आचार्य महाराज की आत्मीयता के साथ -साथ आत्मानुशासन की शिक्षा- मुनि श्री क्षमा सागर

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नैनागिरी (1982)
मुनि दीक्षा के लगभग दो माह बाद ही मैं व्याधिग्रस्त हो गया| आहार में मुश्किल होने लगी| आहार लेते ही वमन हो जाता था| तब आचार्य महाराज स्वय आहार-चरया के समय उपस्थित रहते थे| दूर खड़े रहकर भी उनकी अनुकंपा निरंतर बरसती रहती थी| एक दिन आहार प्रारम्भ होते ही अंजली में बाल का संदेह हुआ| सभी ने एक स्वर् में कह दिया, बाल नही है| शायदा अस्वस्थता देखकर लोगों ने झूट बोला था| मैने उन संवेदनशील निर्णायक क्षणों में जैसे ही समीप खड़े आचार्य महाराज की ओर देखा तो वे तत्काल दूसरी ओर देखने लगे|

मुझे लगा, मानो वे कह रहे हों कि ” तुम महाव्रती हो| निर्णय तुम स्व्यं लो| अयाचक सिह-व्रत्ती रखो|”

मुझे निर्णय क्या लेना था, बाल था, सो मैं अन्तराय मानकर बैठ गया| वे मुस्कराये ओर खूब आशीर्वाद देकर चले गये| पूरा दिन अस्वस्थता के बावजूद भी शांति से बीता|

आत्मीयता के साथ -साथ आत्मानुशासन की शिक्षा देकर आचार्य महाराज ने हम पर असीम उपकार किया|

-आत्मान्वेषी
(मुनि श्री क्षमा सागर)