मांसाहारी को मिला मुनि उपदेश
व्रत धारण पाया ऋद्धिधारी वेष
यह नहीं कि इस पंचम काल में ही मांस, हत्या का जोर है, ऐसा चतुर्थकाल में भी था, और विदेह क्षेत्र में भी ऐसा होता आ रहा है, जहां सदा चतुर्थ काल का वातावरण रहता है। पुण्डरीकिनी नगरी, जहां कद 500 धनुष, आयु एक करोड़ पूर्व वर्ष, उसके वन में भीलों का राजा पुरुरवा। एक दिन वन में हिरण समझ निशाना लगाने को उत्सुक हुआ हमेशा की तरह। पर तभी उसकी पत्नी कालिका ने उसे रोका – ‘स्वामिन! संसार के कल्याण के उद्देश्य से ये वन देवता भ्रमण कर रहे हैं, इनकी हत्या कर पाप के भागी मत बनो।’ पत्नी के वचन सुन, उठा धनुष झुक गया। मुनि के पास पहुंच चरणों में मस्तक झुका दिया। सुनने का मिला उपदेश –
‘धर्म पालन से तीन लोक की लक्ष्मी प्राप्त होती है, चक्रवर्ती इन्द्र पद मिलते हैं, सभी सम्पदायें मिलती हैं और यह धर्म मद्य-मांस-मधु त्याग व सम्यकत्व सहित अहिंसादि पंच अणुव्रतों के पालन से प्राप्त होता है।
वर्तमान की तरह उसने एक कान से सुन दूसरे से निकाला नहीं। मांसादि का त्याग कर व्रत धारण किए। गंभीर रूप से बीमार होने पर कौवे का मांस औषधि के रूप में लेने से इंकार कर दिया। समाधिमरण करके वही मांसाहारी रहा भील सौधर्म नामक महाकल्प विमान में महाऋद्धिधारी देव हुआ।
मांसाहार छोड़, भील देव बन गया,
पापी भी व्रती बन,पुण्यशाली बन गया।
भगवान का वंश भी हो सकता खोटा,
देव होकर भी भव-भव रहा खोता
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के कौशल देश की अयोध्या नगरी, जिसका निर्माण सौधर्मेन्द्र ने वृषभदेव तीर्थंकर के जन्म के लिये किया था। उन्हीं के बड़े पुत्र चक्रवर्ती भरत की महारानी धारिणी के पुत्र हुआ भील का जीव ‘मरीचि’ बनकर। दादा को देख पोते के भी भाव बदले। उसने भी वृषभदेव के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। पर भूख प्यास आदि परिषहों को ज्यादा सहन नहीं कर पाया। उसके मन में विचार आया कि दादा जी ने गृहादि का परित्याग कर तीनों जगत को आश्चर्य में डालने वाली अपूर्व शक्ति प्राप्त की है, उसी प्रकार मैं भी अपने मत का प्रसार कर अपूर्व समताशाली हो सकता हूं। यानी मैं भी जगद् गुरु हो सकूंगा। बस अपनी इच्छा को पूर्ण करने के लिए मान-कषाय के उदय से उसने 336 मिथ्यामत की शुरूआत की। उसने बाह्य परिग्रहों के त्याग से अपने को जरूर सर्वत्र प्रसिद्ध किया और इस मिथ्या तप से पांचवें स्वर्ग से देव भी हुआ। पर त्रिदण्डी भेष धारण कर कमण्डलु लिये सम्यक्त्व को ग्रहण नहीं किया।
निश्चित ही, तीर्थंकर का पोता होने के बावजूद सम्यक्त्व के सस्ंकार नहीं ग्रहण कर सका और भव-भव भटका। और चिंतन कीजिए मिथ्या तप का फल पांचवां स्वर्ग तो सत्य तप की महिमा के तो क्या कहने!
तीर्थंकर का पोता भी अहम में भटक गया,
मिथ्यात्व के कारण भव-भव लटक गया।
खोटे तप तक से जब मिल जाये पद देव,
तब सत्य तप के फल का चिंतन करो स्वयमेव
मरीचि का जीव 5वें स्वर्ग में देवायु से च्युत होकर अयोध्या नगरी में कपिल – काली ब्राह्मण परिवार में ‘जटिल’ नामक पुत्र होकर जन्मा। पर पूर्व संस्कारों का मिथ्यामार्ग नहीं छूटा। संन्यासी बना और मिथ्यामार्ग का प्रचार किया। मिथ्यामार्गी निकृष्ट तप से सौधर्म नामक पहले स्वर्ग में देव बन गया।
देव आयु पूर्ण कर अयोध्या पुरी के स्थूणागार नगर में भारद्वाज-पुष्पदंता ब्राह्मण दम्पत्ति के पुष्पमित्र के रूप में जन्म लेकर पुन: कुशास्त्रों का अध्ययन कर, फिर संन्यासी बन सांशय मतानुसार प्रकृति आदि 25 तत्वों का उपदेश दिया। पर तप प्रभाव से फिर सौधर्म स्वर्ग देव बना।
इसके पश्चात भी वह अग्निसमूह नामक ब्राह्मण बन एकान्त मत के शास्त्रों का ज्ञाता, तत्पश्चात पाचंवें स्वर्ग में देव, पुन: अग्निभूत के रूप में मिथ्या शास्त्रों का अध्ययन कर माहेन्द्र देव, तत्पश्चात माहेन्द्र स्वर्ग में देव के बाद भारद्वाज के रूप में त्रिदण्डी दीक्षा ग्रहण की और पांचवें स्वर्ग में देव तो बन गया, पर फिर निम्न योनियों में जाना पड़ा, तभी तो कहते हैं –
हिंसक जीव तो एक ही जन्म दु:ख देते हैं,
पर मिथ्यात्व प्रभाव जन्म-जन्म हर लेते हैं।
मिथ्यात्व में फंसकर,न जा पाये छूट,
सम्यक्त्व को अपनाओ, पुण्य मिले अटूट
कुमार्ग को प्रगट करने के फलस्वरूप मिथ्यात्व के निमित्त से समस्त अधोगतियों में जन्म लेकर मरीचि के जीव ने भारी दुख भोगे। मिथ्यात्व के कारण सागरोपम काल इतर निगोद में व्यतीत करने अनन्तर अनेकों भव धारण किये, जिनमें –
॰ एक हजार आक वृक्ष के भव
॰ 80 हजार सीप के भव
॰ 20 हजार नीम वृक्ष के भव
॰ 90 हजार केलि वृक्ष के भव
॰ 3 हजार चंदन वृक्ष के भव
॰ 5 करोड़ कनेर के भव
॰ 60 हजार वेश्या के भव
॰ 5 करोड़ शिकारी के भव
॰ 20 करोड़ हाथी के भव
॰ 60 करोड़ गधा के भव
॰ 30 करोड़ श्वान के भव
॰ 60 लाख नपुंसक के भव
॰ 20 करोड़ नारी के भव
॰ 90 लाख धोबी के भव
॰ 8 करोड़ घोड़ा के भव
॰ 20 करोड़ बिल्ली के भव
॰ 60 लाख बार माता के गर्भ में गर्भपात
॰ 50 हजार राजा के भव
॰ 80 लाख पर देव भव
और आप ये सोच रहे थे कि भील व्रत धारण करके ही भगवान बन गया था।
पाप पुण्य कर्मों का जारी रहा खेल
इतर निगोद एकेन्द्रिय देव तिर्यंच मेल
संसार क्षणभगुंर जान बने जब मुनि,
पुण्य फलों की गाथा तब गई गुनी
भव-भव निम्न योनियों में भटक कर मरीचि का जीव स्थावर ब्राह्मण बन फिर त्रिदण्डी दीक्षा के बाद माहेन्द्र स्वर्ग में आयु पूर्ण कर विश्वनंदी पुत्र हुआ। पिता विखाखनंदी ने विलीन होते बादलों को देख दीक्षा ले ली और पुत्र को युवराज व अपने छोटे भाई विशाखभूति को राज्य सौंप दिया।
एक दिन विखाखभूति के बेटे विशाखानंद का मन विश्वनंदी के सुंदर बगीचे पर मचल उठा और पुत्र मोह के वशीभूत राजा ने युवराज को शत्रुओं से लड़ने जाने के आदेश देकर अपने बेटे के लिये बगीचा हड़पने का कुचक्र रच दिया।
किसी विश्वासपात्र ने युवराज विश्वनंदी को यह षड्यंत्र बताया व क्रोध में तमतमा गया। वापस लौटते क्रोधित युवराज को देख विशाखभूति एक वृक्ष के पीछे छिप गया। युवराज ने बाहुबल से वृक्ष उखाड़ उसके पीछे दौड़ा। डर कर वह खंभे के पीछे छिपा, पर मुष्टि प्रहार से युवराज ने उसे चकनाचूर कर दिया। घबराकर वह तिनके की तरह कांपने लगा। उसकी दीनता देख, सांसारिक भोगों के प्रति वैराग्य उत्पन्न हो गया, उसने सारी सम्पत्ति अपने चचेरे भाई विशाखानंद को दे दीक्षा ग्रहण की और अनशन तप कर शरीर को कमजोर कर लिया।
व्यसनों से घिरा विशाखानंद एक दिन वेश्या के कोठे पर था, तब मुनि विश्वनंदी वहां से गुजर रहे थे कि बछड़े ने सींग से धक्का देकर गिरा दिया। कोठे से ठहाका मार विशाखानंद ने व्यंग्य किया – कहां गया तेरा पराक्रम, शक्तिहीन तू तो मुर्दे की भांति दिखता है।
दुर्वचन सुन मुनि को क्रोध आ गया, नेत्र लाल हो गये, शब्द मुख से निकले- रे दुष्ट! मेरे तप के प्रभाव से तुझे अवश्य इस ठहाके व्यग्ंय का फल मिलेगाा। वह गया नरक में और मुनि विश्वनन्दि समाधिमरण से 10वें स्वर्ग में देव हुए।
मुनि स्वरूप की कभी न करना निंदा,
जीवन रहेगा आपका सदा खुशी और चंगा
रौद्र परिणाम से 7वें नरक का फल पाये,
पुण्योदय पर चक्ररत्न भी निष्फल हो जाए
प्रकृति की अजब कहानी, रिश्ते प्रेम के हैं, या शत्रुता के, आगे भव में बंध जाते हैं। विश्वनंदी मुनि के पिता देवायु पूर्ण कर पोदनपुर राजा की पहली रानी के बलभद्र पुत्र हुए और विश्वनंदी दूसरी रानी का पुत्र नारायण त्रिपृष्ट हुआ। वहीं विश्वनंदी का ठाहके मारने वाला चचेरा भाई भव संसार में भटकने के बाद अल्कापुरी राजा के अश्वजीव के रूप में आया। वह तीन खण्ड का अधिपति अर्द्धचक्री बन गया।
ध्यान रखें, एक बार की शत्रुता कई भव तक चलती रहती है। नारायण ‘त्रिपृष्ट’ से विवाह के लिए विद्याधरों के स्वामी के यहां अत्यंत सुंदरी ‘स्वयंप्रभा’ पुत्री हुई, जिसका विवाह निमित्तज्ञानी से पूछ त्रिपृष्ट से कराने का निर्णय हुआ। जैसे ही अश्वग्रीव को उससे विवाह का पता चला, वह विद्याधर राजाओं की सेनाओं के साथ युद्ध के लिये पहुंच गया। चक्री त्रिपृष्ट ने अश्वग्रीव को हरा दिया, पर हार देख मरणास्त्र चक्ररत्न चलाया, जो पुण्योदय के कारण त्रिपृष्ट की प्रदक्षिणा कर उनके पास ही ठहर गया। त्रिपृष्ट ने उसी चक्र को वापस अश्वग्रीव पर चला दिया। रौद्र परिणाम व आरंभ परिग्रह से सातवें नरक पहुंच गया।
पर इधर त्रिपृष्ट भी धर्मादि से दूर 16 हजार रानियों के साथ भोग परिग्रहों में लिप्त हो गया, खोटी लेश्या से वह भी 7वें नरक गया।
कर्मों का देखो यह खेल,
देव से हुआ नरक भव का मेल
शेर को मिला मुनि उपदेश,
भव-भव के काट लिये जैसे सारे क्लेश
त्रिपृष्ट का जीव 7वें नरक की आयु पूर्ण कर गंगा निकट वन में सिंह के रूप में जन्मा। फिर हिंसा से मरण के बाद सिंधू कूट के पूर्व हिमगिरि पर्वत पर क्रूर स्वभाव के सिंह के रूप में जन्मा। स्वभावानुसार एक दिन मृग को मार उसका मांस नोंच भक्षण करता जा रहा था। तभी कर्मों ने जैसे पलटी खा ली। आकाश मार्ग से जा रहे दो चारणमुनि ज्येष्ठ और अमिततेज उसके सामने एक उपदेश देने लगे – अरे मृगराज! आगे तू इसी भरत क्षेत्र में संसार का हित करने वाला 24वां तीर्थंकर होगा। अब तुम संसार बंध के कारण ऐसे मिथ्यात्व को हलाहल समझकर त्याग दो और समयक्त्व ग्रहण करो। श्रावक 12 व्रत धारण कर, अंतिम काल में संन्यास व्रत धारण कर प्राण त्याग करो।
धर्मरूपी प्रवचन सुन सिंह ने मिथ्यात्वरूपी विष उगल दिया। सदा मांसाहारी रहने के बावजूद धैर्य से व्रतों का पालन कर समाधिमरण से मृत्यु हुई और वह प्रथम स्वर्ग में सौधर्म इन्द्र हुआ।
मांसाहारी हत्यारा भी जब बन सकेगा भगवान,
तो श्रावक धर्म सम्यक्त्व से क्यों न होगा कल्याण
भव-भव ज्यों सुधरता गया
सोलह कारण भावनाओं से ‘तीर्थंकर’ बंध किया
देवायु पूर्ण कर वह सिंह का जीव कनकपुरा में कनकोज्ज्वल के रूप में जन्मा। तब उसने ऋद्धिधारी मुनि से धर्म का स्वरूप जाना और पूर्व के सभी खोटे ध्यान को त्याग, धर्म ध्यान में लीन समाधिमरण किया। फलस्वरूप सातवें स्वर्ग में देव हुआ।
आयु पूर्ण कर वहां से अच्युत हो अयोध्या में वज्रसेन-शीलवती के हरिषेण धर्म परायण पुत्र के रूप में जन्मा। अविनश्वर सुख की चाह में श्रुतसागर मुनिराज से दीक्षा ग्रहण की। समाधिमरण के बाद दसवें स्वर्ग में ऋद्धिधारी देव बने।
आयु पूर्ण कर पुण्डरीकिणी नगरी में सुमित्र-सुव्र्रता राजघराने में प्रिय नाम का पुत्र हो चक्रवर्ती बना। जैन धर्म में अटूट श्रद्धा थी। एक दिन क्षेमंकर जिनेश्वर की दिव्यध्वनि सुन सभी परिग्रहों का त्याग कर दीक्षा ग्रहण कर ली। चारों आराधनाओं का पालन कर प्रसन्न चित्त हो प्राणों का त्याग कर सहस्त्रार नाम के 12वें स्वर्ग में सूर्यप्रभ नामक महान देव हुए।
तत्पश्चात छत्राकार नगर में राजा नन्दिवर्द्धन व रानी सुशीला के ‘नन्द’ नाम के पुत्र हुए। राजा नन्द ने ज्ञान से सभी मोहरूपी शत्रुओं और कर्मों के समूह विनष्ट किये। प्रोष्ठिल मुनि के हितोपदेश सुन वैराग्य उत्पन्न हो गया। सोलह कारण भावनाओं का शुद्ध मन-वचन-काय से चिन्तवन कर ‘तीर्थंकर’ कर्म का बंध किया। सम्यक दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपरूपी चारों आराधनाओं का पालन करते हुए प्राण त्यागकर, 16वें स्वर्ग में पूज्य अच्युतेन्द्र देव हुए। और वहां से वे कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला के गर्भ में आये। और भवों पहले का मांसाहारी भील आदि तीर्थंकर का पोता बनते हुए शेर भव में उपदेश सुन, 24वां तीर्थंक र बनने के लिए धरा पर अवतरित हो गया।
नर-स्वर्ग-नरक-तिर्यंच भवों को किया पार
कुण्डलपुर में जन्म लिया वर्द्धमान अवतार
– शरद जैन, सांध्य महालक्ष्मी भाग्योदय