जो जैनो का दक्षिण भारत का सबसे मुख्य पवित्र सिद्ध क्षेत्र हे इसलिए इसे दक्षिण का सम्मेद शिखर भी कहा जाता हे जैन दर्शन के अनुसार यहा से भगवान राम सहित अनेक मुनि मोक्ष गए हे
इस पर्वत पर एक बलभद्र स्वामी की प्रतिमा विराजित हे जिसके सिर्फ पीठ के ही अर्थात पिछले भाग के ही दर्शन कर सकते हे आज तक कोई भी इस प्रतिमा के मुख के दर्शन नही कर पाया हे ।दोस्तों इस प्रतिमा से सम्बंधित बहुत ही रोचक कथा हे
क्रष्ण जी के बड़े भाई बलदेव जो की कामदेव थे अर्थात बेमिसाल सुंदर जो की लोक में श्रेष्ठ सुंदर हो
तो बलदेव जी मुनि बनने के बाद जब 6 माह तक तप करने के बाद आहार के लिए कन्चनपुर ग्राम की और निकलते हे तब रास्ते में कुए के पनगट पर पानी भरने आयी महिलाओ की नजर जेसे ही बलदेव मुनि पर पड़ती हे तो मुनि के मुख कमल और सौंदर्य को देखकर इतनी मोहित हो जाती हे की वे महिलाए अपनी सुध बुध खो देती
जो रस्सी वो कुए से पानी निकालने हेतु बर्तन को बांधनी थी वो रस्सी अपने ही साथ आये खुद के बच्चों को बाँधने लगी और बर्तन समझ कर बच्चों को कुए में धकेलने लगी । बलदेव मुनि महिलाओ की इस हरकत को देख कर अंतराय मान कर विचार करते हे की धिक्कार हे मेरे इस मुख पर और क्षणभगुर शरीर पर जिसकी सुंदरता पर ये महिलाए इतनी मोहित हो गयी की अपने खुद के बच्चों को ही भूल गयी ।धिक्कार हे इस संसार पर जो इस शरीर पर जो की अस्थायी हे क्षणभंगुर हे उस पर इतना मोहपन ।ओह आज मेरे इस मुख और शरीर की वजह से कितनी हिंसा हो जाती
इस प्रकार उक्त घटना से बलदेव मुनि को शरीर और संसार के प्रति इतनी गहरी विरक्ति हो जाती हे की वे मांगीतुंगी के पर्वत पर जाकर इसप्रकार बैठ जाते हे की मुख पहाड़ की तरफ और पीठ गाव की तरफ अर्थात खुले भाग की तरफ जेसे कोई उनका मुख नही देख सके ।उस विरक्त भाव से उसी स्थान से और उसी मुद्रा से अत्यधिक कठोर तप करते हुए वही से स्वर्ग को प्राप्त हो जाते ह
बलदेव स्वामी के स्वर्ग सिधारने के पश्चात देवगण उस स्थान पर आकर पूजा करते हे और वहा बलदेव स्वामी की प्रतिमा विराजित करते हे और वह प्रतिमा जी भी उसी प्रकार विराजित करते हे जेसे बलदेव मुनि तप करते वक्त बेठे थे ।और कहते हे ये वही प्रतिमा हे जिसके मुख को आजतक कोई नही देख पाया ।कालांतर में भूतकाल में जब भी प्रतिमा जी के मुख देखने की कोशिश की गयी वो सब विफल रही-