यह तो आप सभी जानते हैं कि प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभनाथ जी का जन्म कल्याणक किस दिन आता है, हम सब मनाते हैं। जैसे मरुदेवी माताश्री ने 16 स्वप्न देखे थे, तो पता चला कि तीर्थंकर बालक को उनके गर्भ से जन्म होगा। इसी तरह महाराज ऋषभदेव जी को महारानी महादेवी को एक रात्रि में कई स्वप्न आये। 16 स्वप्नों के बारे में तो आप जानते ही हैं, ये कौन से स्वप्न थे और क्या फल था? क्या हुआ और किस दिन हुआ,ये सब भी जानते हैं।
यशस्वी महादेवी को रात्रि के अंतिम पहर में कई स्वप्न – 1. ग्रसी हुई पृथ्वी 2. सुमेरु पर्वत 3. चन्द्रमा सहित सूर्य 4. हंस सहित सरोवर 5. चंचल लहरों वाला समुद्र देखा। बस मंगल पाठ सुनते जाग गई। फिर माता मरुदेवी के समान, महारानी महादेवी भी मंगल स्नान आदि नित्य क्रिया कर राजमहल में महाराज ऋषभदेव के समीप योग्य सिंहासन पर बैठ, रात्रि में आये स्वप्नों का फल जाने की उत्सुकता प्रकट कर देती हैं।
महाराज ऋषभदेव अवधि ज्ञान से उन स्वप्न का फल बताते हैं – सुमेरु पर्वत का देखना यानि गर्भ में आने वाला पुत्र चक्रवर्ती होगा। सूर्य उसके प्रताप को और चन्द्रमा उसकी कांति रूपी सम्पदा को सूचित कर रहा है। हंस – कमल सहित सरोवर का संकेत – यह पुत्र उनके पवित्र लक्षणों से चिह्नित शरीर होकर अपने विस्तृत वक्ष:स्थल पर कमलवासिनी लक्ष्मी को धारण करने वाला होगा। पृथ्वी का ग्रसित होना संकेत है कि वह चक्रवर्ती होकर समुद्ररूपी वस्त्र को धारण करने वाली समस्त पृथ्वी का पालन करेगा। समुद्र संकेत दे रहा है कि वह चरम शरीरी होकर संसाररूपी समुद्र को पार करने वाला होगा।
आनंद से ओत-प्रोत हो गई महादेवी महारानी। और जानते हैं आप, कि भगवान ऋषभदेव के जन्म समय में जो शुभ दिन, शुभ लगन, शुभ योग, शुभ चन्द्रमा, और शुभ नक्षत्र आदि पड़ें थे, वे ही शुभ दिन आदि उस समय भी पड़े थे, अर्थात् उस समय चैत्र कृष्ण नवमी का दिन, मीन लग्न, ब्रह्मयोग, धन राशि का चन्द्रमा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र ही था। उसी दिन यशस्वी महादेवी ने सम्राट के शुभ लक्षणों से शोभायान ज्येष्ठ पुत्र का जन्म हुआ, वे कोई और नहीं भरत चक्रवर्ती बने। पिता-पुत्र का एक ही समय जन्म, दोनों भगवान। ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।
शायद आप में से अधिकांश नहीं जानते होंगे, हमारे देश भारत वर्ष का नाम इन भरत चक्रवर्ती पर पड़ा। उनके पूर्व भव क्या थे? उनको जानने से हमारे भावों में भी परिवर्तन हो, इसी भावना के साथ जानिए। कई भव पहले पूर्व विदेह में प्रभाकरी नगरी थी, और उसका राजा था अतिगृघ्न। वह विषयों में आसक्त रहता, इसलिये नरक बंध किया। नारकीय के बाद वह उसी नगरी के पर्वत पर सिंह बना, जहां तत्कालीन राजा प्रतिवर्धन अपने विरोध में खड़े भाई को जीतकर लौटा था। तब 30 दिन के उपवास के बाद मुनिराज विहितास्त्रव को आहार कराया, तब उस सिंह जीव ने भी देखा। अवधिज्ञान से जाना कि यही सिंह आगामी भवों को पार करता प्रथम तीर्थंकर का ज्येष्ठ पुत्र भरत बनेगा, उससे पूर्व उन तीर्थंकर की पूर्व पर्यायों में भी उन्हीं के साथ रहेगा, वज्रसंघ के समय उनका महामंत्री मतिकर बनेगा। सिंह को उपदेश दिया, 18 दिन तक आहार त्याग कर समाधि से शरीर छोड़ कर दूसरे स्वर्ग के दिवाकर प्रभ विमान में देव हुए।
बस यही तो कर्मों का विधान है, विषय भोग से नरक, आहारादि से उत्तम कुलकी प्राप्ति से मोक्ष के द्वार भी खुल जाते हैं।