इस बार मैं अपने दशलक्षण जानना चाहता हूं
दशलक्षण महापर्व आत्मानुसंधान का महापर्व है किंतु जाने अनजाने मैं इन महत्त्वपूर्ण दिनों को भी मात्र धार्मिक मनोरंजनों में व्यतीत कर देता हूँ ।
कई स्कूल दिखा कर बच्चों से ही पूछा जाय कि तुम्हारा प्रवेश किस स्कूल में करवाया जाए तो वह उस स्कूल का नाम बताता है जहाँ झूले और खिलौने ज्यादा थे और ज्यादा अच्छे थे । प्राइमरी कक्षा का कोई भी बच्चा पढ़ने के लिए स्कूल का चयन नहीं करता है । लेकिन हम बच्चे को स्कूल झूला झूलने और खिलौने खेलने के लिए नहीं भेजते हैं । हमारा उद्देश्य कुछ और होता है । खिलौने तो घर पर भी बहुत हैं और झूले तो पार्क में भी हैं।
वैद्य जी चाशनी के साथ दवाई खाने को देते हैं , उनका उद्देश्य दवाई देना है न कि चाशनी चटाना । अब किसी का अभ्यास कड़वी दवाई खाने का नहीं है और उपचार के लिए वह दवा बहुत आवश्यक है तो मजबूरी में चाशनी साथ में देना पड़ती है ताकि कड़वापन सहन हो जाये । चाशनी दवा के प्रभाव को कम ही करती है किंतु और कोई उपाय भी तो नज़र नहीं आता अतः देनी ही पड़ती है ।
पर विचार कीजिये कि अगर चाशनी ही मात्र चखी जाय और दवा का लेश भी न हो तो क्या रोग का उपचार हो सकेगा ? उपचार क्या उल्टा रोग और अधिक बढ़ने का भी भय हो जाता है ।
धर्म क्षेत्र में आकर भी मुझे मात्र झूले चाहिये,खिलौने चाहिए,चाशनी चाहिए । मैं कब तक बच्चा बना रहूंगा ? धर्म ,अध्यात्म और साधना की गहराई में डुबकी लेने और असीम आनंद लेने की कला मैं कब सीखूंगा ? अपने जीवन को कषाय मुक्त करके संयम साधना का अभ्यास मैं कब करूंगा ?
मैं वर्ष भर बहुत बोलता हूँ , मौन का अभ्यास कब करूंगा ? मैं वर्ष भर नौकरी,व्यापार करता हूँ , तो नियमित बंधी दिनचर्या से उकता कर कुछ दिनों की छुट्टी लेकर परिवार के साथ शीतल हिल स्टेशन तो चला जाता हूँ ताकि कुछ दिन अपने लिए जी सकें ,पर दशलक्षण में यह छुट्टी क्यों नहीं ले पाता हूँ ताकि अपनी शाश्वत आत्मा के लिए कुछ दिन आनंद से जी सकूँ ? ये दिन आम दिनों से भी ज्यादा व्यस्त क्यों हो जाते हैं ? आखिर मैं चाहता क्या हूँ ?
मुझे पूजन की पंक्तियों के अर्थ और भाव से ज्यादा संगीत की धुन क्यों पसंद है ? मेरा मन सामूहिक पूजन के आधीन क्यों है ? कहीं न कहीं मैं भीड़ में और उन मधुर धुनों में आत्मविस्मृति के अपराध को भुलाने की कोशिश करता हूँ । अपनी मदहोशी को मैं अपनी भक्ति मानता हूँ । मेरे अंदर कोई संगीत नहीं बजता इसलिए मैं भजनों से ज्यादा बाह्य वाद्यों के संगीत में डूबता हूँ ।आरती के समय मैं खुद को भूलकर मदहोशी में नाचता हूँ और उसे भक्ति कहता हूँ । खुदा के निमित्त से खुद को याद करने की भक्ति में कब सीखूंगा ?
धर्म के नाम पर दशलक्षण पर्व पर भी
मुझे वह व्याख्यान या प्रवचन पसंद आते हैं जिसमें सास बहू के किस्से होते हैं,चुटकुले होते हैं, मदारियों जैसी शब्दों की जादूगरी होती है। मुझे वह तत्त्वबोध कब होगा जब वीतरागता के पोषक वाक्यों को ही मैं प्रवचन मानूंगा । मैं प्रवचन में भी मनोरंजन की चेष्टा से कब निजात पाऊंगा ? स्वयं के प्रति और जिनवाणी के प्रति मैं गंभीर कब बनूंगा ? मुझे वीतरागी शास्त्रों के दिखने में कड़वे किन्तु हितकारी वचन कब सुहायेंगे ?
मैं बड़ा कब बनूंगा ? लौकिक क्षेत्र में तो मेरी बुद्धि बहुत चलती है और बहुत आगे निकल गया हूँ ,सफल भी हूँ । धर्म क्षेत्र में मैं प्राइमरी कक्षा में कब तक अटका रहूंगा ? कब तक खेल खिलौनों को ही पूर्ण ज्ञान और धर्म मानता रहूंगा ?
इन दस दिनों में क्रोध को कम करने , मान से दूर रहने,मायाचारिता से बचने और लोभ को घटाने का अभ्यास नहीं करूंगा तो कब करूंगा ?
आत्मा के सत्य को अभी नहीं देखूंगा तो कब देखूंगा ? संयम ,तप, त्याग का अभ्यास अभी नहीं तो कब होगा ? आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य से खुद को अभी नहीं निहारूँगा तो कब निहारूँगा ?
अभी ही तो समय है जब मुझे मंदिर में वीतरागता के दर्शन करने आना है न कि दर्शन देने । मुझे मंदिर आते किसी ने नहीं देखा तो क्या फर्क पड़ता है ? इस बार मुझे खुद के लिए मंदिर जाना है , खुद की कषायों के प्रक्षालन के लिए प्रक्षाल करना है , इस बार खुद को जानने के लिए पूजन पढ़नी है , इस बार खुद समझने के लिए स्वाध्याय करना है ।इस बार
खुद को देखने के लिए व्रत,उपवास और सामयिक करनी है न कि खुद को दिखाने के लिए । दशलक्षण मेरे कल्याण लिए आये हैं,मात्र लोकाचार या औपचारिकता
निभाने के लिए नहीं ।
औपचारिकता निभाते निभाते मैं खुद इतना बनावटी और कोरा होता जा रहा हूँ कि मुझे अपने वास्तविक स्वरूप का ही ख्याल नहीं रहता । मैं अब से साल भर समाज की सोचूंगा लेकिन इन दस दिनों में सिर्फ अपनी आत्मा की सोचूंगा । मैं अब मनोरंजन से ऊपर उठकर आत्मरंजन में डूबना चाहता हूँ । बस इसी तरह दश लक्षण धर्म अपनाना चाहता हूँ ।
– प्रो डॉ अनेकान्त कुमार जैन, नई दिल्ली