एषेंकरा तु नवकल्पलतेव भूयो, भूय: प्रपन्नऋतुकापि फलेन हीना।
आलोक्य केलिकल हंसवधूं सगर्भा, दध्यौ धरापतिवधूरिति दीन चेता।।
अब कुछ कह देती है यह गाथा दो लाइनों में, लोक में ऐसी कोई सुहागिनी नहीं जिसे मां बनने की चाहत ना हो, वह भी समय पर (परन्तु आजकल इसका अपवाद जैनों में बहुत देखा जा रहा है, जहां विवाह भी देर से हो रहे हैं और फिर मां बनने की चाह भी उतनी अंगड़ाई नहीं लेती, जितना आज से 50-60 बरस पहले तक था)।
आगे कलम बढ़ाने से पहले स्पष्ट कर दें उपरोक्त का अर्थ संक्षेप में, महारानी त्रिशला को विवाह के वर्षों बाद भी पुत्रलाभ नहीं हुआ, इससे वह खिन्न रहती थी, (चेहरे से मुस्कान मानो उड़ गई थी, उस की जगह उदासी ने घेर लिया था)। एक दिन ऋजुस्नान के बाद उद्यान पुष्करिणी पर कलिमग्न हंसवधू को देखा, वह हंसवधु गर्भवती थी। महारानी त्रिशला मन में विचारने लगी, मैं कल्पलता के समान नए-नए ऋजुमती होती हूं, किंतु फल कुछ नहीं, फल से शून्य हूं, पुत्र रहित हूं।
मां नहीं बन रहीं, नहीं मालूम था कि जो तीर्थंकर जीव उनके गर्भ में आने वाला है, वह तो फिलहाल स्वर्ग में आयु पूरी कर रहा है। यह ना जानते हुए उदास रहती, मुस्कराहट चेहरे से गायब हो चुकी थी, पीड़ा की शिकन, न चाहकर भी मस्तक पर दिख ही जाती थी। महाराज सिद्धार्थ कुछ पूछ भी नहीं पाते, क्योंकि वे जानते थे कि ऐसी कौन सुहागिन है, जो अपनी गोद में बालक को निहारना नहीं चाहेगी, उसको पाने के लिए नहीं तड़पेगी।
पर जब एक दिन उनके जागने पर नंद्यावर्त महल में रत्नों की वृष्टि होने लगी, तो चौंक गई, यह क्या हो रहा है। एक अजीब-सी जिज्ञासा मन में उठी, क्योंकि बीते पहर में उन्होंने 16 तरह के अजीबोगरीब स्वान देखे थे, सामान्यत: उन्होंने किसी को भी ऐसे स्वप्न देखते नहीं सुना था।
आकुलता चरम पर थी, उस दिन फटाफट तैयार हो गई और पहुंच गई महाराजा सिद्धार्थ के दरबार मे। एक बारगी तो वह भी विस्मित हुए बिना नहीं रह सके कि महारानी आज सवेरे-सवेरे दरबार में क्यों? ऐसी क्या अनहोनी हो गई उनके साथ? मन में अजीब तरह का कौतुहल हिलौरे ले रहा था।
एक तरफ महारानी ने मानो एक सांस में सभी स्वप्नों को जानने की जिज्ञासा, दूसरी तरफ विस्तेज चेहरे पर वो तेज लौटता दिखा, डबडबाते होंठ, खिलखिलाते दिखें, आंखों से बरसती खुशी, अश्रुधारा के रूप में अलग ही बयान कर रही थी, जब पता चला कि उनके गर्भ में जिन बालक का जीव आने वाला है।
और वह दिन था आषाढ़ शुक्ल षष्ठी का, जब पंचमी की रात्रि के अन्तिम प्रहर में दिव्य फलसूचक सोलह स्वप्न देखे थे और राज ज्योतिष ने गणना करके भावी तीर्थंकर बालक का गर्भावतरण घोषित किया।
तभी तो मानतुंग आचार्य ने भक्तामर स्तोत्र की 22वीं गाथा में कहा है –
स्त्रीणां शतानि शतशों जनयन्ति पुत्रान,
नान्य सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।
सर्वादिशो दधति भानि सहस्त्र-रश्मिम्
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम्।।