भगवान को पंचांग नमस्कार क्यों , वेदी की तीन ही प्रदक्षिणा क्यों, पांच जगह चावल क्यों चढ़ाए, मुनिराजों के दर्शन क्यों ?

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-भगवान के दर्शन करते समय विनती, स्त्रोत, स्तुति व णमोकार मंत्र क्यों पढ़ते हैं?
उत्तर- अपने मन को एकाग्र करने के लिए अर्थात मन मंदिर में रहकर सांसारिक विचारों में न उलझें, शुभोपयोग बना रहे। इसलिए दर्शन करते समय स्तोत्र, स्तुति आदि पढ़ते हैं।

प्रश्न- मंिदर में भगवान वेदी पर क्यों विराजमान रहते हैं?
उत्तर- वेदी गंधकुटी का प्रतीक है। गंधकुटी वह स्थान है जहां पर भगवान का सिंहासन होता है। जिसपर भगवान चार अंगुल अधर में विराजमान होकर उपदेश करते हैं, एवं जिनेन्द्र भगवान का पद जगत में सर्वोत्कृष्ट पद है और उच्च पद में स्थित आत्मा को विनयपूर्वक सम्मानार्थ उच्च स्थान पर विराजमान करते हैं।

प्रश्न- भगवान का सिंहासन पर विराजमान होना किसका प्रतीक हैं?
उत्तर- सिंहासन दो शब्दों से मिलकर बना है। सिंह$आसन:- सिंहासन अर्थात सिंह के समान आसन जमा लिया जाए जिस पर वह है सिंहासन। अर्थात कषायों के ऊपर, वासनओं के ऊपर, मिथ्यात्व आदि के ऊपर जिनेन्द्र ने सिंहों के समान आसन लगाया हे। इस बात का प्रतीक सिंहासन होता है।

प्रश्न-भगवान के ऊपर तीन छत्र क्यों लगाते हैं?

उत्तर- तीन छत्र भगवान के तीन लोक (अधो लोक, मध्य लोक और देव लोक और देव लोक अर्थात अध्र्वलोक के नाथ) स्वमी होने का द्योतक हैं। अर्थत तीन लोक पर जिनेन्द्र प्रभु का एक छत्र राज्य हो गया है एवं तीन छत्र देखकर आत्मशक्ति को जाग्रत करने की प्रेरणा मिलती है हम भी यदि जिनेन्द्र के बताए मार्ग पर चलेंगे तो उनके ही समान त्रिलोकी नाथ बन जाएंगे। इसी उद्देय को लेकर भगवान के ऊपर तीन छत्र लगाते हैं।

प्रश्न-भगवान पर चैंसठ चैंवर क्यों ढुराए जाते हैंे?
उत्तर- भगवान पर ढुरते हुए चैंसठ चंवर का अर्थ है कि चैंसठ ऋद्धियां उनके चरणों की दासी बनकर उनकी सेवा में खड़ी हैं। चंवर को देखने से प्रोरणा मिलती है कि हमें सांसारिक भौतिक सम्पदा के पीछे नहीं भागना चाहिए क्योंकि उनक पीछे भागने से अर्थात ऋद्धि के पीछे भागने से आत्मतत्व की, शाश्वत सुख की उपलब्धि नहीं होती। वरन् आत्मिक साधना करने से सारी ऋद्धियां, भौतिक सम्पदाएं स्वतः हमारे चरणों में आ जाएंगी। इसी बात के प्रतीक के लिए चैंसठ चंवर ढुराए जाते हैं। यह जिनेन्द्र भगवान का प्रातिहार्यै भी है।

प्रश्न-भगवान के पीछे भामण्डल क्यों लगाते हैं?
उत्तर- समवसरण में भगवान के पीछे भामण्डल होता है। जिसमें भव्य जीवों को अपने सात भवों का (तीन अतीत के, तीन भविष्य के ओर एक वर्तमान) का अवलोकर होता है जो सम्यक्त्व में कारण बनता है। मंदिर जी में प्रतिमा के पीछे भामण्डल लगाते हैं। उसके बीचो-बीच एक कांच का शीशा लगाते हैं। उस पर दर्शन करने वालों का प्रतिबिम्ब बनता है। अतः दर्शनार्थीएक दृष्टि शीशे पर बने स्वयं के प्रतिबिम्ब पर डालता है एवं एक दृष्टि भगवान पर डालता है तो उसे प्रेरणा मिलती है कि मेरा जीवन कितना निकृष्ट हैं और परमात्मा का जीवन कितना महान् है। जब दोनों जीवन की तुलना करते हैं तो महान् जीवन के प्रति श्रद्धा बनती है जो सम्यकदर्शन की उत्पत्ति में कारण है। इसी उद्देश्य से भगवान के पीछे भामण्डल लगाते हैं।

प्रश्न-भगवान को नमस्कार किस प्रकार किया जाता है?

उत्तर- भगवान को नमस्कार पंचांग व साष्टांग किया जाता है।

प्रश्न-पंचांग नमस्कार किस प्रकार किया जाता है?

उत्तर- दोनों पैरों को मोड़कर, गाय के समान गवासन लगाकर अर्थात, पैर, नितम्ब, छाती, हाथ अैर मस्तक पृथ्वी पर लगाकर नमस्कार करना पंचांग नमस्कार कहलाता है।

प्रश्न- पंचांग नमस्कार क्यों किया जाता है?
उत्तर- पांच पापों (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह) से निवृत्त होकर पंचमगति (मोक्ष) को पाने के उद्देश्य से पंचांग नमस्कार किया जाता है।

प्रश्न-साष्टांग नमस्कार किस प्रकार और क्यों किया जाता है?
उत्तर- दोनों पैर लम्बे फैलाकर, हाथों को मस्तक के ऊपर ले जाकर पेट के बल लेटकर जो नमस्कार किया जाता है, वह साष्टांग नमस्कार कहलाता है। यह पूर्ण समर्पण भाव का प्रतीक है। साष्टांग नमस्कार का भी उद्देश्य संसार से छूटकर मुक्ति को पाना है।

प्रश्न-भगवान के दर्शन करते समय चावल किस प्रकार चढ़ाए जाते हैं?
उत्तर- भगवान के दर्शन करते समय चावल पांच जगह चढ़ाए जाते हैं।

प्रश्न-पांच जगह चावल क्यों चढ़ाए जाते हैं?
उत्तर- अहिरंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधु इन पांचों परमेष्ठियों को अलग-अलकग द्रव्य चढ़ाने हेतु पांच जगह चावल चढ़ाए जाते हैं अैर भगवान के पंच कल्याण के प्रतीक स्वरूप अर्थात गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण इन पांचों कल्याणकों की प्रप्ति हेतु पांच जगह चावल चढ़ाए जाते हैं।

प्रश्न-मंदिर में जिनवाणी के दर्शन क्यों करना चाहिए?
उत्तर- जिनवाणी अर्थात शास्त्रों में भगवान जिनेन्द्र के श्रीमुख से अवतरित वाणी का संकलन होता है। साक्षात अरिहंत के अभाव में उनकी वाणी ही हमारे कल्याण के मार्ग को प्रशस्त करती है। मात्र जिनवाणी के माध्यम से ही धर्म का अस्तित्व कायम रहता है। अतः ऐसी परोपकारी, मंगलमयी जिनवाीण का दर्शन एवं भक्ति भावपूर्वक करना चाहिए।

प्रश्न-जिनवाणी के दर्शन करते समय चावल किस प्रकार और क्यों चढ़ाना चाहिए?
उत्तर- जिनवाणी के दर्शन करते समय चावल चार जगह चढ़ाए जाते हैं, क्येंकि जिनवाणी चार भागों में संकलित है। प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग, अतः चारों अनुयोगों को अलग-अलग चालव चढ़ाए जाने चाहिए।

प्रश्न-गुरूओं (मुनिराजों) के दर्शन क्यों करने चाहिए?
उत्तर- वैसे तो जिनवाणी की कृपा से ही कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। फिर भी जिनेन्द्र भगवान की वाणी गम्भीर ओर अपने-आप में गहन रहस्य छिपाए हुए है। उस रहस्य को हर अल्पज्ञानी व्यक्ति समझ नहीं सकता। उसका रहस्य तो जिनेन्द्र भगवान के समान आचरण करने वाले पूज्य गुरूदेव ही समझ जाते हैं और हमारा कल्याण करते हैं क्योंकि जिनवाणी मौन हैं, जिन प्रतिमा मूक है। मात्र गुरू ही मुखरित होते हैं। अतः परोपकारी गुरूओं के भी दर्शन जरूर करने चाहिए।

प्रश्न-गुरूओं के दर्शन करते समय चावल किस प्रकार और क्यों चढ़ाना चाहिए?
उत्तर- गुरूओं के दर्शन करते समय चावल तीन स्थानों में चढ़ाना चाहिए क्योंकि मुनियों के तीन भेद हैं-आचार्य, उपाध्याय, साधु। तीनों की अलग-अलग वंदना करने हेतु एवं रत्नत्रय की उपलब्धि हेतु तीन जगह चावल चढ़ाना चाहिए।

प्रश्न- मंदिर में वेदी की प्रदक्षिणा क्यों देते हैं?

उत्तर- चूंकि वेदी भगवान की गंधकुटी का प्रतीक होती है और समवसरण में भगवान के चार मुख दिखाई देते हैं। समयसरण में भगवान के पीछे बैठने वालों को भगवान के दर्शन नहीं हो सकते। इसी उद्देश्य को लेकर मंदिर में दर्शन करते समय भगवान के चारों मुखों का अवलोकन करने के लिए वेदी की प्रदक्षिणा दी जाती है एवं परिक्रमा दुनिया का सबसे बड़ा वशीकरण मंत्र है। परिक्रमा लगाने से सब वश में हो जाते हैं। शादी में जब एक लकड़ी की परिक्रमा लड़के-लड़की लगाते हैं तो ज्ीवन-भर के लिए एक-दूसरे के हो जाते हैं, यदि भक्त भगवान की परिक्रमा लगा ले तो भक्त और भगवान भी एक-दूसरे के हो जाएं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। प्रभु की परिक्रमा लगाने से संसार की परिक्रमा रूप जाती है।

प्रश्न-मंदिर में तीन ही प्रदक्षिणा क्यों दी जाती है?

उत्तर- तीनों प्रदक्षिणा मन की शुद्धता, वचन की शुद्धता और काय (शरीर) की शुद्धतापूर्वक की जाती है अर्थात है जिनेन्द्र! मैं अपने मन को विकारों से रहित कर, वचनों को सात्विक कर और शरीर को स्नानादि से शुद्ध करके आपको नमस्कार कर र