जिन मंदिर की सम्भाल करना मात्र समाज की कार्यकारिणी का ही नहीं, प्रत्येक श्रावक का कार्य है: मंदिर की व्यवस्था करना भी पूजन है क्योंकि मंदिर भी नव देवों में एक देव है

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7 मार्च/फाल्गुन शुक्ल चतुर्थी/चैनल महालक्ष्मीऔर सांध्य महालक्ष्मी/
नगर/ग्राम/कॉलोनी में मंदिर होने से दर्शन/पूजन/स्वाध्याय का लाभ सहज ही प्राप्त होता है। मंदिर होने से मुनिराज/त्यागी व साधर्मियों का सहज ही समागम प्राप्त होता है। साधर्मियों का समागम चित्त को प्रसन्न करने वाला/पुण्य वर्धक/ ज्ञान वर्धक होता है।
अत: हमें मंदिर की सम्हाल भी निरपेक्ष भाव से बिना किसी के कहे करना चाहिये।

पूजन सामग्री तैयार करना, बिछायत करना, पूजन/स्वाध्याय हेतु लोगों को प्रेरित करना, करने वालों की प्रशंसा करना, मंदिर की सफाई करना/कराना, आवश्यक सामग्री भेंट करना, जिनवाणी पर कवर चढ़ाना यह सब भी पूजन है।
यह सब कार्य स्वेच्छा से बिना दिखावे के करना चाहिये। मंदिर में किसी भी प्रकार की
सामग्री की कमी हो और हम पूर्ति कर सकते हों तो हम स्वयमेव करना चाहिये।

परिणामों की यही विशुद्धि उत्कृष्ट पुण्य बंधन कराती है और सम्यग्दर्शन में निमित्त होती है।

मंदिर की सम्भाल करना मात्र समाज की कार्यकारिणी का कार्य नहीं है, प्रत्येक श्रावक का कार्य है। संयोग से यदि आप कार्यकारिणी में हों तो विनम्रता पूर्वक सभी को धर्म का लाभ मिलता रह सके, साहित्य भरपूर हो, स्वाध्याय की व्यवस्था हो, विद्वज्जनों का समागम होता रहे इस प्रकार व्यवस्था करना चाहिये।
मंदिर की व्यवस्था करना भी पूजन है क्योंकि मंदिर भी नव देवों में एक देव है।

मंदिर की सम्हाल अधिकारी बनकर नहीं भक्त होकर करें, व्यवस्था नहीं मानो हम भक्ति ही कर रहे हैं ऐसा अनुभव करें।

जिनधर्म की प्रभावना में सहभागी बनने का अवसर बड़े भाग्यशालियों को ही प्राप्त होता है।
मंदिर के कार्य को बोझा न समझें न ही मंदिर की किसी भी प्रकार की सामग्री पर अपना अधिकार करे

। प्रत्येक सामग्री का धर्म प्रभावना के लिए ही उपयोग करें। जिनवाणी का पठम-पाठन निरन्तर होता रहे ऐसी व्यवस्था करें।

*मंदिर और मंदिर की सामग्री की सम्भाल करना प्रत्येक श्रावक का कर्तव्य