बिना इंजन की ‘जैन’ रेल को पटरी पर वापस कौन लाए-अपने ही समाज में दहाड़ते बहुत है, पर जैसे ही घर के बाहर निकलते हैं तो मिमियाने की भी आवाज नहीं निकलती

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7 सितम्बर 2022/ भाद्रपद शुक्ल दवादिशि /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/
आज भारतीय रेल बढ़ते-बढ़ते राजधानी शताब्दी से तेजस तक पहुंच गई पर ‘जैन रेल’ आज महज मालगाड़ी बन कर रह गई, जो केवल दूसरों का माल ढोती है, पर आज तो वो भी बिना इंजन के पटरी से उतरी पड़ी है। यह तो आप जानते ही होगें कि 75 वर्ष पूर्व 1947 की 15 तारीख को जब भारत के एक टुकड़े को चीरकर पाकिस्तान के नाम से अलग कर दिया, तब भारत की 34 करोड़ की आबादी 584 छोटी बड़ी रियासतों में बंटी थी, जैसे हर कोई अपने को अलग-अलग राजा मान रहा था।

आज वही बंटा भारत, बढ़ते-बढ़ते विश्व की 5वीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है, और इसका सबसे बड़ा कारण है तब सरदार बल्लभ भाई पटेल की सबको एक करने की महत्वपूर्ण पहल। उस एकता की शुरुआत 75 साल पहले जो करी, उसी का उत्कृष्ट फल 75 साल बाद सबके सामने है। आज अमरीका, रूस, चीन जैसे विकसित देशों के समकक्ष खड़ा होने का सामर्थ्य रखता है। सोचिए, अगर यही भारत उतनी रियासतों में बंटा होता तो कितना बुरा हो गया होता।

आज 28 राज्यों और 8 केन्द्र शामिल प्रदेशों में अलग-अलग संस्कृति के बावजूद अखण्ड है भारत। पड़ोसी आंख नहीं उठा सकते, क्यों? केवल भारत की एकता, अखण्डता और कुशल नेतृत्व के कारण।

इसी सबको जैन समाज के आइने से देखते हैं। जैन समाज जो 2550 साल पहले एक था। वो बंटना शुरू हुआ, आजादी के 30-40 साल बाद तो फ्री फॉर आॅल हो गये। दिगम्बर श्वेताम्बर से बटंने का सिलसिला जो शुरू हुआ, वो आज भी बदस्तूर जारी है। यही कारण है बंटा हुआ जैन और नेतृत्वहीन समाज (तीनों स्तर पर) संत संघ, विद्वत वर्ग, श्रावक समाज एक चौथाई अर्थव्यवस्था से सहयोग करने वाला आधे से ज्यादा प्रमुख उद्योगों की शुरूआत करने वाला, गौतम अडानी के रूप में विश्व का तीसरा सबसे बड़ा अमीर भारतीय ही नहीं, जैन समाज से, 0.03 फीसदी की आबादी से प्रतिशत अनुपात मामले में सबसे ज्यादा प्रशासनिक अधिकारी, वकील, डॉक्टर, जज, सीए देने वाले जैन समाज के सितारे, आज गर्दिश में क्यों हैं? कभी इस पर चिंतन करने का समय भी निकाला है किसी ने ‘हां’ कहने वाले कई मिल जाएंगे तीनो स्तरों पर, किंतु सफलता ढाक के तीन पात।

सांध्य महालक्ष्मी ने गत वर्षों में सौ से ज्यादा संत, 50 से ज्यादा विद्वान और दसियों शीर्ष संस्थाओं से इस बारे में चर्चा की है, पर हकीकत के धरातल पर परिणाम ‘शून्य’।

आईये जानते हैं, हकीकती जमीन पर बिना इंजन की पटरी से उतरी जैन एक्सप्रेस की, जो काफी समय से यूं ही पड़ी है, उसे वापस पटरी पर लाकर दौड़ाने वाले इंजन की आज भी तलाश है।

1. बार-बार अदालत कहती है जैन अलग हैं, पर हम नहीं समझा पा रहे
पिछली एक सदी में देश की सर्वोच्च अदालत दस से ज्यादा बार फैसला सुना चुकी है कि जैन धर्म, हिंदू धर्म से अलग है। उसे हिंदुत्व की एक शाखा नहीं कहा जा सकता। जैन मंदिरों में प्रवेश, हिंदू मंदिरों की तरह सभी को नहीं मिल सकता। जैनों की अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया, या कहें काफी लड़कर उसे प्राप्त किया। पर आज हम उस अल्पसंख्यक को केवल अपने को कमजोर, सामर्थ्यहीन समझने से ही लगा रहे हैं जैनों का एक वर्ग। क्योंकि अभी तक उन्होंने अल्पसंख्यक का एक ही अर्थ समझा है सरकारी सहायता।

2. आधे से ज्यादा को नहीं मालूम कि वे जैन हैं
सांध्य महालक्ष्मी का यह शीर्षक आपको अटपटा जरूर लग सकता है, पर हमारी सरकारी अधिकृत गणना इसका साक्षी है। 2011 में सरकार ने जैनों की गिनती बताई 44,51,753 – जी हां, बस इतनी। क्या हकीकत में इतने ही बचे हैं हम? इस आंकड़े को स्वीकार कर सकते है क्या? कतई नहीं, क्योंकि आधे से ज्यादा जैनों को अपने नाम के पीछे जैन जोड़ना ही अच्छा नहीं लगता शायद। राष्ट्रीय स्तर की जैन कमेटियां हो या अनेक राष्ट्र संत, वो भी अपनी गिनती एक करोड़ के पार बताते हैं, तो फिर निश्चित ही आधे से ज्यादा जैनों को नहीं मालूम कि उन्हें सरकारी गणना में जैन लिखना है। क्या बदलेगें अपनी गलत सोच को?

3. अखण्ड जैन के कितने खण्ड-खण्ड कर दिये, किसी को नहीं मालूम
प्रथम तीर्थंकर से अंतिम तीर्थंकर तक सभी ने एक जिन शासन छोड़ा, वैसे तो आज भी हम 2548 साल बाद श्री महावीर स्वामी के जिन शासन में जी रहे हैं, पर उनको मानने वाले, उनकी नहीं मानते। आज हमारी पहचान जैन से नहीं, श्वेताम्बर, दिगम्बर, तपरगच्छ, मूर्तिपूजक, तेरापंथ, स्थानकवासी, बीसपंथी, तेरापंथी आदि ही नहीं बल्कि अपने-अपने संतों से पहचान होती है। अमुक संत के भक्त कहलाने में जैसे हमें गर्व महसूस होता है।

सांध्य महालक्ष्मी इस छोटे से समाज में यह तक दावा करती है कि आज इस समाज के कितने खण्ड-खण्ड कर दिये गये, कोई सही गिनती तक नहीं बता सकता। जब तक वह गिनती गिनना पूरी होगी, तब तक वो दो-चार खण्ड और आगे बढ़ गई होगी।

4. राजनीतिक शतरंज से बाहर के मोहरे
सबसे ज्यादा उद्योगपति, वकील, डॉक्टर, प्रोफेशनल देने वाले जैन समाज को राजनीति की शतरंज की बिसात पर अब किसी मोहरे के रूप में खड़ा ही नहीं किया जाता। बादशाह, वजीर, ऊंट, घोड़े, हाथी तो छोड़िये प्यादे लायक भी नहीं समझा जाता, क्योंकि बंटे हुये हैं। वोट का अंधा बैंक है, जो ‘जैन’ को वोट ही नहीं देगा इसकी गारंटी भी नब्बे फीसदी है। अब तो राजनीति में उम्मीदवारी दूध में पड़ी मक्खी की तरह देखा जाता है, जैसे देखा, पहले निकाल फेंका। महज सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी बनकर रह गया है जैन समाज।

5. बाहर चुप्पी, घर में लड़ते, कहलाते घर के शेर
इतिहास गवाह है, और वर्तमान दिख रहा है, किस तरह हमारे तीर्थों को लूटा, बदला जा रहा है, इतनी बड़ी गिनती है, कि जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। घर के शेर क्यों कहता है सांध्य महालक्ष्मी, इसलिये कि अपने ही समाज में दहाड़ते बहुत है, पर जैसे ही घर के बाहर निकलते हैं तो मिमियाने की भी आवाज नहीं निकलती। हां, यह कड़वा सच है, जो किसी से छिपा नहीं है। शिखरजी, केसरिया जी, शिरपुर ऐसी बहुत बड़ी गिनती है, पर घर के शेर जब बाहर आते हैं तो लड़ना तो दूर, दहाड़ना भी बंद कर देते हैं। गिरनार, केसरिया जी आदि किसी से छिपे नहीं है। चैनल महालक्ष्मी ने आवाज उठाई तो उसे ही चुप रहने की सलाह कुछ जैन कमेटी देने लगी।

6. अब कैसे एक हो और एयरकंडीशंड डिब्बों का कौन हो नेता
हां, यह तो सब मानते हैं कि इस रेल में जैनों को साधारण डिब्बे का दर्जा नहीं दिया जा सकता, अनमोल जैन संस्कृति व विरासत है इसका कारण और ये एयरकंडीशंड डिब्बे भी राजधानी की तरह तीन तरह के कोचों में बंटे हैं।

पहला-फर्स्ट एसी: जी हां, इसमें हमारे वंदनीय संत संघ आते हैं। आज भी गर्व है कि पूरा जैन समाज इन्हीं के कहने पर चलता है, अगर यह चाहे तो जैन समाज को एक होने में 24 घंटे भी नहीं लगे। पर इस फर्स्ट एसी कोच में हर कोई अपनी सीट को ही पूरा डिब्बा समझने की कोशिश कर रहे हैं। कई ने तो अपने-अपने धाम रूपी सीटों पर कब्जे तक कर लिये हैं, परमानेंट रिजर्वेशन की भूल में। उन सीट पर कोई दूसरा बैठ नहीं सकता। आज पूरा जैन समाज इनकी खण्डता का नुकसान भोग रहा है।

दूसरा- सेकेंड एसी: इस कोच में आज वे भी जुड़ जाते हैं, जो मंदिर में पूजादि और घरों में शादी फेरे, मुहूर्त कराते हैं। कारण विद्वता का स्तर ही इतना गिर गया है। आज उसकी पहचान, उसको मिलने वाले लिफाफे से होती है, जैसे संत की भक्तों की गिनती से।

आज तो भारी लिफाफे से इन विद्वानों को शास्त्रों को अपने अनुसार शस्त्र बनाना भी बहुत सहज हो गया है। ‘लिफाफे’ के बारे में इनका यह कहना भी ठीक है कि जब फर्स्ट एसी वाले धाम बना सकते हैं, तो क्या सेकेंड एसी वाले कोठी भी नहीं बना सकते।

आज विद्वानों की कमेटियां भी बेमानी हो रही है। बेलगाम अनुशासन हीन होता श्रमण-श्राावक समाज, इनकी ढील का बहुत बड़ा कारण। आज ये शास्त्र की कम, संत की भाषा बोलने मेें ज्यादा माहिर है। शास्त्र की एक गाथा के दस अर्थ लिफाफे, के अनुसार निकल सकते हैं, पर किसी का नेतृत्व नहीं स्वीकार कर सकते।

तीसरा-थर्ड एसी: सबसे ज्यादा भीड़ इसी कोच में है। 95 फीसदी, जिनमें से एक दो फीसदी इनके नेता बन गये हैं, दूसरे की नहीं सुनते और अपनी सुनाने में कोई कमी नहीं छोड़ते। अपनी लकीर बड़ी करने की बजाय दूसरे की लकीर छोटी करना बखूबी जानते हैं। इस बारे में इनका कोई सानी नहीं। इनकी जवाबदेही किसी को नहीं। किसी से बनती नहीं, तो अपनी अलग कुर्सी बनाते हैं और उस पर चिपक जाते हैं। और शेष 90 फीसदी को किसी से कोई मतलब नहीं, जैसा संत कहें, वे उसी ओर झुक जाते हैं। ‘स्वाध्याय’ रूपी पाठशाला में ना पढ़ा यह वर्ग शास्त्र को जैसा पढ़ाओ, वैसा पढ़ लेता है, क्यों कि काला अक्षर भैंस बराबर से ज्यादा हम कुछ नहीं जानते।

6. चाह मोदी-मोदी सब बने, पर उनकी नहीं कोई सुने
आज हर कोई अपनी कुर्सी पर मोदी है। संत वर्ग तो राजा है ही, अपनी-अपनी रियासत के, उनके शिष्य भी अलग रियासत, उनके सामने ही बना लेते हैं और महाराजा कुछ नहीं कर सकते। विद्वत वर्ग तो आज टूटा हुआ पुल बनकर रह गया है, जिसे कोई पूछता ही नहीं।

अब बचा श्रावक वर्ग और इसमें मौसमी-बेमौसमी घास की तरह उग रही समितियां अपनी-अपनी महत्वकांक्षाओं में जी रहे हैं। सारे मोदी हैं, पर अपनी इच्छाओं की तिलांजलि नहीं देना चाहते।

आज हमारे बिखरने, टूटने, लुटने-पिटने का सबसे बड़ा कारण है नेतृत्वहीनता। पर इसे समझे कौन, तिलांजलि मैं क्यों दूं? आज हमारे समाज में सारे नेता हैं, अपने-अपने कुएं के। समुद्र की विशालता किसी ने देखी नहीं, इसीलिये अपने कुएं को ही समुद्र मान बैठे हैं। अगर महावीर जिन शासन को फिर बुलंदी पर लाना है तो उत्तम मार्दव से उत्तम त्याग धर्म को आत्मसात करना होगा। परिग्रह रूपी ऊंची महत्वकांक्षाओं को शून्य करना होगा। पद और मद की इच्छाओं पर संयम रूपी ब्रेक लगाना होगा। दूसरे के नेतृत्व को हृदय से स्वीकारना होगा। हर काम में अगुंली डालने, दूसरे की टांग खींचने, अपनी ही पीठ थपथपाने, मूंछ मरोड़ने से बाज आना होगा।

जिस दिन हमने एक झण्डे के नीचे एक नेतृत्व की बात मानना शुरु कर दिया, वह दिन नई सूर्य की स्वर्णिम किरणें जैन समाज को 2550 साल पहले वाले जिन शासन पर पहुंचा देंगी। हां, यह हो सकता है हम पुन: 40 करोड़ ना हो पायें पर जैनत्व को मानने वाले 400 करोड़ जरूर होंगे।

क्या तैयार है हम झुकने के लिये, दूसरे का नेतृत्व स्वीकारने के लिये?
आपको अप्रिय लगा हो तो हृदय से क्षमा!
– शरद जैन –

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यह पूरा लेख तथा और भी अनेक चिंतन हेतु लेख 36 पृष्ठीय सांध्य महालक्ष्मी के कलरफुल क्षमावाणी अंक 2022 में पढ़िए
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