23वें तीर्थंकर पारसनाथ जी प्रभु से भी श्रेष्ठ क्षमा किसकी? ‘उत्तम’ तो नहीं क्योंकि वह महाव्रती नहीं था, पर उसकी क्षमा, सबसे श्रेष्ठ थी

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30 जुलाई 2022/ श्रावण शुक्ल द्वितीया /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/
शीर्षक पढ़ कर चौक तो उठे होंगे, आप कि 23वें तीर्थंकर पारसनाथ जी को उत्तम क्षमा का श्रेष्ठ पर्याय माना जाता है। इससे महाव्रती से श्रेष्ठ क्या किसी और की हो सकती है क्या? इस पर आप कहेंगे किसी की नहीं। पर उससे श्रेष्ठ ‘उत्तम’ तो नहीं क्योंकि वह महाव्रती नहीं था, पर उसकी क्षमा, सबसे श्रेष्ठ थी। जब कोई इज्जत लूट ले, तब भी क्षमा कर दे और जब उसी के पास विनय के लिये जायें तो बदले में वो उसके प्राण ले ले। आज उसी श्रेष्ठ क्षमा के बारे में बताते हैं –

काफी समय पहले की बात है सुरम्य नाम का देश का था – अरविंद राजा और उसका चतुरमंत्री विश्वभूति, जिसके दो पुत्र -ज्येष्ठ कमठ ( कुपुत्र -दुष्ट मायावी) और छोटा – मरुभूति (अत्यंत बुद्धिमान, सरल स्वभावी)
बात थी कि ब्राह्मण रूपी समुद्र में विष और अमृत दोनों उत्पन्न हुए, जैसे पानी की बूंद सीप के मुख में मोती और सांप के मुख में जहर बन जाती है।

बड़े कमठ का विवाह वरुणा से और छोटे मरुभूति का रूपवती विसुंदरी-दोनों सुख से रहते, पर आदत कोई नहीं छोड़ता। सांप टेढ़ी चाल नहीं छोड़ता, हंस कभी टेढ़ी चाल नहीं चलता।
एक दिन दर्पण में विश्वभूति ने अपने सिर का एक बाल सफेद देखा, आ गया बुढापा, यह मृत्यु की छोटी बहन होती है, वैराग्य धारण किया और सुयोग्य छोटे बेटे मरुभूति को मंत्री का पद दे, आत्मकल्याण के मार्ग पर बढ़ गये। राजा सभी योग्यता के आधार पर स्वीकृति दी और इस नियुक्ति पर दुष्ट मायावी के कारण बड़ा कमठ वंचित रह गया। सब न्याय प्रीति से चलने लगा।

एक दिन अरविंद राजा ने मंत्री मरुभूति व सेनापति के साथ मिलकर राजा वज्रवीर्य पर चढ़ाई कर दी। तब मानो कमठ को मानो छूट मिल गई, हर को अपने को राजा बताता, अन्याय करता जनता बोल नहीं पाती। तभी छोटे भाई की रुपवती विसुंदरी का रूप देखकर काम की अग्नि में जलने लगा। छोटी बहू बेटी के समान, पर काम के अति वेग में तड़पते वन के बाग पहुंचा, चैन उड़ गया, तड़प बढ़ गई। उसके मित्र कालहंस ने तड़पन का कारण पूछा तो सब लोकलाज छोड़ कह दिया मुझे भोगने को विसुंदरी चाहिये। काल हंस ने बहुत समझाया, पर काम की अग्नि में फर्क नहीं पड़ा। बुझे मन से वह विसुंदरी के पास गया, कमठ की झूठी प्रशंसा की और कमठ दुखी है कहते हुआ कहा – जाओ वन में उसे ढ़ाढस बढ़ाओ, समझा दो। बेचारी चली गई, जेठ पिता तुल्य होता है, पर वहां तो डसने को नाग तैयार था। उसके शीलरूपी वृक्ष को तार-तार कर दिया दुष्ट पापी ने।

फिर राजा अरविन्द वज्रवीर्य क ो हराकर अरविंद सेनापति के साथ वापस लौटा। उसे कमठ की काली करतूत मालूम हो चुकी थी। राजा ने मंत्री मरुभूति को सब बताकर पूछा? क्या दंड देना चाहिये। पर वे भाई क्या देवता था, बोला किसी के पहले पाप को क्षमा कर देना चाहिये। राजा ने फिर दोहराया, पर वह इससे नहीं हिला, उस अरविंद को घर भेज राजा ने कमठ को बुलाया, बताया – देख, तेरी अक्षम्य नीच हरकत पर भी तेरा भाई कितना दयावान है, पर मैं तुझे सिर मुंडाकर, मुंह काला कर, गधे पर बैठाकर पूरे नगर में घुमाने का आदेश देता हूं। लोग धिककारते रहे कमठ को देख, पत्थर फेंके बालको ने। उसे देश निकाला दे दिया।

ऐसे न्याय किया, आज भी सब राम राज्य चाहते हैं, पर वहां कोई पाप नहीं करते, झूठ नहीं बोलते, चोरी नहीं करते, व्याभिचार नहीं, मिलावट नहीं, कम तौल या हेराफेरी नहीं, घरों पर ताला नहीं, माल पर प्रहरी नहीं, आज काम रावण के करते हैं, पर चाहते राम राज्य है, क्या गजब। हर दशहरा पर हजारों पुतले जलते हैं उसके, जिसने सीता को पाने की बस इच्छा की थी, छुआ तक नहीं, तब नहीं, आज गली मौहल्ले में उससे खतरनाक रावण हैं, उसके बाद भरत मिलाप होता, आज भाई-भाई को काट रहा है, जैसे कमठ ने मरुभूति के प्रति किया। मंत्री छोटे भाई के कहने पर राजा अरविंद कमठ को माफ कर सकता था, पर मंत्री के भाई के प्रति यह पक्षपाती निर्णय होता, राज्य में दुराचार फैलता। उचित दंड देने से भविष्य में अपराधों पर विराम लगता है।

उधर कमठ इस भारी दण्ड से दुखी-रोता भूताचल पर्वत पर पहुंचा जहां अज्ञानी तपस्वी कुतप से शरीर को क्षीण करते थे। कुछ तपस्वी उल्टे लटक रहे , कोई धूम्रपान कर रहा, कुछ आकाश को देख रहे, कोई भुजाएं आकाश की ओर उठा कर खड़ा। किसी के पास मृगचर्म, कोई पंचाग्नि तप, किसी की जटा बड़ी, तो किसी के नाखून, उनका एक मुखिया था। कमठ ने उसे प्रणाम किया, आशीर्वाद देकर उसे भी पाखण्डी तपस्वियों की तरह दीक्षा मिल गई। बस कमठ भी हाथों पर बड़ी शिला उठाकर ऐसे खड़ा हो गया, जैसे कोई सर्प फण उठाकर खड़ा हो। इधर मरुभूति को यह जानकारी मिली, उसने राजा से अनुरोध किया कि मेरा भाई भूताचल पर्वत पर घोर तपस्या कर रहा है,आपकी आज्ञा से उससे एक बार मिल आऊं? कौन सा तप, तापस के व्रत। तब राजा ने कहा – सर्प और दुष्ट दुराचारी से मिलना लाभमय नहीं होता। राजा समझाता रहा, पर मरुभूति जिद करता रहा।

पर उसकी कोमलता के आगे राजा भी झुक गये। कहा, ध्यान से जाना, ज्यादा बात न करना, सर्प, दुराचारी, दुर्जन के पास कुछ क्षण भी ठहरना योग्य नहीं होता। मरुभूति पहुंचा, कमठ को हवा में उठाये शिला के साथ देख बोला- हे! भाई मुझे क्षमा कर दो, मैंने तो राजा से विनय की थी, पर वे नहीं माने, तुम्हें दंड दे दिया। मुझे यह अच्छा नहीं लग रहा, यह कहते हुए दुष्ट कमठ के चरणों में नमस्कार को झुका। सज्जन अगर अपना गुण नहीं छोड़ता तो दुर्जन का दुर्गुण भी नहीं छूटता। उसका क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया। छोटा भाई झुककर प्रणाम कर रहा है, और दुष्ट कमठ ने हाथों में उठाई शिला उसके मस्तक पर गिरा दी। सांप को दूध पिलाने से भी हस्र वही होता है। नमस्कार के बदले मरुभूति को मृत्यु मिलती है। तब यह देखकर अज्ञानी तपस्वी उस पापी हत्यारे कमठ को निकाल देते हैं। फिर वह कमठ भीलों में मिला, चोरी करने लगा, पकड़ा जाता, खूब पिटता। उधर कई दिन जब मरुभूति नहीं लौटा तो राजा अरविंद नगर में आये, एक मुनिराज से पूछता है तो वह पूरी घटना बता देते हैं।

क्या सोच रहे हैं आप, मरुभूति की तरह क्षमावान बने या फ़िर कमठ की तरह, मन में कोई भी ध्रूतता, दुष्टता है तो उसको त्यागे, अच्छी संगति करें, अज्ञानता का तप उत्तम फलदाई नहीं है। यह था कमठ का असली चरित्र, न कि दस भव बाद पारस प्रभु के तप में उपसर्ग करने वाला/ वैसे एक साधारण मंत्री भगवान बनता है और एक दुराचारी, स्वर्ग में पहुंच कर भी क्रोध से भव-भव खराब करते हुए क्षमावान के चरणों में पड़कर अपना जीवन धन्य करता है।