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सान्ध्य महालक्ष्मी / 16 अप्रैल 2021
काशी के मंदिर में मस्जिद के इतिहास को खंगालने के लिए स्थानीय अदालत से मंजूरी ले ली, जिसे एक अच्छा कदम कहना चाहिए। (इसके खिलाफ हाइकोर्ट में याचिका भी दूसरे सम्प्रदाय ने डाल दी है) पर यह अगर सच्चे मायने में शुरूआत है तो इसे यहां नहीं रुकना होगा। लीजिए आपको बताते हैं यह माजरा क्या है?
08 अप्रैल को वाराणसी सिविल कोर्ट के माननीय जज आशुतोष तिवारी ने आदेश जारी किया कि पुरातत्व विभाग की एक पांच सदस्यीय टीम ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वेक्षण कर अपनी रिपोर्ट अदालत में जमा कर दे। यहां यह भी बता दें कि राम जन्मभूमि मंदिर – बाबरी मस्जिद विवाद की अदालती कार्रवाई भी कुछ इसी प्रकार शुरू हुई थी और उस सुप्रीम कोर्ट के फैसले में पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट को महत्वपूर्ण माना गया था।
अब काशी के विश्वनाथ मंदिर के भगवान विश्वेश्वर की ओर से यह मुकदमा दायर किया गया, यानि भगवान की ओर से। उनकी अनुपस्थिति में अपने को उनका ठी७३ ऋ१्रील्ल ियानि परम दोस्त कहते हुए विजय शंकर रस्तोगी व अन्य ने याचिका दाखिल की है, जिसमें विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद का इतिहास पेश किया है।
विश्वनाथ मंदिर को अकबर के जमाने का बताया गया है, यानि उनके समय में एक बार काशी में भयंकर सूखा पड़ा, कई धर्मों के गुरुओं को बुलाकर दुआ कराई, बारिश हो जाये, तब काशी के धर्म गुरु नारायण भट्टा ने प्रार्थना की और 24 घंटे में बारिश हो गई। अकबर बहुत खुश हुए और कहा कि बोलो क्या चाहते हो? नारायण ने हाथ जोड़कर कहा – बादशाह, अगर देना ही है तो यहां विश्वनाथ मंदिर बनवा दो। अकबर ने अपने वित्त को देखने वालो राजा टोडरमल को आदेश दिया और ज्ञानवापी इलाके में विश्वनाथ मंदिर बन गया।
फिर 16 अप्रैल 1669 को ओरंगजेब को किसी ने झूठी जानकारी दी कि मंदिर में अंधविश्वास सिखाया जा रहा है, आगबबूला हो गया। उसने मंदिर तोड़ने का आदेश दे दिया, बस मंदिर का काफी हिस्सा तोड़ कर वहां मस्जिद बना दी, मंदिर का एक हिस्सा रह गया, जहां पूजा होती रही। 1991 में कानून आया कि 15.08.1947 की स्थिति को बरकरार रखा जाये, इस पर मुस्लिम समप्रदाय ने मुकदमा बंद करने की याचिका डाल दी, पर अब सिविल कोर्ट ने पुरातत्व जांच से इसको अयोध्या की तर्ज पर बढ़ाना शुरू कर दिया है।
पर इतिहास यही नहीं खत्म होता, जब पन्ने पलटे जा रहे है, तो कुछ पन्ने और भी हैं इतिहास के, जो इसमें ज्यादा सच्चाई और सबूत के साथ जिंदा हैं और उनका संबंध एक और अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़ा है, जिसको इतिहास में समय-समय पर लूटा गया, बर्बाद किया, नष्ट किया गया, बदला गया।
ऐसी ही एक याचिका दिल्ली की सिविल अदालत में भगवान विष्णु और तीर्थंकर ऋषभदेव की ओर से 09 दिसंबर 2020 को फाइल की गई, जिसमें कहा गया कि 27 जैन-हिंदू मंदिरों को तोड़कर 12वीं सदी में कुतुबद्दीन एबक ने इसे मीनार और कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद बनवा दी। (इस साक्ष्य का तो वहां बोर्ड भी लगा है, जो यहां आप देख रहे हैं)। यहां पर भी दोनों भगवानों के उनके निकट के मित्र हरि शंकर जैन और रंजना अग्निहोत्री ने यहां पूजा-दर्शन की अनुमति मांगी है। 1192 तक यहां पूजा आदि होती थी पर 1192 में जब पृथ्वीराज चौहान जिसने बार-बार मौहम्मद गौरी को हरा कर क्षमा कर दिया था,
वहीं 17वीं बार में उस चालाक गोरी ने हराया तो उसके कमांडर कुतुबदीन ने यहां मंदिरों को तोड़ा था। मामला साकेत की माननीय जज नेहा शर्मा की अदालत में आगे अब 27 अप्रैल 2021 को सुना जाना है। जब इतिहास की किताब खुल ही गई है, तो क्यों न इसके और पन्ने पलटे जाएं।
आगरा में बने ताजमहल को घूमने तो आप में से कई गये होंगे, चाहे वहां के कई जैन मंदिरों को शायद न देखा हो, उसी के पास है फतेहपुर सीकरी। इसको बनाने के लिये अनेक जैन मंदिरों को तोड़ा गया। हमारी अनेक पूजनीय तीर्थंकर मूर्तियों को क्षतिग्रस्त किया गया, जिनको एएसआई ने खुदाई में निकाला भी, और अज्ञात जगहोें पर रखा गया, क्या इसके लिये भी तीर्थंकर प्रभु के नजदीक के दोस्त कही जाने वाली हमारी संस्थाओं की नींद खुलेगी।
(यमुना नदी के किनारे बने अकबर का महल भी उससे पहले जैन मंदिर स्थल था, इसकी पुष्टि गूगल पर कर सकते हैं)।
1321 में गुजरात के भारूच में मस्जिद बनी सब जानते हैं, पर उस इतिहास को मिटा कर इसकी दीवारें खड़ी की गई, जो कहता है कि यहां पहले जैन मंदिर था, उसे तोड़कर उसकी सामग्री का इस्तेमाल किया गया।
कच्छ के भदरेश्वर में सोलागम्बी मस्जिद, छोटी मस्जिद, पीर लाल शाहबाज की दरगाह भी जैन मंदिरों को तोड़कर उनकी सामग्री से खड़ी गई गई।
दिल्ली के पड़ोस हरियाणा के हिसार में है जहाज महल, और यह भी बना है जैन मंदिर को तोड़कर।
कर्नाटक के बीजापुर के इतिहास के तो कई काले पन्ने हैं, सभी को तोड़ा गया। मंगोली गेट की ओर जाते हुए छोटी मस्जिद के साथ कलेक्टर बंगले वाली मस्जिद, कृमुद्दीन मस्जिद में जैन मंदिरों को तोड़ कर उस सामग्री का प्रयोग किया गया, वहां नागरी लिपि लिखे शिलालेख भी हैं। 1324 में मलिक कफूर ने जब दक्खन को लूटा तब यह शुरू हुआ।
राजस्थान में तो कई जगह है अजमेर का अढाई दिन का झोपड़ा ढाई दिन में बन गया, कैसे बना, बस जैन मंदिरों को तोड़ा और उसकी सामग्री को इस्तेमाल कर खड़ा कर दिया, आज भी आपको उसके सबूत मिल जाएंगे।
राजस्थान के ही कोटा के शेर शाह सूरी का शेरगढ़ किला इससे अछूता नहीं है, जैन मंदिरों की सामग्री यहां भी लगी है।
भीलवाड़ा के मंडलगढ़ अलाई मस्जिद भी जैन मंदिर को बदलकर बनी है।
तमिलनाडु में मंदिरों की नगरी मदुरै, जैन मंदिरों के क्षतिग्रस्त होने के जहां अनेकों सबूत आज भी बिखरे पड़े हैं, वहां तिरुपुरानकुरान की सिकंदर मस्जिद पहाड़ी पर बनी है, जिसके लिए ब्राह्मण, बौद्ध व जैन मंदिरों को क्षतिग्रस्त कर बना दिया गया।
मध्य प्रदेश वालें ये ना समझे कि आपके यहां कुछ नहीं हुआ। देवास में गंधावल गांव की दरगाह भी जैन मंदिरों को क्षतिग्रस्त कर बनी। वहीं 1405 में धार में लाल मस्जिद की कहानी भी कुछ ऐसी ही है।
कर्नाटक के ही धारवाड़ में मेलारलिंग पहाड़ी पर मस्जिद, जैन मंदिर को तोड़कर बनाई गई।
आंध्र प्रदेश के निजामाबाद के बोधन की देवल मस्जिद भी पहले
कभी जैन मंदिर थी।
बिहार के चम्पानगर यानि भागलपुर में 1491 में एक मस्जिद जैन मंदिर तोड़कर ही नहीं बनी, बल्कि यहां कई मजार जैन मंदिरों को तोड़कर बनाई गई।
अब प्रश्न यह है कि जब इतिहास की पुन: जांच हो रही है, तब हमारी संस्थायें, क्यों आगे नहीं आती, जब तक हम भी आवाज नहीं उठाएंगे, तब तक कुछ हासिल नहीं होने वाला।