24 नवंबर 2024/ मंगसिर कृष्ण नवमी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/ शरद जैन /
वे बड़े ही मूर्ख है जो इस थोड़ी आयु पाकर, तपस्या के बिना अपने अमूल्य समय को नष्ट कर देते हैं। उस व्यक्ति के नेत्र निष्फल हैं, जो नेत्र होते हुए भी अंधकूप में गिरता है। वही दशा ज्ञानी पुरुषों की है, जो ज्ञान होते हुए भी, मोहरूपी कूप में गिरे रहते हैं। इस मोहरूपी शत्रु को वैराग्य रूपी तलवार से मारना ही श्रेयस्कर है।
बस इसी तरह महावीर स्वामी ने, 30 वर्ष की युवावस्था में, अपने राजमहल को बंदीगृह समझ कर, राज्य लक्ष्मी के साथ उसका परित्याग करने की ठान ली। स्व के साथ इस संसार के कल्याण के लिये यौवनावस्था में ही उग्र तप आरंभ करता हूं, जिससे कामदेव और पंचेन्द्रिय विषयरूपी शत्रुओं का नाश हो।
वैराग्य की भावना के बलवती होते ही महावीर स्वामी सांसारिक भोगों से दूरी बनाकर वैराग्य में वृद्धि हेतु बारह भावनाओं का चिन्तवन करने लगे। उधर सारस्वत आदि आठों लोकान्तिक देवों ने अवधिज्ञान से यह जानकर, महावीर स्वामी के तपकल्याणक मनाने का निश्चय कर लिया। उन्होंने धरा पर आकर उनकी स्तुति और विनयपूर्ण प्रार्थनायें की। इन्द्र ने 1008 स्वर्ण रत्नमयी कलशों से सिंहासन पर बैठाकर महावीर स्वामी का अभिषेक किया। दिव्य आभूषणों वस्त्रों से उन्हें खूब सजाया। तभी तो आप पंचकल्याणक के तप कल्याणक से पूर्व दीक्षार्थी को पूरे वैभव में देखते हैं।
महावीर स्वामी ने सभी को अपने उपदेशों से दीक्षा की बात समझा दी। इन्द्र द्वारा लाई गई देदीप्यमान चन्द्रप्रभा पालकी से वन की ओर बढ़े। पहले भूमिगोचरी देवों ने पालकी को सात कदम उठाया, फिर सात कदम आकाश मार्ग से लेकर विद्याधर बढ़े। फिर धर्ममयी समस्त देव उस पालकी को आकाश मार्ग से ले जा रहे थे। माता त्रिशला ने पुत्र के वनगमन का संवाद सुना, तो पुत्र वियोग में मूर्छित हो गई। शोक को सहन करते पुरजनों – बंधुओं के साथ पीछे-पीछे चलती विलाप कर रही थी – हे पुत्र! तू तो मुक्ति से प्रेम लगाकर तपस्या करने चला, पर मुझे तेरे बिना कैसे चैन मिलेगा? इस छोटी सी अवस्था में, तपस्या के महान उपसर्गों को कैसे सहन करेगा? शीतकाल की भयंकर पवन के बीच, तू दिगम्बर भेष में वन में विचरेगा, तब कैसे उस शीत को सहन करेगा? ग्रीष्म काल की ज्वालाओं से समस्त वन जल जाता है, उस ज्वाला को कैसे सहेगा? श्रावण-भाद्र की काली घटाओं को देखकर अच्छे-अच्छे साहसियों का भी साहस छूट जाता है, तू क्या इन सब कष्टों को सहन कर सकेगा? जैसे-जैसे ये विचार पुत्र के प्रति, मां के स्नेह, दुलार और ममत्व के कारण उठते, उनकी पीड़ा और बढ़ जाती। अब तक राजमहल में रहने वाला, जिसकी सेवा में स्वयं देव लगे हों, वह अति दुर्निवार इन्द्रिय-समूहों को, त्रैलोक्य-विजयी कामदेव को, कषायरूपी महाशुत्रओं को धैर्यपूर्वक क्या वश में कर सकेगा?
हां, तीर्थंकर तप को गये हैं, पर अनेक के साथ, तू बालक है और अकेला भयंकर वन, हिंसक जीवों के बीच उन गुफाओं में कैसे रह पाएगा? माता के बढ़ते कष्ट को देख महत्तर देव ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा – ‘माता, क्या तुम इन्हें नहीं पहचानती, ये तुम्हारे पुत्र ही नहीं, संसार के स्वामी और अद्वितीय शक्तिशाली जगद्गुरु हैं। संसाररूपी समुद्र में अपने आप को विलीन कर लेने के पहले ही यह आत्म-प्रदेशी अपना उद्धार तो कर ही लेंगे, साथ ही अनेकों भव्य जीवों का भी उद्धार कर देंगे – यही सत्य है। जैसे भयानक सिंह भी मजबूत रस्सी से जकड़ा जाने पर सहज ही दूसरे के वशवती हो जाता है, उसी प्रकार तुम्हारे पुत्र भी मोहादि पराक्रमी शुत्रओं को तपरूपी रस्सियों से बांधकर उन्हें अपने वश में कर लेंगे। इनके लिये संसाररूपी समुद्र का दूसरा किनारा पा लेना कतई दुर्लभ नहीं है, ऐसे सार्म्थ्यवान आपके पुत्र, दीनतापूर्वक कल्याणहीन गृह में कैसे रह सकेंगे? इनके ज्ञानरूपी तीन नेत्र हैं। वैराग्य उत्पन्न हो जाने पर कोई अंधकूप में क्यों गिरेगा? आप राजमहल लौटिए, अपनी प्रिय एवं इच्छित वस्तु के वियोग-काल में ज्ञानहीन पुरुष ही शोक किया करते हैं। ज्ञानी एवं बुद्धिमान सदैव संसार से डरा करते हैं, कल्याणकारी धर्म की उपासना करते हैं। ’
यह वही त्रिशला माता थी, जो महावीर के गर्भ के दौरान देवियों को प्रश्नों को सम्यक ज्ञान से अचंभित करती थी, आज उसी महावीर के बिछोह में, मोह की जंजीर से स्वयं बंधकर तड़प रही थी। महत्तर देव के उद्बोधन से पुन: ज्ञान का प्रकाश हृदय में जागृत हुआ और राजमहल की और लौट चली, फिर ममता ने पीछे मुड़कर वन को जाते पुत्र को दोबारा नहीं देखा – जाओ वीर कल्याण करो जगत का – शायद यही शब्द मन में बुदबुदा रही थी।