कर्मों का फल भव-भव मिलता है, क्रोध क्षमा का सिलसिला 10 भव चलता है- अच्छा करोगे तो स्वर्ग, बुरा करोगे तो नरक

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22 अगस्त 2022/ श्रावण शुक्ल षष्ठी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी
कई सोचते होंगे कि मरुभूति ने क्षमा पन दिखाया,तो जरुर देव बना होगा, पर नहीं दुष्ट दुराचारी के हाथों मरकर वह सल्लकी नामक घने वन में विशाल वज्रघोष हाथी के रूप में जन्म लेता है। वह दुष्ट हत्यारा कमठ भी, अज्ञानी तप से नरक तो नहीं जाता, पर उसी वन में जहरीला सर्प बनता है। कमठ की पत्नी वरुणा उसी वन में हथनी बनी, देखिये क्रोध और क्षमा का रिश्ता, क्या गजब है। हाथी-हथनी उसी वन में खूब क्रीड़ा करते।

हां, पूर्व भव के राजा अरविंद भी मिटते बादल को देख दीक्षा ग्रहण कर आत्म कल्याण के मार्ग पर बढ़ जाते हैं।
एक दिन जंगल में यमराज के समान क्रोध करता, चिंघाड़ता वज्रघोष हाथी सब कुछ नष्ट कर रहा था। घोड़े-बैलों को मारता अरविंद मुनिराज की ओर बढ़ा, जैसे उनको भी मारने के इरादे से वह बढ़ा, पर मुनिराज ने हाथ उठा पर, उसे रोकने को नहीं, आशीर्वाद दिया। वह ठिठक गया, तब वो मुनिराज बोले, तुम पूर्व भव के मेरे मंत्री मरूभूति हो मैं तब अरविंद राजा था, इतनी करूण बरसाने वाला अब क्रोध में क्यों? तूने कौन सा पाप कर यह हाथी का जीवन पाया, चिंतन कर, संयम का पालन कर, बस यह सुनते ही उसका जीवन बदल गया। अपनी प्रिय हथनी को भूल गया। सूखे पत्ते खाने लगा। शरीर जर्जर, इतना कि एक दिन पानी पीने गया, बस धसता चला गया, नहीं निकल सका दलदल से। क्यों न संन्यास धारण कर मरण को प्राप्त करूं, यही तो मुनिराज ने कहा था। उधर कमठ का जीव सर्प रूप में, उसी जंगल में, उसी नदी में बैठा था। बैर जन्म-जन्म नहीं छूटता, डस लिया, जहर उगल दिया, हाथी मर कर 12वें स्वर्ग में शशिप्रिय देव और कमठ सर्प से 5 वें नरक में पहुंचता है।
12वें स्वर्ग से मरूभूति वज्रघोष हाथी का जीव पुष्कलावती देश के विद्युतगति नामक राजा की महारानी विद्युतमाला के गर्भ में आकर अग्निवेग पुत्र बनता है। युवापन में ही एक दिन मुनिराज के दर्शन उपदेश से शिक्षा धारण कर पांच महाव्रत धारण किये।

योग धारण: हिमाचल की एक गुफा में आत्मध्यान में लीन, बाहर से बिल्कुल अलग। पर बाहर कुछ अलग हो रहा था। कमठ से कुरकट सर्प से नरक भोगता अब इसी गुफा के बाहर अजगर बना था। बस वह बैरी गुफा में गया और आत्मध्यान में लीन अग्निवेग मुनिराज को निगल गया। वे तो पहुंच गये 16 वें स्वर्ग में, 22 सागर की आयु में अनुपम भोग भोगता है।

अच्छा करोगे तो स्वर्ग, बुरा करोगे तो नरक

मरुभूति का जीव वज्रघोष हाथी से स्वर्ग, फिर अग्निवेग से स्वर्ग के बाद, अब वह अपर विदेह के पदमवेश के अश्वरपुर नगर में महाराजा वज्रवीर्य की महारानी विजया के गर्भ में आता है और नाम होता है वज्रनाभि, बनता है चक्रवर्ती- 6 खण्ड का अधिपति 96 हजार रानियां, 84 लाख हाथी, 18 करोड़ पवन वेग घोड़े, 84 करोड़ पैदल सेना,14 अनोखे रत्नों सहित अकूट संपत्ति जिसे 32 मुकुटबद्ध राजा, 16 हजार देव रोज नमस्कार करते, इतने वैभव का मालिक होकर भी धर्मध्यान नहीं भूलता। बस एक दिन दीक्षा ले 12 कठिन तप में लीन हो जाते हैं। हां उधर कमठ का जीव सर्प से नरक में, अजगर से फिर 6ठें नरक में, 22 सागर दु:ख भोगकर वह उसी वन में खूंखार भील बनता है जिसमें वज्रनाभि मुनिराज तप में लीन रहते। बस क्रोध के वशीभूत उसने एक ही बाण में उनके प्राण हर लिये। अगले ही क्षण वह मुनिराज की जीव मध्यम ग्रवेयक से अहमिन्द्र हो गया। 27 सागर तक सुख ही सुख, न काम वासना, न मल आदि, 27 हजार वर्ष बाद मानसिक आहार, और वह क्रोधी बड़ा भाई और नीचे गिरता है, कमठ से सर्प के बाद 5वें नरक में, फिर अजगर से 6ठें और भील से अंतिम 7 वें नरक में तड़पता है। यहां उसे पूर्व भव के भवों का चिंतन होता है जैसी करनी वैसी भरनी, बस भयानक ठण्ड में तड़पता रहता है।