#मोहनीय_कर्म – सर्वाधिक प्रबल और शक्तिशाली- आत्मा के प्रबल शत्रु, कर्मों का सम्राट, नाच नचाता है, पीड़ित करता है

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कर्म जैसे करोगे, फल भी वैसे मिलेंगे। नीम बोने वालों को आम कैसे मिलेंगे।।

भगवान महावीर देशना फाउण्डेशन 18 दिवसीय पर्यूषण पर्व 2021 का 5वां दिवस
मोहनीय कर्म निर्जरा
सान्ध्य महालक्ष्मी की EXCLUSIVE प्रस्तुति

सान्ध्य महालक्ष्मी डिजीटल / 08 सितंबर 2021

पांचवें दिन की सभा का शुभारंभ संयोजक श्री हंसमुख गांधी जैन इंदौर ने कहा कि जैन एकता और समन्वय का ये अनूठा आयोजन ज्यों आज की महत्ती आवश्यकता है, फाउंडेशन ने ये आयोजन अपने हाथ में लिया और आज समस्त भारत में, ऐसी प्रशंसा हो रही है, कि जिस आवश्यकता थी, वह फाउंडेशन ने अपने हाथ में लिया है। हम श्वेतांबर नहीं, दिगंबर नहीं, केवल जैनी है, फिर भी कुछ-कुछ जगहों पर हम कहीं आमनायें, पंथ में, गछ में, साधुओं में कहीं विभाजित हो जाते हैं लेकिन ये सब व्यक्तिगत है, इसके ऊपर जो महावीर की देशना है वह केवल अहिंसा, जियो और जीने दो, अनेकांत, स्याद्वाद ही सिखाती है और यह विश्व में सर्वोत्तम है। आत्मा से मिलने का एकमात्र यह तरीका है, और वहीं हमें एकजुट होने में सहायक बनेगा। इसके लिये हमारे समस्त गुरु भगवंतों को हमें सम्पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त है।

डायरेक्टर मनोज जैन ने मधुर कंठ से मंगलाचरण के रूप में पंच परमेष्ठी और 24 तीर्थंकरों को नमन किया। उन्होंने कहा भगवान महावीर फाउंडेशन के आज इस पांचवें दिन के कार्यक्रम में कर्म निर्जरा में मोहनीय विषय पर चर्चा हो रही है।

मोहनीय कर्म हमें बहुत नचाता है, कर्मों का सम्राट है

उपाध्याय श्री रविन्द्र मुनि जी म. : कर्मों का संबंध हमारे साथ, हमारी आत्मा के साथ अनंत काल से जुड़ा हुआ है, हमारा सारा पुरुषार्थ इस दिशा में रहता है कि हम कैसे कर्मों की निर्जरा करके परम पद निर्वाण मुक्ति की प्राप्ति करें। हमारा कर्तव्य है हम कर्मों के स्वरूप को जानें, स्वाध्याय के द्वारा वीतराग वाणी के रहस्य को जाने और समझे और अपने जीवन को सुधारने का सम्यक प्रयत्न अपने जीवन के अंदर करते रहें। यह हमारा प्रमुख कर्तव्य है।

आज का विषय आठ कर्मों का राजा मोहनीय कर्म है। इसे सर्वाधिक प्रबल और शक्तिशाली माना है, क्योंकि यह कर्म व्यक्ति को बहुत नाच नचाता है, पीड़ित करता है और इसकी वजह से हम और नये कर्मों का बंधन अपने जीवन में बांध लेते हैं। इसलिये इसे सारे कर्मों का सम्राट माना है। आत्मा के प्रबल शत्रु है। जो आत्मा का हित करने में बहुत बाधा पैदा करे, आत्मा का शत्रु होगा। जब तक हम इस मोह को परास्त नहीं कर देते, साधना के द्वारा जीत नहीं लेते, कमजोर नहीं कर देते, नष्ट नहीं कर देते मोक्ष मिलना संभव नहीं है। मोह कर्म के कारण ही वीतरागता प्रकट नहीं होती।

हमारे जितने तीर्थंकर भगवंत हुए हैं हम उनको वीतराग भगवन कहते हैं, जिन्होंने अपने जीवन में राग और द्वेष को छोड़ दिया। जीवन में मोह को जीतने से पहले राग-द्वेष को कमजोर करना आवश्यक है। साधना करते-करते हम फिर मोह को नष्ट करने में सफल हो सकते हैं।

मोहित व्यक्ति की दशा ऐसी है, जैसे एक नशा करने वाले एक शराबी व्यक्ति की होती है। शराब पीने के बाद व्यक्ति का विवेक और बुद्धि नष्ट हो जाती है। नशे में क्या कह दिया, उसको खुद को मालूम नहीं रहता। लेकिन मोह से ग्रसित की उपमा दी है जैसे शराब का नशा होता है, वैसे ही नशे की तरह ऐसे व्यक्ति की बुद्धि और विवेक नष्ट हो जाता है। मोह को जीतने से पहले राग-द्वेष की प्रवृत्ति को धीरे-धीरे अपने स्वाध्याय, ज्ञान, प्रवचन श्रवण, विवेक से, साधना से उसे जीतने का काम करना है। जब-जब आपके जीवन में कदाचित् राग-द्वेष में आप चले गये और आपको लगा गलत हो गया तो आप मिच्छामि दुक्कड़म कह कर संकल्प लें कि आज मेरी प्रवृत्ति राग-द्वेष चली गई, मुझे नहीं करना चाहिए थी और जिसके प्रति राग-द्वेष किया, उससे क्षमा मांगिये। ऐसा करने पर मोह भी देर-सवेर काबू में आ जाएगा।

तत्वानुशासन ग्रंथ में एक त्रिकोण की बात कही गई है। उसमें कहा गया है मोह राजा है और एक उसका सेनापति-महामंत्री, राग-द्वेष हैं। तो मोह रूपी राजा को जीतने के लिये पहले उसके महामंत्री और सेनापति राग-द्वेष को जीतें। मोह को अन्य दर्शन वालों ने अविद्या या माया कहा है। यदि सूक्षमता से अविद्या या माया को सोचे तो अर्थ मोह का ही निकलता है। मोहनीय प्रबलता के कारण जीव में कुछ कमियां आती हैं। जीव अंधविश्वास जल्दी करता है, रूढ़िवादी क्रियाएं, देव-गुरु मूढ़ता करता है। एक सच्चा जैन श्रावक इधर-उधर भटकता नहीं है, उसे मिथ्यात्व-सम्यक्तव की पहचान होती है।

मोहनीय कर्म जीव का डबल नुकसान करता है। यह एक ओर आपकी श्रद्धा को विकृत और भ्रष्ट करता है। आपकी श्रद्धा जब देव-गुरु के प्रति नहीं रहती, तो समझिये आपका मोहनीय कर्म प्रभाव दिखा रहा है। दूसरा नुकसान वह आपके चारित्र को भी विकृत और नष्ट करता है। आपके आचरण में गिरावट तब आती है, जब मोह कर्म आपकी श्रद्धा को डांबाडोल करता है और उससे आपका आचरण गिर जाता है। पतित होने का कारण है उनके जीवन में न स्वाध्याय है, न श्रवण है, न सम्यक श्रद्धा है, तो ऐसे लोगों के जीवन में भटकाव ज्यादा देखते हैं। विभिन्न प्रकार के नशे, सेवन जीवन में विकृतियां पैदा कर देता है।

मोहनीय हर क्षेत्र में आगे बढ़ने से हमें रोकता है

महासाध्वी श्री मधुस्मिता जी म. : हमे चौथे कर्म मोहनीय का क्षय करना है। हम सोच लेंगे कि हमें उसे हराना है, जिताना नहीं, तो हम हरा सकते हैं। निश्चित रूप से हमारी जो आसक्ति व्यक्ति, वस्तु और स्थान के प्रति हो, उसको कम कर देना, वो है मोहनीय कर्म को हराना। हमारा आसक्ति का भाव जो भरा हुआ है, उसे भीतर से हम लोग कम करने का प्रयत्न करें, जिससे हमारा 18 दिवसीय आयोजन जो इतना सुंदर, पवित्र और उपयुक्त है, उस कारण से हम मोह कर्म का नाश कर सकेंगे। यह बार-बार आत्मदर्शन, सम्यकदर्शन करने में बाधा डालता है। हर क्षेत्र में आगे बढ़ने से हमें रोकता है। इस मोह को क्षय कर देंगे, तो निश्चित रूप से हमें जल्दी से जल्दी मोक्ष मिल जाएगा क्योंकि हमारी 12 भावना और 12 तप हमारे शासन के अंदर बहुत महत्व दिया है। तप के अंदर हम अंतर्तप में चले जाएंगें, कायोत्सर्ग करो, सामायिक करो, उससे भी अनंत पापों की निर्जरा हो सकती है और उत्कृष्ट निर्जरा करनी है तो उत्कृष्ट ध्यान साधना में चले जाएं, समाधि में चले जाएं

कर्म जैसे करोगे, फल भी वैसे मिलेंगे।
नीम बोने वालों को आम कैसे मिलेंगे।।
8 न 10, अब तो 18 बस -यह नारा धीरे-धीरे पूरे विश्व में गूंजेगा

संयोजक राजेन्द्र जैन महावीर सनावद : 8 न 10, अब तो 18 बस – हमारा यह नारा धीरे-धीरे पूरे विश्व में गूंजेगा और गूंजने का काम शुरू हो गया है और इस गुंजायमान करने के लिये हमारे डायरेक्टर और संयोजकगण लगे हुए हैं। जैन एकता के बारे में जितना सुंदर विचार भगवान महावीर देशना फाउंडेशन ने रखा है, इसके माध्यम से हम देखते हैं कि जब कोई विचार जन्म लेता है, भ. महावीर जितने भी तीर्थंकर हुए, संत-महात्मा हुए वे इसलिये पूजे जा रहे हैं क्योंकि इनके विचार शाश्वत है, किसी का धन, जमीन-संपदा शाश्वत नहीं है। लेकिन जिसके विचारों की शाश्वता है, आज पर्यूषण पर्व की सार्थकता अगर है तो वो विचार ही हैं। हम चाहे जितनी बात कर लें, बोली लगा लें, जितने कल्याणक करा लें लेकिन विचार जिंदा रहेगा तब ही समाज, अहिंसा परमो धर्म जिंदा रहेगा, जैन धर्म जिंदा रहेगा। जैन धर्म का विचार भ. महावीर और 24 तीर्थंकरों की देशना है। उस देशना को वर्तमान में फैलाने का काम आज यह इतना बड़ा मंच कर रहा है कि हमारे साधु-साध्वी इस मंच पर आकर जैन एकता की बात कर रहे हैं, यह हम सबके लिये गौरवपूर्ण हैं। हमें पूरी पृथ्वी पर यह कन्सेप्ट लाना है कि हम आपस में मतभेद-मनभेद न करें। हमारा मन हमेशा जैन एकता के लिये समर्पित रहना चाहिए, साथ ही हमारी वैश्विक पहचान है तो वह आहार शुद्धि से है और हमारे जैनत्व के आचरण से है। अपनी पहचान को कायम रखने का कार्य फाउंडेशन कर रहा है कि एक साथ बैठने का उपक्रम करने लगे हैं। इस विचार की सत्ता एक दिन आएगी और हम उस विचार को भ. महावीर देशना फाउंडेशन के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने का काम करेंगे।

एक हो जाएंगे, तो बन जाएंगे चांद-सूरज
बिखरे हुए सितारों से कहा रोशनी हो।

तो हम सब सितारें हैं और अभी बिखरे हुए हैं। हमको चांद-सूरज बनने की प्रक्रिया भ. महावीर देशना फाउंडेशन के माध्यम से प्रारंभ हो गई है।
दूसरे के अपकार, अपना उपकार को भूल जाएं
परमात्मा और मृत्यु को याद रखें

श्री धर्मचंद जैन, जोधपुर : पर्यूषण पर्व के इन दिवसों में प्रत्येक साधक अपनी आत्मिक साधना को विकसित करने का निरंतर प्रयास करता है। आत्मिक साधना में कोई कर्म बाधा बनता है, वह मोहनीय कर्म है। यह आत्मा को मोहित करें, अपने स्वरूप से दूर ले जाए। दो भेद हैं – दर्शन और चारित्र मोहनीय। दर्शन मोहनीय हमारे सोच, मानसिकता, दृष्टिकोण को विकृत और बुद्धि को भोगों में लगा देता है। चारित्र मोहनीय कर्म हमारी प्रवृत्ति को, व्यवहार को, आचरण को दूषित और विकृत बना देता है। यदि हम दर्शनीय मोहनीय को जीतने का प्रयास करें, तो हमारी श्रद्धा, विश्वास जिनवाणी, आगम, आत्म स्वरूप के प्रति दृढ़ बन सकती है। इसे जीतने का उपाय – यदि हम अरिहंत, सिद्ध, पंच परमेष्ठी की स्तुति, गुणगान, बहुमान, सम्मान करते हैं, उनके प्रति समर्पित होते हैं तो हमारा मोहनीय कर्म निरंतर कमजोर हो जाता है।

हमको निर्मल समकित, क्षायिक समकित, विशुद्ध श्रद्धान, आत्म श्रद्धान, भेद विज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। चारित्र मोहनीय को जीतने का उपाय – जो कषायों को जीत लेता है, राग-द्वेष को कम कर लेता है, महाव्रत समिति गुप्ति की निर्दोष आराधना और साधना करता है, उसका चारित्र मोह धीरे-धीरे कमजोर हो जाता है, जिसका चारित्र मोह समाप्त होने लगता है, तो उसके जीवन में आनंद, शांति और वीतरागता प्रकट होने लगती है। हम सबका लक्ष्य भी शाश्वत सुख को पाना है, इसमें बाधक है तो वह है राग-द्वेष। मैत्री करुणा प्रमोद मध्यस्थ भावना का चिंतन से हमारे राग-द्वेष मंद पड़ते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ को जीतने का उपाय – उपशम भाव से क्रोध को जीते, विनम्रता से मान को, सरलता से माया को तथा संतोषवृत्ति से लोभ को जीतें। मेरे प्रति किसी ने बुरा किया हो, तो उसको नुकसान को, नुकसान पहुंचाने वाले को भूल जाना चाहिए। इससे उसके प्रति क्रोध का भाव समाप्त हो जाएगा, और उसको मात्र निमित्त मानकर क्रोध पर विजय पा सकूंगा। मैंने किसी का भला किया है, इस बात को भी याद नहीं रखें, इससे हमारा अहं भाव जागृत नहीं होगा और विनम्रता बनी रहेगी। दो बातें याद रखें – परमात्मा को याद रखें कि वे सर्वज्ञ हैं, केवलज्ञानी हैं। जब ये जान लेंगे तो फिर हम कोई मायाचारी नहीं करेंगे। धोखा – विश्वास घात नहीं करेंगे। दूसरा मृत्यु को याद रखें, मृत्यु कभी भी, कहीं भी आ सकती हैं। यह हम याद रखेंगे तो हम लोभ से ग्रसित नहीं होंगे और संतोषवृत्ति को अपना सकेंगे।

कर्म आत्मा पर जबर्दस्त प्रभाव डालता है और संसार का मूल कारण है

डॉ. श्रेयांस जैन, बड़ौत : जीव के लिये कर्म ही एक ऐसा कारण है, जो बांध कर रखता है। संसाररूपी रंगमंच पर जीवों का आवागमन लगा रहता है। इनमें से किसी को सम्मान तो किसी को अपमान मिलता है। कोई ज्ञानी है, कोई अज्ञानी, कोई धनवान तो कोई निर्धन है, कोई स्वस्थ होकर इठलाता है, कोई अस्वस्थता के कारण शैय्या पर कराहता है। किसी को देखने के लिये जनमानस की आंखें लालायित होती हैं, तो किसी को कोई फूंटी आंख नहीं सुहाता है। इसके पीछे विचार करते हैं कोई न कोई शक्ति निहित है और उस शक्ति का जब चिंतन करते हैं तब कर्म के सिवाय कोई दूसरी शक्ति हमें नजर नहीं आती है।

इस कर्म का हम अपने बस में नहीं कर सकते हैं, बहुत बड़ा प्रभाव है। आप जानते हैं, अनंतबली, तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और महापुरुष भी इस कर्म के प्रभाव में आये और उन्हें कष्ट भोगना पड़ा। कर्म के विषय में सभी दार्शनिकों ने विशिष्ट चिंतन किया है, लेकिन जैन दर्शन का चिंतन एक विलक्षण हैं और जैन दर्शन कहता है कि ये कर्म आत्मा पर जबर्दस्त प्रभाव डालता है और संसार का मूल कारण है, लेकिन अगर कोई कर्म पर विजय प्राप्त करता है तो वही एकमात्र आत्म शक्ति है, आत्मा है। उन कर्मों में प्रधान कर्म मोहनीय कर्म है, क्योंकि यह संसार का मूल कारण है। जो मोहित करता है या जिसके द्वारा मोहा जाता है, जो मूड बनाता है, उसीका नाम मोहनीय कर्म है। इस कर्म के कारण जीव ग्रस्त होकर संसार में भटकता ही है, संपूर्ण दुखों को सहना पड़ता है, इसलिये आचार्यों ने इसे महाशत्रु कहा है। सभी कर्म मोहनीय कर्म के आधीन हैं।

अगर आत्मा में विकारों की उत्पत्ति होती है, तो इसका मूल कारण मोहनीय कर्म है। आत्मा को विकृत अवस्था में पहुंचाता है यह मोहनीय कर्म। इसका प्रभाव से जीव तत्व – अतत्व का भेद-विज्ञान ही नहीं कर पाता और इसके कारण वह संसार के कार्यों में उलझा रहता है। आचार्यों ने इसे दो भागों में बांटा है। दर्शन और चारित्र मोहनीय कर्म। आत्मा में या आत्म में, आगम और पदार्थों में श्रद्धा को दर्शन कहते हैं, उस दर्शन को जो मोहित करता है वह दर्शन मोहनीय कहा जाता है। ये विपरीतता में पहुंचा देता है इसीलिये मूर्च्छित करने वाला कर्म कहा गया है। इसका उदय होता है तो जीव सम्यक रूप से अपनी पहचान भूल जाता है। यह इतना घातक है कि इन्द्रिय विषयों को प्रिय-श्रेयस्कर समझाने में निमित्त बनता है और आत्मा के गुणों को भुलाने का निमित्त बनता है। इस मोहनीय कर्म के कारण जीव अपनी आत्मा के कल्याण को भूल जाता है, मोक्ष के लक्षय से दूर हो जाता है। जो अदेव में देव बुद्धि (जो देव नहीं है, जो मूर्ति-पत्थर आदि को पुजवा देते हैं), अगुरु को गुरु बना देते हैं (जो गुरु के स्वरूप हैं रत्नत्रय, पात्रों से स्नेह करने वाला, चर्या का भलिभांति पालन करता है वही गुरु संज्ञा को प्राप्त होता है) लेकनि मोहनीय कर्म अगरुु में गुरु की बुद्धि जगा देता है और जीव सन्मार्ग से भटककर कुमार्ग पर पहुंच जात ाहै। अधर्म में धर्म का ज्ञान करा देता है, जो धर्म है ही नहीं उसे धर्म जानने लगता है, हिंसा आदि में भी धर्म की बुद्धि जागृत हो जाती है, उसका मूल कारण यह मोहनीय कर्म है। हम सबका पूरा पुरुषार्थ कर्म निर्जरा के प्रकरण में लगना चाहिए कि हम दर्शनीय मोहनीय को कैसे नष्ट करें।

गणिनी आर्यिका श्री स्वस्ति भूषण माताजी : मोहनीय कर्म की 28 प्रकृतियां हैं, पहला भेद है मिथ्यात्व। मिथ्यात्व का काम है भ्रम में रखना। भ्रम मतलब न सत्य है, न झूठ है, लेकिन सही नहीं पता। इंसान भ्रम में जी रहा है। कोरोना के समय में बहुत लोगों का भ्रम टूटा कि कुछ भी अपना नहीं है, न धन, न शरीर, न परिवार वाले, समय आया है तो सबको जाना पड़ा। जैसे कोरोना गया, वापिस भ्रम फिर शुरू हो गया, फिर से सभी मेरा – मेरा करने लगे। कोरोना में कुछ भी मेरा नहीं समझ आया। जैन-अजैन सभी जानते हैं इस बात को। इसको मेरा कहलवाने का जो काम है, वह काम है मोह का। यदि मोह है तो क्रोध है, मान है, माया है, लोभ है। जब किसी चीज से प्रेम नहीं है तो गुस्सा नहीं आएगा। जब किसी चीज के प्रति आसक्ति नहीं है, तो अभिमान किस बात के लिये, तब न माया न लोभ होगा। इसके आगे 9 भेद और है जिसे अकषाय वेदनीय कहा है। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री वेग, पुरुष वेग, नपुंसक वेग। ये सभी भाव महसूस कराने का काम मोह का है।

मोह तो हमारे रोम-रोम में बसा हुआ है। जब मोह कम होता है तो वैराग्य आता है और तब ज्ञान प्राप्ति की इच्छा होती है, तभी मोह को कम करने की शुरूआत होती है।
वस्तुओं में तोहर का, गाने में अवरोह का
छोड़ने में मोह का बड़ा ही महत्व है।
साधुओं में उपाध्याय का, पढ़ने में अध्याय का
और पढ़ने में स्वाध्याय का बड़ा ही महत्व है।
गाने में तान का, शादी में पकवान का
और मोह छोड़ने वाले परम वीतराग भगवान का
बड़ा ही महत्व है।
पानी में समुदंर का, ध्यान में जाने का अंदर में
वीतरागी भगवान के मंदिर का बड़ा ही महत्व है।
साधना के पथ पर अग्रसर होकर ही मोहनीय कर्म का क्षय कर सकते हैं

उपाध्याय श्री विशाल मुनि जी म. : भ. महावीर स्वामी के अनुसार एक तरफ आत्मा है और दूसरी तरफ कर्म। ये कर्म और जीव दोनों मिलकर संसार का निर्माण करते हैं। जीव में निश्चित रूप से परमात्मा बनने की ताकत है। अनंतचतुष्टय इसमें विद्यमान है। परमात्मा के लक्षण वो आत्मा के लक्ष्ण हैं, जीव के लक्षण हैं, लेकिन वो कर्म और वो भी आठ-आठ कर्म और उनके मूल भेद में दबकर वह स्वयं यह जान नहीं सकता कि मेरे अंदर कुछ है, क्या मैं परमात्मा बन सकता हूं, क्या मैं विशेष ज्ञानी बन सकता हूं। ये अज्ञान और धर्म की प्रति, साधना के प्रति विश्वास कम होना, त्याग-परित्याग कम होना, धर्म की रुचि न होना, पापों के अंदर आनंद लेना, संसारिक विषयों में बड़ी रूचि लेना, ये विशे, रूप से मोहनीय कर्म का प्रमाद है। अनंतानंत पुण्य के योग से अगर मोहनीय कर्म क्षय होता है तो इस जीव में एक आत्मा में या मनुष्य में मैं कौन हूं? मेरा क्या स्वरूप है? ये संसार क्या है? इसको किसने बनाया है? इस प्रकार की जिज्ञासायें पैदा होती हैं। अगर उसे सत्संग, सद्गुरु, वीतराग वाणी, आगम का सान्निध्य मिले तब ज्ञान दर्शन बढ़ता चला जाता है और ये ज्ञान – दर्शन आत्मा के गुण हैं।

त्याग-परित्याग की, संयम की रुचि आत्मा का गुण है जो सुख प्रदान करने वाला है, तब जप करने की भावना, सहनशीलता प्रकट होती है। अगर साधक सद्गुरुओं के सान्निध्य, स्वाध्याय से आठों इन्द्रियों और विषयों को जीतता है, राग-द्वेष को मंद करने का प्रयत्न करता है और कही पर साधना करते हुए स्वाध्याय ध्यान करते हुए इतने आगे बढ़े लेकिन कषायों को आने नहीं देता है, तो ऐसी आत्माओं के सामने मोहनीय कर्म बहरी एषणा के रूप में हो जाता है। ईमानदारी से सम्यक्ता को ग्रहण करें, प्रतिज्ञा करें, त्याग करें, इससे मोहनीय कर्मों का मुकाबला कर आत्मा के बल को बढ़ा सकते हैं। सिर्फ सुनने से नहीं, बल्कि संकल्पपूर्वक अंतर से जागृत करने की जरूरत है। हे प्रभु परमात्मा मैं श्रावक व्रतों को अंगीकार कर सकूं, त्याग-तपस्या के मार्ग पर बढ़ सकूं, संकल्प लेकर आगे बढ़ते हैं तो ही मोहनीय कर्म को कमोजर कर सकते हैं।
अपने स्वरूप को जानो, निखारो फिर जाकर मोहनीय कर्म का विनाश करें

आचार्य श्री सुंदर सागर जी महाराज : तप करने से निर्जरा भी होती है और संवर भी होता है। संवर पूर्वक जो निर्जरा होती है वह ही हमारे कर्मों का विनाश कर सकती है। समीचीन तप के लिये सम्यकदर्शन और सम्यकदर्शन प्राप्त करने के लिये मोहनीय कर्म का नाश करना पड़ेगा। जिस प्रकार मादक खाने के बाद व्यक्ति उन्मुक्त हो जाता है और उसको अपने हित और अहित का विवेक नहीं रहता है, उसी प्रकार जिस जीव के ज्ञान पर मोह हावी हो जाए, वह अपने स्वभाव को प्राप्त नहीं कर पाता है। जब हम अपने स्वभाव को छोड़ देते हैं, परद्रव्यों में रुचि लेते हैं तब यह मोह हमारे अंदर विकार भाव पैदा कर देता है। जब आत्मा इन कर्मों को अपना मान लेती है तब ये कर्म हावी हो जाते हैं। जब मोहनीय दबता है, तब हमें देव शास्त्र गुरु में श्रद्धान पैदा होता है। मोह को जीतने के लिये हमें अपने में और पर वस्तु में भेद-विज्ञान करना पड़ेगा। कर्म हमसे अलग है, हम कर्मों से अलग हैं। शुभ निश्चय में से मैं भगवान आत्मा है, इसलिये अपने स्वरूप को जानो, निखारो फिर जाकर मोहनीय कर्म का विनाश करें और केवलज्ञान की प्राप्ति करें।
एक-एक गुणस्थान चढ़ते हुए मोह पर विजय प्राप्त कर सकते हैं

आचार्य श्री देवनंदी जी महाराज : महापर्यूषण महापर्व के इस संयुक्त कार्यक्रम जैसा उपक्रम समाज के विविध मत-मतांतरों को मिटाने के लिये अच्छा उपक्रम है, इसलिये भ. महावीर देशना फाउंडेशन और सभी पदाधिकारियों को साधुवाद प्रदान किया कि उन्होंने अपनी क्षमताओं को सामाजिक विकास के लिये उपयोग किया और हम सभी समाजबंधुओं को एक सूत्र में बांधने का काम किया है। यदि हम किसी प्रकार का मोह भाव में फंसते, किसी प्रकार से राग-द्वेष सूत्र में बंधते तो हम यह समाजिक समन्वयता का यह संदेश आज हम पर्वराज पर्यूषण पर्व के शुभ अवसर पर नहीं दे पाते। ये हमारे लोगों के लिए एक भाग्य और पुण्य कहना चाहिए कि हमें 18 दिवसीय इस पर्व में आत्मशोधन का एक अवसर प्राप्त हुआ है और अनादिकालीन बंधे हुए कर्मों की निर्जरा करने के लिए हमें एक शुभ अवसर प्राप्त हुआ है।

हम तत्व चिंतन से, सम्यक्त्व के माध्यम से भी अपने कर्मों से निर्जरा कर सकते हैं। कर्मों की निर्जरा का साक्षात वृहद कारण है – त्यागव्रती चारित्र को धारण करना, वैराग्यमयी मुमुक्षु जीवन को व्यतीत करना। बिना वैराग्य के हम अपने कर्मों का क्षय नहीं कर सकते। अगर हमारे लिये संसार में रहकर आत्मिक आध्यात्मिक मोक्ष का सुख प्राप्त हो जाता, तो हमारे तीर्थंकरों को इस मोह बंधन को तोड़कर वैराग्य पथ पर जाने की क्या आवश्यकता थी। जो संसार विषय सुख होता, तीर्थंकर काहे त्यागे। काहे को शिव साधन, संयम सो अनुरागे। तीर्थंकर को भी वैराग्य पथ पर जाना पड़ता है, तभी वे मोह के बंधन से मुक्त होते हैं। हमें अपना जीवन निर्मोह बुद्धि से जीना है। इससे मोहनीय कर्म धीरे-धीरे ढीला पड़ेगा। सबसे पहले हमें अपने गृहस्थ जीवन का मोह कम करना होगा। मेरा घर, मेरी इंडस्ट्री, मेरा -मेरा का भाव से बचना होगा। मोह से बचने के लिये पर्यूषण पर्व की आराधना करनी होती है। आज हम सबकुछ छोड़कर इस मंच पर बैठे हैं। इस मंच पर दो-दो घंटे बैठना भी मोहनीय कर्म को कम करने का साधन है। हमें संयमी जीवन धारण करना होगा। गृहस्थ जीवन पर हम मोह पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। हमें गुणस्थानानुसार एक – एक सीढ़ी चढ़नी होगी। सबसे ज्यादा दुखदायी यह मोहनीय कर्म है।

संस्थापक सुभाष जैन ओसवाल : महावीर देशना फाउंडेशन की ओर से श्रद्धेय देवनंदी जी महाराज जिनका सान्निध्य इस संस्था पर चुस्त रूप से मिला है, वह अभूतपूर्व है और आज के उद्बोधन में उन्होंने कहा कि महावीर को जानना नहीं है, मानना है। निश्चित रूप से इस मंच के माध्यम से समाज को एक नई चेतना मिलेगी, नई व्यवस्था मिलेगी। मैं श्रद्धेय उपाध्याय रविन्द्र मुनि जी म., परम विदुषी महासाध्वी मधु स्मिता जी म., स्वस्ति भूषण माताजी, आ. प्रवर सुंदर सागरजी महाराज और वाचनाचार्य विशाल मुनि जी महाराज की वाणी सुुनने का अवसर मिला हम सबको, ऐसे संतों को आज हमने इस मंच पर समाज को एक करने के लिये जो प्रयास किया है, निश्चित रूप से यह बधाई के पात्र हैं।

सभा के अंत में डायरेक्टर अनिल जैन एफसीए ने छठे दिवस के कार्यक्रम और मंच पर आने वाले संतों तथा बुद्धिजीवियों की जानकारी दी। उन्होंने बताया कि हमारा इस मंच पर देश से ही नहीं विदेश से भी अनेक बुद्धिजीव लोग जुड़ रहे हैं, यह हमारे लिये हर्ष और उत्साह का विषय है क्योंकि इन संबोधन से हमें किस तरह से एकता का प्रयास में मील का पत्थर बन सकते हैं, किस तरह अनेक योजनाओं को हम इकट्ठे मिलकर संयोजित कर सकते हैं। इसी विश्वास के साथ उन्होंने समाज को निमंत्रित किया। (Day 5 समाप्त)