हम ही नहीं दूसरे की प्रशंसा से जलते, बल्कि देव भी इस धरा की प्रशंसा से जलते हैं

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विश्वास कीजिये! दूसरे की समृद्धि, विकास, सम्मान, प्रतिष्ठा, बुद्धि, एश्वर्य देखकर केवल हमारे भीतर ही ईर्ष्या-द्वेष की घंटिया बजने लगती है, बल्कि ऐसा स्वर्ग में भी खूब होता है।

ऐसा ही तब हुआ, जब इन्द्र की सभा में देवों ने जिन बालक की प्रशंसा शुरू हुई। देव चर्चा करने लगे कि – ‘देखो, वीर जिनेश्वर तो कुमार अवस्था में ही धीर-वीरों में अग्रणी, अतुल पराक्रमी, दिव्य रूपधारी एवं अनेक गुणों के धारी सांसारिक क्रीड़ा करते हुए कितने मनोज्ञ प्रतीत होते हैं। छोटी सी बाल उम्र में ही इतने निडर – साहसी कि वर्णन करना भी मुश्किल है।’

बस इतना ही सुनना था कि संगम देव को अपने पराक्रम बल पर घमंड के कारण ईर्ष्या होने लगी। जरा मैं भी देखूं जरा से बालक की बहादुरी निडरता को, जरा इन सब को भी दिखा दूं कि देवों के सामने कौन टिक सकता है।

बस जिन बालक ‘वर्द्धमान’ की परीक्षा लेने स्वर्ग से धरा पर उतर आया। पहुंच गया उसी वन में जहां ‘वर्द्धमान’ बालक अपने अन्य सखा-मित्रों के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। खेलने लगा, हराने के लिये, पर खेल में हारते देख, संगम देव मानो बिलबिला गया, जरा-सा बालक मुझे हरा देगा, बर्दाश्त नहीं हुआ।

बस अगले ही पल ‘वर्द्धमान’ को डराने के उद्देश्य से काले सर्प का विकराल रूप बनाया। सामने वाले पेड़ की जड़ से ऊपर तने तक लिपटकर, फुंकारे मारने लगा।

सारे बालक उसे देखकर भागने लगे, कोई इस डाल से कूदा, कोई दूसरी डाल से। पर क्या मजाल ‘वर्द्धमान’ एक पग भी पीछे हटे हों। वह बालक तो जैसे उस भयानक फुंकारते काले सर्प की आंखों में आंखें डालकर मानो बलहीन कर रहा था, चिंतन कर रहा था,

अब तक अपने मित्रों के साथ खेल रहा था, अब तेरे फण पर चढ़कर खेलूंगा। बस फिर क्या था, उस फुंकारते काले विशाल सर्प पर चढ़कर ऐसे अठखेलियां करने लगे, मानो मां की गोद में बच्चा मुस्कराता पैर मारता हो।

संगम देवउनके बल, धैर्य, शौर्यता, वीरता को देखकर चकित हो गया, नहीं रोक सका अपने को। वास्तविक रूप में आकर दण्डवत प्रणाम किया – है धीर-वीर! आप तो कर्मरूपी शत्रु के विनाशक और समग्र जीवों के रक्षक हो।

स्तुति, गुणानुवाद करता जा रहा था, और जिन बालक मंद-मंद मुस्करा रहे थे, वह उनके ‘महावीर’ नाम को सार्थक कर रहा था, और बालक का उठता हाथ, उसको आशीर्वाद दे रहा था।