणा, कषाय मुक्ति के लिये पर्यूषण, प्रदूषण से मुक्त पर्यूषण। अनेक विसंगतियां समाज में है, जिन्हें दूर करना आवश्यक है, लेकिन बिना संस्थागत माध्यम से वो नहीं हो सकता। अखंडता और एकता लाने के लिये अनेक संस्थाओं को जन्म देकर हम एक बनते हैं, अनेक बनते हैं? अनेकांतवाद का सिद्धांत लेकर क्या वास्तव में हम अनेक हो जाते हैं? इन सभी का जवाब इस संस्था के माध्यम से आज पुन: आप सभी के सामने प्रस्तुत हैं।
ज्ञानावर्णीय कर्म बंध से बचो, स्वाध्याय करो

उपाध्याय श्री रविन्द्र मुनि जी म. : ज्ञानावर्णीय कर्म क्या है? 8 कर्मों के स्वरूप की चर्चा समग्र जैन समाज में प्राप्त होती है। सबसे पहली बात कि दुनियां में दो विचारधाराओं के लोग हैं, एक आस्तिक वादी और दूसरे नास्तिकवादी। आस्तिकवादियों की विशाल मान्यता है कि वो आत्मा, कर्म और कर्म के परिणाम अर्थात् फल को, जन्म-मरण को, स्वर्ग-नरक – मोक्ष को मानते हैं। इसके मूल में है आत्मा और कर्म। आत्मा है तो कर्म है और कर्म है तो आत्मा है। ठीक इसके विपरीत है नास्तिकवादी दर्शन के लोग जो आत्मा – कर्म को नहीं मानता। कर्म के फल को नहीं मानते और जन्म, पूर्व जन्म या पश्चात् जन्म को नहीं मानते, वे मानते हैं कि शरीर केवल वर्तमान तक ही सीमित है। लेकिन हम मानते हैं कि किसी नश्वर शरीर के अंदर आत्मा का निवास है और कर्म के अनुसार वह आत्मा अन्य गतियों की ओर प्रस्थान करती है। नास्तिक लोग आपके घर में भी हो सकते हैं जिनकी श्रद्धा आत्मा और कर्म में न हो। लेकिन जैन समाज में सदियों से जैन आचार्यों ने कर्मवाद पर बड़े-बड़े ग्रंथ लिखे हैं और आज भी कर्म सिद्धांत के ज्ञाता, एक से एक विद्वान संत हमारे समाज के अंदर मौजूद हैं। हमारे अंदर 8 प्रकार की कर्म प्रकृतियां कहीं गई हैं, जो आत्मा के गुणों में बाधक हैं। जैसे आत्मा में अनंत ज्ञान है, लेकिन उसको प्रकट होने में बाधा है, उसे रोकती है। अनंतदर्शन आत्मा में समाया है, अनंत चारित्र इस आत्मा में निहित है और इसकी अक्षय स्थिति है और यह अरूपी है, अगुरु लघु है और अनंत शक्ति का पुंज है। ये आत्मा की स्वभाविक विशेषता है। लेकिन ज्ञानवर्णीय कर्म के उदय के कारण ये सारी शक्तियां दबी रहती हैं। साधक साधना करते-करते, इन दबी हुई शक्तियों को मांजकर, धोकर इनको उजागर करता है। यही हमारी साधना का मुख्य कार्य है, जो हमें करना ही होता है।

ज्ञानावर्णीय कर्म ज्ञान को ढकता है, लेकिन नष्ट नहीं करता। बस केवल वह ढका हुआ है। इस कर्म के प्रभाव से व्यक्ति में मूर्खता आती है। इस कर्म के प्रभाव से कई बार जीव गूंगा, बोल नहीं पाता है, अटक-अटक कर बोलता है। भगवती सूत्र में गणधर गौतम स्वामी ने महावीर स्वामी से प्रश्न किया कि ज्ञानावर्णीय कर्म का बंध किस कारण से होता है?
तो भ. महावीर न कहा था कि जो ज्ञान का अपमान करता है, किताबों को बर्बाद करता है, ग्रंथों को घर में रखने में बोझ मानता है, जो ज्ञान और अज्ञानी का अपमान करता है, उपेक्षा करता है, विनय नहीं करता है और जिस ज्ञानी को ज्ञान आता है, वो अगर उसको छिपाता है, उसे आगे पढ़ाता नहीं है, बतलाता नहीं, छल-कपट की भाषा में इंकार कर देना भी ज्ञानावर्णीय कर्म के बंध का कारण है। एक कारण और है कि ज्ञान देने वाले गुरु के नाम को छिपाने से, किसी के ज्ञान प्राप्ति में विघ्न बाधा डालना, शोर मचाना, किताबें छुपाना, उनकी पढ़ाई में व्यवधान डालना वह ज्ञानावर्णीय कर्म बांधता है। छठा कारण है, जो अपने ज्ञान का दुर्पयोग कर रहा है जैसे भौतिक उपल्बधियों के लिये, अपने नाम के लिये ज्ञान का उपयोग करता है। इसलिये खाली समय में थोड़ा-थोड़ा स्वाध्याय किया करो। स्वाध्याय करने से ऐसे कर्म सिद्धांत की जानकारी होगी और जीवन में कर्म निर्जरा के लिये तत्पर हो पाएंगे।
जीवन का सदुपयोग ज्ञान के माध्यम से

गणिनी आर्यिका स्वस्तिभूषण माताजी : ज्ञानावर्णीय कर्म को सबसे पहले नं. पर क्यों रखा? आत्मा का जो प्रथम गुण है, वह है ज्ञान। इस गुण को ढकने वाला जो कर्म है, वो है ज्ञानावर्णीय – हमारे ज्ञान पर आवरण डालने वाला। यह कर्म ज्ञान नहीं होने देता। ज्ञान को उल्टा दिखाना यह मोहनीय का काम है, लेकिन ज्ञान को अज्ञान बनाना, ये ज्ञानावर्णीय कर्म का काम है। वर्तमान समय में ज्ञान से ही इंसान की कीमत है, ज्ञान ही हमारा मुख्य लक्षण है, ज्ञान ही हमारे सुख और दुख का कारण है। उल्टा ज्ञान हमारे सुख को दुख बना देता है।
तत्वार्थ सूत्र के छठवें अध्याय में ज्ञानावर्णीय कर्म के आस्रव की लंबी चर्चा है। उसका केंद्र बिंदु यह है कि वर्तमान में जो हमारा ज्ञान है क्षयोपशम ज्ञान है यानि आज है, जरूरी नहीं कि यह कल रहेगा। आज जितना ज्ञान हम बोल, सोच, लिख, कर पा रहे हैं, कल जरूरी नहीं कि हम याद रख पाएंगें। कल इस ज्ञान का क्या होगा पता नहीं है? इसलिये ज्ञान का जब तक क्षयोपशम बढ़िया हैं, तब तक इतने अच्छे कार्य कर लिये जाएं कि ज्ञान से ज्ञान की वृद्धि हो जाए। वो होता है स्वाध्याय के माध्यम से, जितना अधिक स्वाध्याय किया जाए, हम अपने जीवन का सदुपयोग कर सकते हैं। समिति को साधुवाद माता जी ने ‘बड़ा ही महत्व है’ कविता के माध्यम से कुछ इस प्रकार दिया-
भोजन में भात का, तत्वों में सात का, तीर्थंकरों में मुनिसुव्रतनाथ का बड़ा ही महत्व है। पंखें का झलने में, कच्चों में पलने का, भगवान के जमीन से निकलने का। पानी में खोलने का, पनिया में तौलने का, आपका जोर से बोलने का…, तुहकने का मति का, होने में अच्छी गति का और कार्यक्रम करने में भ. महावीर देशना समिति का बड़ा ही महत्व है।
आज रिवीजन की नहीं, प्रयोग, प्रूफ की आवश्यकता है

उपाध्याय श्री प्रवीन ऋषि जी म.: आज एक चुनौती है हमारे सामने। आप कोई भी साहित्य उठाकर देखें – सल्लेखना, आर्ट आॅफ डाइंग को लेकर देखें, वहां बौद्धों का, वेदों का पतंजलि का जिक्र मिलेगा, लेकिन भगवान महावीर का जिक्र नहीं मिलेगा। जिस निर्जरा की बात आप करने जा रहे हैं, मैं दूसरी निर्जरा की बात कर रहा हूं। योगी अरविंद ने एक बात कही थी, रसिक मेहता ने उनसे एक सवाल पूछा था कि जो आपके सुपर ह्युमन के जो कंसेप्ट हैं, वो जैन दर्शन के तीर्थसृष्टि श्लाका के साथ बहुत मिलती-जुलती हैं। और उसके उत्तर में योगी अरविंद ने लिखा था कि मैं सुपर ह्युमन को जैन दर्शन से स्वीकार कर सकता हूं, लेकिन उनका जो व्यक्तिवाद है, कि व्यक्ति का ही ज्ञान है, व्यक्ति का ही अज्ञान है। और वहीं पर जाकर बात अटक गई। आज बहुत सारी चर्चा कर रहे हैं हम केवलज्ञान, मतिज्ञान, अवधिज्ञान की कर रहे हैं, लेकिन जरा आज की जनरेशन को ध्यान में रखते हुए बात करों। आज का मेडिकल साइंस तुम्हारे सामने चैलेंज दे रहा है कि तुम्हारा ज्ञान भाव को क्यों नहीं जान पा रहा है? हमारा ज्ञान आचारण में क्यों नहीं आ पा रहा है? आतंकवाद, समाज के उलझन, क्या हम जानते नहीं इन समस्याओं का समाधान? जो अंधकार को समाप्त करे दें वह ज्ञान है, जो समस्याओं को समाप्त कर दें वह ज्ञान है। आज हमारा बिखराव, विवाद ये हमारी समस्याएं हैं। हम संवाद नहीं कर पाते, प्रेम से नहीं रह पाते, इन समस्याओं का निवारण क्या है? क्या केवल इंफोरमेशन, स्मृति को, रटे हुए को ज्ञान कहोगे? उसके लिये तो कम्प्यूटर काफी है, उसके लिये किसी ज्ञानी पुरुष की जरूरत नहीं है। साइंस कंटीन्यूस रिसर्च करता जा रहा है और हम रेपीटेशन करते जा रहे हैं और हम उसको ज्ञान कह रहे हैं। जो पहले नहीं जाना, उसको जाने, उसको ज्ञान कहा गया है। जो जाना है, उसको जानते चले जाओ उसको ज्ञान नहीं कहा गया। इसलिये साइंस प्रोगेसिव है, साइंस उस क्षेत्र में काम करता है कि आज तक जिसको नहीं जाना गया उसे जान रहे हैं। ‘

और हमारा सारा धार्मिक जगत, क्षमा करना, पर्युषण पर्व आ रहा है, मुझे आपने बुलाया हो सकता है आपने गलत व्यक्ति को बुला लिया है। हमारा सारा धार्मिक जगत रेपिटेशन में लगा है, नो रिसर्च। आज की समस्या जो सामने आ रही हैं, उस पर चिंतन नहीं है। जो पिछले पर्यूषण पर्व में बोला था, उस पर ही आज बोलना है। कौन आएगा सुनने। आज मानवीय संवेदनाओं पर बात करनी पड़ती है। किस तरह परमात्मा ने ज्ञान की चर्चा की। जो भाव को जाने, अस्तित्व को जाने, जो है उसका जाने वह ज्ञान है। जो नहीं उसको जान रहे वह अज्ञान है। प्रकाश हो तो ज्ञान है। ज्ञान प्रत्यक्ष है या परोक्ष है, कोई फर्क नहीं पड़ता, कसौटी सिर्फ इतनी सी है कि उसने मेरे जीवन का अंधियारा दूर किया है क्या? जो आज सवाल कर सकता है वह ज्ञानी हो सकता है। समाज ने सवाल पूछने बंद कर दिया। जो कहते हैं, उसे मानते चले जाओ। अगर सच में तुम्हें ज्ञानावर्णीय कर्म की निर्जरा करनी है तो आवश्यकता है एक प्रयास की। मैं महावीर देशना फाउंडेशन से आग्रह करूंगा कि आओ जो रिसर्च करता है, उनको ले आओ। जो नया उजाला दे सकते हैं, उनको ले आओ। आज युवा पीढ़ी की भाषा में जो बोल सकते हैं, उनकी समस्याओं का समाधान नहीं दे सकता, उसको ज्ञान नहीं अज्ञान कहते हैं। जो बर्निंग प्रोब्लम का सोल्यूशन नहीं दे सकता, वह अज्ञान है। आज बड़ी -बड़ी समस्याएं हमारे द्वार पर दस्तक दे रही हैं। तालिबानी ने घोषणा कर दी है कि विश्व में हर मुस्लिम की आवाज उठाने का हमें अधिकार है। यह दस्तक सुनाई नहीं दे रही है। सिंथेटिक मीट मार्किट में आ रहा है, उस पर हमारी क्या भूमिका होनी चाहिए? मेनका गांधी ने उसको सपोर्ट किया है, आने वाली पीढ़ी के सामने यह सवाल है कि सिंथेटिक मीट के विषय में क्या भूमिका लेनी है। मैं चाहूंगा कि महावीर देशना फाउंडेशन इन सवालों का जवाब खोजें। किस तरह से ज्ञान हो सकता है, व्याख्यान देने की बजाय प्रेक्टिकल करके खोजना होगा। आज रिवीजन की नहीं, प्रयोग, प्रूफ करने की आवश्यकता है। आज रिसर्च सेंटर खुलने चाहिए, संशोधन होना चाहिए, भगवान महावीर के 2550वें निर्वाण महोत्सव की तैयारी करनी है। उस तैयारी के लिए कुछ प्रज्ञ लोगों को लगाना चाहिए। नेताओं को काम देना चाहिए माहौल बनाने का, साइंटिस्ट को लगाना चाहिए प्लानिंग के लिए, उनसे ज्ञान लेंगे तो उससे सुंदर ब्लू प्रिंट बना पाएंगे।
अहिंसा दुनिया का शाश्वत धर्म है

प्रोफेसर पी सी जैन, पूर्व प्राचार्य – श्रीराम कॉलेज आॅफ कॉमर्स, (दिल्ली विवि) : आज मुझे लग रहा है मैं क्लास में बैठा हूं और जैन धर्म को समझने का मुझे मौका मिल रहा है। अपने अनुभव से बताता हूं कि गांव में एक कुंआ था, उस कुएं पर सारा गांव पानी भरता है। पानी भरने के लिये उस पर तीन – चार प्लेटफार्म बने हुए हैं जो हर समाज का अलग-अलग है। यह स्वभाविक बात है। जब तक उस कुएं में पानी होता है, सबके लिये वह पानी पीने लायक शुद्ध है, अमृत है। किसी को कोई शिकायत नहीं। जैसे-जैसे वह समाज के किसी आदमी के घड़े, बाल्टी में आता है तो वहां से प्रोब्लम शुरू हो जाती है। एक आदमी का पानी दूसरे से छू जाता है तो वह अशुद्ध मान लेते हैं। कुएं में फिर वह पानी डाल दो तो वह फिर पवित्र हो जाता है। मुझे लगता है हमारे जैन समाज की स्थिति भी ऐसी ही है। हमारा जो मूल है जैन धर्म, उस सबको हम मानते हैं चाहे हम किसी भी सेक्ट में हो, कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन जैसे – जैसे हम बाहर आते हैं, हम अपनी ब्रांडिंग शुरू करते हैं और फिर कन्फिलिक्ट शुरू हो जाता है, फिर ये कम्पीटीशन हो जाता है कि मैं उससे अच्छा हूं। अब प्रश्न उठता है कि वह मूल क्या है जिससे हम चलते हैं। गणधर भ. महावीर से प्रश्न करते हैं – भगवान दुनिया का सबसे शाश्वत धर्म कौन सा है? भ. महावीर कहते हैं अहिंसा दुनिया का शाश्वत धर्म है। गणधर दूसरा प्रश्न करते हैं कि भगवान अपना-अपना विश्वास लोग कहते हैं कि वो धर्म है। भ. महावीर कहते हैं ऐसा विचार, ऐसा चिंतन जो लोग करते हैं वो डोरमोटिस्ट होते हैं और वो बहुत हठधर्मी होते हैं, यह धर्म नहीं हो सकता। इसका मतलब है कि अहिंसा सब धर्मों का मूल है। अहिंसा होती क्यों है? इसलिये क्योंकि असमानता होती है। धर्म में एक कहता है मेरा विश्वास, मेरे विचार, मेरी संस्कृति ज्यादा अच्छी है, दूसरे की नहीं है। तो स्वभाविक है कन्फिल्किट तो होगा ही। महावीर फाउंडेशन ने इन सब लोगों को एक ही प्लेटफार्म पर लाने का प्रयास किया है। ये बहुत ही धन्यवाद के पात्र हैं।

इंजी. विकास छाबड़ा जैन (आईटी प्रोफेशनल, चारों अनुयोगों का विशेष अध्ययन, दि. परंपरा में प्रथम प्रतिमा धारण की है) : आधुनिक जीवनशैली के अंदर जो प्राचीनतम जैन धर्म की पद्धति, तपस्चर्या है, उसे अपनाने वाले इंजी. विकास ने कहा कि कर्म की जो प्रकृतियां हैं, स्थितयां अनुभाग हैं, जैनागम में जो डिटेल हैं वह जैन आगम में देखने को मिलती है। संसार में दो प्रकार के कर्म माने जाते हैं – पुण्य कर्म और पाप कर्म माने जाते हैं। लेकिन जैन धर्म में आठ प्रकार के कर्म माने जाते हैं। कल्पना को छोड़कर अगर आप वास्तविकता में आओ, तो इतना सब कहने वाला तब ही हो सकता है अगर उसने जाना है। एक परिणाम जीव के भाव का और उसके साथ में आठों के आठों कर्म डिस्ट्रीब्यूट हो जाती है। उदाहरण गोमटसार में दिया है। जिस प्रकार हम भोजन करते हैं वह रक्त, वसा, फैट, हड्डी में बदल जाता है, उसी तरह यहां पर जो हम बांधते हैं, वह एक बार में ही एक परिणाम के द्वारा आठों कर्म में डिस्ट्रीब्यूट हो जाता है। पहला कर्म ज्ञानावर्णीय नाम है ज्ञान + आवरण। ज्ञान नाम की चीज पाई जाती है जो हम अनुभव करते हैं। उस सैंस पर कमती बढ़ती जो दिखाई देती है वह ज्ञानावर्णीय कर्म है। ज्ञान का अस्तित्व स्वीकार करके हम ज्ञानावर्णीय कर्म की बात कर सकते हैं। एक टीचर पढ़ाता है और सभी शिष्य कम – ज्यादा ग्रहण करते हैं। इनके पीछे कुछ अदृश्य कारण हैं, उसका नाम है ज्ञानवर्णीय कर्म।
ज्ञानियों को विनय से सुनिये

आचार्य श्री देवनंदि जी : आज संसार भर के तमाम जीव, छोटे-बड़े, ऊंचे-नीचे, गरीब-अमीर, रोगी-निरोगी जो भी हमें देखने को मिल रहे हैं, वे सब कर्मों का प्रभाव है और इसी की वजह से नाना प्रकार की विचित्रताएं देखने को मिलती हैं। आज कोई ज्ञानी है, अज्ञानी है इसमें भी हमारे कृत कर्म ही हम पर प्रभाव दिखाते हैं। कुछ लोग शास्त्र पढ़ने के बावजूद, ज्ञानाभ्यास करते हुए भी कुछ विवेक जागृत नहीं कर पाते हैं, इसमें किताब नहीं, शास्त्र नहीं, गुरु नहीं, हमारे कर्म निमित्त हैं। जब तक कर्मों का हम क्षयोपशम नहीं करेंगे, तब तक ये सब कुछ भी काम नहीं करेंगे। अत: इस अज्ञानता को मिटाने के लिये आठ कर्मों में सबसे पहले जो जोर दिया गया है वह ज्ञानावर्णीय कर्म को दिया गया है। विद्वान सर्वत्र पूजा जाता है। हम अरिहंतों को पहले नमस्कार करते हैं, सिद्दों को बाद में नमस्कार करते हैं, क्योंकि अरिंहत परमेष्ठी सहशरीरी रहकर के भी जीवों को धर्म का उपदेश देते हैं, ज्ञान देते हैं, मोक्षमार्ग दिखाते हैं, वे हमारे लिये सबसे पहले पूज्य होते हैं। हम किसी व्यक्ति के रूप सौंदयर्ता को, धन संपदा के लिये, उच्च जातियता के लिये महत्व नहीं देते हैं, हम महत्व देते हैं गुणवत्ता के लिये और सबसे बड़ी गुणवत्ता है उसका ज्ञान। ज्ञान के ऊपर पड़ा पर्दा ज्ञानावर्णीय पर्दा है। आखिर यह पर्दा डालने किसने? हम इस पर्दा को खुद ही डालते हैं। सारे कर्म हम खुद ही करते हैं, आज यदि हमें ज्ञान प्रकट नहीं हो रहा तो हमने कभी न कभी ज्ञान पर पर्दा डाला है, ज्ञानियों का अनादर किया है, इसलिये आज हमारे ज्ञान पर पर्दा पड़ा है। इस ज्ञानावर्णीय कर्म की निर्जरा करने के लिये हमें ज्ञानियों की बातें विनयपूर्वक सुनना होगा। हमें अपनी मति सुधारनी चाहिए। मति अच्छी होगी तो श्रुत ज्ञान मिलेगा।

द्वितीय दिवस की सभा का समापन श्री नरेश आनंद प्रकाश जैन, दिल्ली ने किया।
(DAY 2 समाप्त)