अन्य क्षेत्र में किया हुआ पाप पुण्य क्षेत्र में आराधना करने पर संभवतः विनाश को प्राप्त हो भी सकता है किन्तु पुण्य क्षेत्र में किया गया पाप …

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1943

पहले धर्म क्षेत्र में हो अणुव्रतों का पालन

अन्यक्षेत्रे कृतं पापं पुण्यक्षेत्रे विनश्यति
पुण्यक्षेत्रे कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ||

अन्य क्षेत्र में किया हुआ पाप पुण्य क्षेत्र में आराधना करने पर संभवतः विनाश को प्राप्त हो भी सकता है किन्तु पुण्य क्षेत्र में किया गया पाप बज्र लेप के समान हो जाता है जिसका नाश करना बहुत कठिन हो जाता है |

यह सुभाषित अर्थ सहित प्रत्येक मंदिर,तीर्थ,स्थानक,धर्मशाला आदि सभी धर्म क्षेत्रों में अनिवार्य रूप से लिखवा देना चाहिए | पांच अणुव्रत हमारे जीवन के हर क्षेत्र में पालने योग्य हैं किन्तु उनका धर्म क्षेत्र में पालन अनिवार्य है | जहाँ से हमें इन अणुव्रतों की शिक्षा मिली है उस क्षेत्र में ही यदि उसका पालन नहीं किया जा सकता तो देश दुनिया को उसके पालन की शिक्षा देना व्यर्थ हो जाएगा |धर्म क्षेत्र में हम अणुव्रतों का पालन चाहें तो आसानी से कर सकते हैं यह समझकर कि जाने अनजाने कहीं हम बहुत बड़ा पाप तो नहीं कर रहे | आये हैं पुण्य के लिए और कहीं पाप की गठरी तो नहीं बाँध रहे |

हम आध्यात्मिकता का दंभ भर रहे हैं लेकिन नैतिकता भी नहीं पाल पा रहे हैं । धर्म क्षेत्र में भी हम प्रामाणिक क्यों नहीं रहना चाहते ?
धर्म के नाम पर हम अप्रामाणिकता को उचित क्यों मान रहे हैं ?

इन बातों पर हमें ईमानदारी के साथ विचार करना है । अपने लिए भी और अपनी गौरवशाली जैन समाज ,संस्कृति के लिए भी ।

अणुव्रत

अहिंसासमाणुभूइ अकत्ता परदव्वस्स खलु सच्चं ।
पर मम ण इ अस्सेयं अणासत्ति अपरिग्गहो बंभं च ।।

सभी जीवों में अपने ही समान अनुभूति अहिंसा है , स्वयं को परद्रव्य का अकर्त्ता मानना ही निश्चित रूप से सबसे बड़ा सत्य है ,पर पदार्थ मेरा नहीं है-ऐसा मानना ही अस्तेय है और अनासक्ति ही अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य है |

पांच पाप

ण मण्णदि सयं अप्पा जेट्ठपावं खलु सव्वपापेसु ।
तेसु य सादो उत्तं पापिस्स लक्ख‌णं जिणेहिं ।।

निश्चित ही स्वयं को आत्मा न मानना सभी पापों में सबसे बड़ा पाप है और जिनेन्द्र भगवान् ने पापों में स्वाद लेना ही पापी का लक्षण बताया है ।

हिंसा

शास्त्रों में कहा है आत्मा में राग-द्वेष की उत्पत्ति हिंसा है | अतः जब धर्म क्षेत्र में हम राग वर्धक कार्यक्रम करते हैं तब हिंसा का दोष लगता है | वहीँ पर छोटी छोटी बातों के लिए अपने साधर्मियों से द्वेष भाव करते हैं ,उनका अपमान कर देते हैं तब हिंसा का दोष लगता है | अपनी आराधना की क्रियाओं में भी अधिक से अधिक अहिंसा की भावना रखकर आराधना करना चाहिए | हम आत्म विशिद्धि और पुण्य संचय की भावना से पूजा अभिषेक भजन कीर्तन आदि कार्य करते हैं किन्तु कभी कभी उसमें ,सामग्री आदि में अशुद्धि के कारण हिंसा का दोष लग जाता है | कार्यक्रमों में अनुपयोगी अत्यधिक लाइट और रोशनी अनंत जीवों की विराधक हो जाती है | ऐसे स्थानों पर भी हमें अनर्थ दंड व्रत का प्रयोग अवश्य करना चाहिए | कोई नहीं है फिर भी अनावश्यक रूप से पंखा .एसी.कूलर लाइट आदि हम ही खुले छोड़ देते हैं इससे अनावश्यक बिजली,पैसा व्यय और हिंसा होती है | अहिंसाणुव्रत का सर्वप्रथम पालन क्या यहाँ नहीं होना चाहिए ?

झूठ

कभी कभी क्या अक्सर ही दूसरों को धर्म की प्रेरणा देने के लिए हम झूठ का सहारा लेते हैं और उसे उचित बतलाते हैं | जैसे १००-२०० साल पुरानी मूर्ती को हजारों साल पुरानी बताना ,चमत्कार की कोई झूठी कहानी बता कर धर्म की महिमा बताना | जिस क्रिया में कोई धर्म नहीं उसमें भी धर्म बता कर दान को उकसाना | कई स्थलों पर थोडा ज्यादा प्राचीन प्रतिमा को यह चतुर्थ काल की मूर्ती है-ऐसा कहते रहते हैं | जबकि इतिहास और पुरातत्त्व की दृष्टि से मात्र एक मूर्ती है जो ईसा पूर्व की है जो लोहानीपुर से मिली थी और पटना संग्रहालय में सुरक्षित है | किसी मंत्री या विद्वान् ने पहले ही आने की स्वीकृति नहीं दी ,फिर भी उनके नाम से पोस्टर छापना और भीड़ इक्कट्ठी करना ,फिर झूठ बोलना कि अचानक उनका फ़ोन आया कि वे आ नहीं रहे हैं | कार्यक्रम १० बजे से शुरू होना पहले से निश्चित है लेकिन उसे ९ बजे का कहकर प्रचारित करना |झूठी उद्घोषणायें करना करवाना | इस तरह की बहुत सारी बातें ऐसी भी हैं जिन्हें हम आम जीवन में उचित नहीं समझते किन्तु धर्म क्षेत्र में बिना किसी डर के बल्कि ज्यादा उत्साह के साथ करते हैं |कुतर्क देते हैं – धर्म की रक्षा के लिए यह जरूरी है | हमारे झूठ बोलने से यदि तीर्थ का विकास हो रहा है तो हम क्या गलत कर रहे हैं ? हम अपने लिए तो झूठ बोल नहीं रहे , धर्म के लिए बोल रहे हैं …आदि | सत्याणुव्रत क्या यहाँ के लिए नहीं है ?

चोरी

मंदिर निर्माण के लिए नकली कागज तैयार करवाना , सरकारी या श्रावक की जमीन पर कब्ज़ा करना,बिना टैक्स दिए बिना पक्की रसीद के सामग्री खरीदना,मजदूर मिस्त्री को उचित पारिश्रमिक न देना,जितना दान बोला उससे कम देना ,किसी और के दान को अपने नाम से बताकर यश लूटना,मंदिर कमेटी पर अपना प्रभुत्व जमाना,कब्ज़ा करना ,हिसाब में हेर फेर करना ,धर्म के धन का प्रयोग अपने व्यापार में करना, जिस मद में धन आया उस मद में उसका व्यय न करके बिना पूछे उसे अन्य मद में खर्च करना | दान दातार को उसकी कच्ची रसीद देना या कुछ भी न देना |कोई दान का अभिलाषी नहीं है ,जबरजस्ती उसके नाम की घोषणा करना | ट्रस्ट के पैसे को शेयर बाजार में लगवाना | कमीशन लेना | दूसरे की पुस्तक या निबंध को अपने नाम से छपवाना । इसके अलावा भी अनेक प्रकार की चोरियां धर्म क्षेत्र में धर्म के नाम पर होती रहती हैं | क्या इनसे बचा नहीं जा सकता ? अस्तेय अणुव्रत क्या यहाँ के लिए नहीं हैं ? प्रभावना के नाम पर हम जो यह सबकुछ करते हैं क्या यह धर्म की सच्ची प्रभावना है ? विचारना चाहिए | अचौर्याणुव्रत क्या यहाँ नहीं होना चाहिए ?

कुशील

पूजा पाठ के फल में इन्द्रिय सुखों की कामना करना, धर्म-तीर्थ क्षेत्र में आकर भी लौकिक फिल्में देखना ,आपस में काम-भोग की चर्चा करना,पंचकल्याणक जैसे कार्यक्रमों में भी रात्रि में फूहड़ कवि सम्मेलन करवाना,तीर्थक्षेत्रों में हनीमून मनाना,कार्यक्रमों में नयन मटक्के करना आदि अनेक कार्य हैं जो हम यहाँ भी वैसे ही करते हैं जैसे संसार के अन्य स्थलों में करते हैं |धर्मशाला का सादा शुद्ध भोजन नहीं रुचता तो बाहर की दुकानों में अशुद्ध और अभक्ष्य पदार्थ का सेवन करते हैं |धर्म तीर्थ मंदिर आदि में भी अमर्यादित वस्त्र पहन कर आते हैं | इसके लिए कुतर्क दिए जाते हैं कि यदि ऐसा नहीं होगा तो नयी पीढ़ी तीर्थ क्षेत्र आएगी ही नहीं आदि आदि | चाहे कोई भी तर्क-कुतर्क दे लीजिये लेकिन यह भी तो सोचिये यदि यहाँ भी ऐसा ही हो रहा है तब धर्म की शिक्षा देने के लिए तो कोई जगह बचेगी ही नहीं | धर्म तीर्थ क्षेत्र में हम पंचेन्द्रिय के भोगों से निवृत्ति सीखने आते हैं या उनकी पूर्ति के लिए ? ये हमें ही विचार करना है |हम व्यवस्थाएं नहीं बदल सकते लेकिन खुद को बचा तो सकते ही हैं न | क्या यहाँ ब्रह्मचर्याणुव्रत का प्रयोग नहीं होना चाहिए ?

परिग्रह

आसक्ति को परिग्रह कहते हैं | लेकिन संस्था ,मंदिर ,ट्रस्ट के पदों को अपना मानना ,उसके लिए लड़ना ,षडयंत्र करना ,उस पर जमे रहने के लिए तरह तरह के अनैतिक उपाय करना – यह सब परम परिग्रह है | जहाँ देह को भी अपना नहीं कहा , अपना खुद का मकान -जमीन आदि से भी आसक्ति को परिग्रह कहा वहां इन समाज की संस्थाओं में आसक्ति, वो भी लड़ाई झगडे के साथ ? क्या यह परिग्रह रुपी महापाप नहीं है ? जबरजस्ती कभी भी किसी भी धार्मिक सामाजिक पद पर नहीं बैठना चाहिए ,धर्म बुद्धि से तब बैठना चाहिए ,जब समाज द्वारा जबरजस्ती आपको बैठाया जाय और पद पर आकर भी बहुत ही निष्पक्ष भाव से ,अनासक्त भाव से ,ईमानदारी पूर्वक ,बिना किसी मद के नौकर बनकर सेवा करना चाहिए ,न कि मालिक बनकर और सदैव त्यागपत्र जेब में रखकर घूमना चाहिए | ट्रस्ट और मंदिरों में अनावश्यक रूप से अत्यधिक धन भी संचय नहीं होना चाहिए | दान लेते समय सिर्फ राशि की अधिकता नहीं बल्कि दाता का व्यवसाय और व्यसन सम्बन्धी जांच पड़ताल भी करनी चाहिए | न्यायोपार्जित धन ही सम्यक साधन है | साधन शुद्धि से साध्य भी शुद्ध होते हैं | जब हम मंदिर के लिए अधिक धन इकठ्ठा करते हैं तब यह सोचकर हम परिग्रह को उचित मानते हैं कि यह तो धर्म की वृद्धि के लिए है किन्तु हम यह भूल जाते हैं कि कमेटी में अशांति भी अन्ततोगत्वा अत्यधिक धन इकठ्ठा होने के कारण से ही होती है | क्या परिग्रह परिमाण व्रत की आवश्यकता यहाँ नहीं है ?


निष्कर्ष

जिन व्रतों को हमें घर में पालने की प्रेरणा दी जाती है ,उनकी परिभाषाएं धर्म क्षेत्र में जाते ही बदल क्यों जाती हैं ? जब कि श्रावक वही है | या हमें अपनी अतृप्त कामनाओं की पूर्ति का एक सतर्क बहाना धर्म क्षेत्र में मिल जाता है और जिन कार्यों को घर संसार में पाप कहा जाता है उन्हीं कार्यों को धार्मिक प्लेवर के साथ पुण्य का जामा मिल जाता है ? हम किसे धोखा दे रहे हैं ? समाज को ? धर्म को ? भगवान् को ? नहीं महोदय …सिर्फ खुद को धोखा दे रहे हैं | हम ऐसा नहीं करेंगे तो धर्म कैसे चलेगा ? तीर्थ कैसे बचेंगे ? …अब ये सब बहाने बाज़ी छोड़िये | किसी मनुष्य की हत्या करके उसकी मूर्ति चौराहे पर स्थापित करके उनका गुणगान नहीं किया जाता है | मनुष्य की जान बचाना प्रथम कर्त्तव्य है | धर्म की आत्मा ख़त्म करके उसकी अर्थी को कितना भी सजा लो वह शोभायमान कभी नहीं होगी | इसलिए हम सभी को अपना अहंकार त्यागकर सच्चे मन से ,नैतिकता और धार्मिकता के साथ बिना धर्म की मूल भावनाओं और अणुव्रतों की बलि चढ़ाये धर्म क्षेत्र की सेवा करना चाहिए | याद रखिये जैन धर्म के अनुसार भी आद हिदं कादव्वं अर्थात् आत्मा का हित पहले करना चाहिए ऐसा कहा है । आपके आत्महित की कीमत पर उसे भी आपकी सेवा मंजूर नहीं है।

मान की पूर्ति के निमित्त तो कभी भी सेवा नहीं करनी चाहिए । आपके गए बाद आपको कोई याद रखेगा इस भूल में भी रहना भूल ही है ।

गर हो शौक सेवा का ,जी भर के तुम करना ।
मगर कोई याद रखेगा ,इस गफलत में मत रहना ।।

– डॉ.अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली