11 अप्रैल 2022//चैत्र शुक्ल दशमी /चैनल महालक्ष्मीऔर सांध्य महालक्ष्मी/
तीर्थंकर महावीर के कल्याणकारी संदेश”
प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ एवं अन्य बाईस तीर्थंकरों द्वारा मानव से भगवान बनने के मार्ग को पुन: आलोकित और प्रतिष्ठापित किया चौबीसवें तथा अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने। तीर्थंकर महावीर का जन्म 599 ईसा पूर्व, चैत्र मास, शुक्ल पक्ष, त्रयोदशी मध्य रात्रि को बिहार में वैशाली कुण्डग्राम में हुआ था। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने अपने ग्रंथ वैशाली का अभिनंदन में लिखा है – :
“वैशाली जन का प्रति पालक, गण का आदि विधाता।
जिसे ढूँढ़ता आज देश, उस प्रजातंत्र की माता ।।
रुको, एक क्षण पथिक यहाँ, मिट्टी को शीश नवाओ।
राज्य सिद्धियों की समाधि पर, फूल चढ़ाते जाओ ।।”
अब से लगभग छब्बीस सौ इक्कीस वर्ष पूर्व जैनधर्म के चौबीसवें एवं अन्तिम तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर ने भारत की वसुंधरा वैशाली (विहार) के कुण्डग्राम में जन्म लेकर राजा सिद्धार्थ तथा त्रिशला माँ को ही धन्य नहीं किया था, वरन् विश्व के प्राणीमात्र को जीवन के कल्याण का मार्ग बताया। उन्होंने धार्मिक पाखण्डों तथा हिंसा आदि से त्रस्त प्राणियों के जीवन को सुख-शान्ति प्रदान करने के लिए अहिंसा रूपी अमृत की संजीवनी देकर, साथ ही अपने अनेकों हित उपदेशों से सभी को दिव्यज्योति दिखाई । उनकी दिव्य देशना के अनमोल रत्नों में से अनेकान्त, अहिंसा, अपरिग्रह आदि अनेक ऐसे सिद्धांत रत्न हैं जो मानव- जीवन की सफलता आत्मिक सुख एवं राष्ट्रीय सामाजिक जीवन के लिए सुखद और लाभप्रद हैं। यहाँ तीर्थंकर महावीर के कुछ प्रमुख सिद्धांतों का व्यावहारिक रूप प्रस्तुत है।
अहिंसा – :
अहिंसा को भगवान् महावीर ने सर्वोपरि स्थान दिया और कहा कि समाज तभी सुखी रहेगा, जब हम-सभी एक-दूसरे के सुख-दु:खों का अनुभव करें। इसलिए उन्होंने “जियो के और जीने दो” की संस्कृति का उद्घोष किया है और इसे मात्र मनुष्य तक ही सीमित नहीं रखा वरन् सृष्टि के सभी छोटे-बड़े पशु-पक्षी, जीव-जन्तु तथा आँखों से न दिखाई देने वाले सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों के संरक्षण, इनके प्रति दया, करुणा एवं वात्सल्य की भावना रखने को प्रेरित किया । उन्होंने अहिंसा को समझाते हुए कहा “सव्वे जीवा वि इच्छन्ति, जीविउं न मरिज्जिदुं” अर्थात् संसार के समस्त प्राणी सुखपूर्वक जीना चाहते हैं,मरना कोई नहीं चाहता अत: सभी जीवों को अपना जीवन प्यारा होता है तथा उन्हें भी सुख-दु:ख की संवेदना होती है । अत: उन्हें कभी सताना और मारना नहीं चाहिए।
अहिंसा का मन – वचन – काय (शरीर) इन तीन स्तरों पर पालन करने से पर पालन करने से ही उसकी श्रेष्ठता मानी जाती है। प्रथम- मन के स्तर पर शुद्धि अर्थात् किसी के प्रति बुरा नहीं सोचना। दूसरा- वचन (वाणी) के स्तर पर अर्थात् वाणी पर संयम, हित-मित-प्रिय बोलना, अन्यथा मौन रहना, ताकि गलत शब्दों से किसी को भी दु:ख न हो । तीसरा-काय अर्थात् शरीर से की गई क्रियाओं में विवेक तथा सावधानी रखना। ताकि किसी जीव का प्राणघात न हो और न उसे सताया जाय ।
पृथ्वी, नदियाँ, जंगल, सभी प्रकार की वनस्पति, पशु-पक्षी सभी प्रकृति के अंग हैं और इनके साथ मनुष्य का गहरा तादात्म्य है। इनका अनावश्यक दोहन, मानव समाज के लिए घातक है। पर्यावरण भी प्रदूषित होता है। इससे सम्पूर्ण संसार को खतरा है। पर्यावरण की शुद्धि बहुत आवश्यक है अत: मानव को इस प्रकृति के साथ सद् व्यवहार करना ही श्रेयस्कर है। कहा भी गया है कि
“नदी स्वयं न जल पीती हैं, फल न खाते स्वयं तरुवर ।
अपने लिए गाय नहीं दुहती,यह निश्चय जानो प्रियवर ।”
जब प्रकृति और सम्पूर्ण प्राणी जगत् मनुष्य के प्रति इतनी उदार और परोपकारी है, तो फिर हम क्यों स्वार्थ की आधी में प्रकृति से छेड़छाड़ करके सब कुछ नाश करने पर तुले हुए हैं ।
“अहिंसा परमो धर्म:” इस मूलमंत्र के कारण ही भारत को विश्वगुरू की संज्ञा प्राप्त थी। आज सारा विश्व हिंसा की भयानकता से भयभीत है, त्रस्त है अहिंसा की जीवनशैली को आत्मसात करने की ओर अग्रसर है, ताकि प्रेम, शान्ति, मैत्री और समन्वयता का वातावरण तैयार हो सके । अहिंसा सार्वभौमिता का दर्शन है। इसमें सबका कल्याण निहित है। महावीर ने कहा- ” मित्ती मे सव्व भूयेसु” अर्थात् मैं सम्पूर्ण विश्व का मित्र हूँ, मेरा किसी से वैर नहीं- इस भावना में ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ की उक्ति चरितार्थ होती है। यह मंत्र विश्वशांति के लिए प्रकाश स्तंभ की तरह है ।
धम्मो मंगल मुक्किट्ठं अहिंसा संजमो तवो,
देवा वि तं नमस्संति जस्स धम्मे सया मणो ।।
अर्थात् धर्म श्रेष्ठ मंगल है। अहिंसा , तप और संयम धर्म के तीन रूप हैं, जिनका मन धर्म में स्थिर है, उन्हें देवता भी नमस्कार करते हैं ।
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को अहिंसा का मर्म समझाने वाले, उनके गुरू श्रीमद् रामचन्द (जैनसंत) थे, ऐसा गाँधी जी ने स्वयं लिखा है। महात्मा गाँधी ने उसी अहिंसा का जीवन व्यवहार में हर क्षण प्रयोग किया और इसी के आधार पर भारत को स्वतंत्र कराकर अहिंसा सिद्वान्त की श्रेष्ठता सिद्ध कर दिखाई।
आज इस अहिंसा पर लोगों का ध्यान कम हो गया है और परिणाम स्वरूप समाज में अनेकानेक विकृतियाँ आ गई हैं । इन विकृतियों से दुखी होकर किसी शायर की ये पंक्तियां याद आ रही हैं-
सभी कुछ हो रहा है, इस तरक्की के जमाने में,
मगर ये गजब है, आदमी इंसा नहीं होता ।
बात बड़ी सीधी है, परन्तु इसमें बड़ा मर्म छुपा है। आज दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर भी मनुष्यता की बेहद कमी है। किन्तु दया, करूणा, परोपकार ,सहिष्णुता, सद्भावना, संवेदना, प्रेम वात्सल्य-जैसे गुणों से परिपूर्ण होने में ही मनुष्य जन्म की से गरिमा है। कहा भी है –
“हिंसा से शांत होता नहीं हिंसानल ।
महावीर की अहिंसा में है सबका मंगल ।।”
अनेकांत – इसी प्रकार उनके अनेकांत सिद्धान्त को समन्वय और सह-अस्तित्व के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण माना है । महावीर ने अनेकांत के रूप में एक नई दृष्टि प्रदान की है। अनेक और अंत इन दो शब्दों के मेल से अनेकान्त को समझाया गया है कि – एक वस्तु में अनेक धर्म अर्थात् गुण विद्यमान हैं। परन्तु इनका सम्पूर्ण रूप से एक साथ कथन संभव नहीं है क्योंकि शब्दों की या वचनों की एक सीमा होती है। एक बार में सम्पूर्ण सत्य सामने न आकर सत्यांश सामने आता है। अत: किसी के एक पक्ष को सत्य बतलाकर और एक पक्ष को झूठा कहकर दूसरों के विचारों का अनादर न करें। अपितु हम आपसी संबंधों में सौहार्द भाव रखें। अपनी बात के लिए ऐसा “ही” है या जो हम देख रहे हैं या कह रहे है वही सही है, अन्य गलत हैं। इस तरह के दुराग्रहों से बचने के लिए ऐसा “भी” हो सकता है, संभावना की दृष्टि से दूसरों की बात को भी आदर दें, यही अनेकांत शैली है। इसमें सर्वधर्म समभाव जैसे विश्व मूलमंत्र का जन्म होता है। जीवन व्यवहार की समता तथा अहिंसा की साधना में अनेकान्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह तीर्थंकर महावीर भगवान की नवीनतम देन है।
अपरिग्रह – अहिंसा और अनेकान्त की स्थापना का आधार है अपरिग्रह। आर्थिक समृद्धि यदि अहिंसा को केन्द्र में रखकर हो तो भ्रष्टाचार का उन्मूलन संभव है। महावीर के अहिंसा आदि व्रतों में अपरिग्रह का जो चिन्तन है, वह नैतिक समाज की नींव को सुदृढ़ करने में अत्यधिक सहायक सिद्ध होता है। अपरिग्रह अर्थात् परिग्रह की एक सीमा रखना। आकाश के समान अनन्त इच्छाओं-कल्पनाओं को संयमित करते हुये अपनी अति आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए न्यायोपार्जित अर्थ (धन) अपने पास रखना क्योंकि यदि उन अनन्त इच्छाओं की पूर्ति में हमारा यह अमूल्य जीवन भी कम पड़ सकता है और पृथ्वी की सारी सामग्री भी कम पड़ सकती है। अत: इच्छाओं को ही सीमित रखना श्रेयष्कर है ।
विलासिता में मनुष्य अपने को सीमा के बाहर पाता है, उसे सिर्फ अपना स्वार्थ ही नजर आता है शेष सब तुच्छ । स्वार्थपूर्ति में येन-केन प्रकारेण जैसे भी हो,मनुष्य धन कमाना चाहता है और वह पतन के मार्ग की ओर क़दम बढ़ा लेता है। परिणाम स्वरूप दूसरों के अधिकारों का भी हनन करता है, जिससे सामाजिक विकृतियाँ पैदा हो जातीं हैं। परिग्रह को महावीर ने “मूर्छा” (आसक्ति) कहा है। अपरिग्रही की आसक्ति और इच्छाएँ सीमित होती हैं, वह समाज से आवश्यकतानुसार ही बिना किसी छल, कपट के ग्रहण करता है ताकि समाज के अन्य व्यक्तियों की भी श्री पूर्ति हो सके।
तीर्थंकर महावीर ने कहा जीवन में चरित्र ही सब कुछ है। बाहरी सुन्दरता के लिए व्यक्ति क्या कुछ नहीं कर गुजरता ? आज सौन्दर्य प्रसाधन के निर्माण में कितने निरपराध, निर्दोष , निरीह पशुओं को जीते जी अनेक यातनायें देकर उनकी निर्मम हत्या की जाती है। धन कमाने के लिए मांस निर्यात करने के बहाने कितने बूचड़खाने खोले जा रहे हैं। इस तरह लाभ और लोभ की कभी सीमा नहीं हो पाती और हम चारित्रिक पतन की ओर बढ़ते चले जाते हैं । आचार-विचारों की पवित्रता द्वारा ही मनुष्य को देवत्व की प्राप्ति होती है और इसके लिए आन्तरिक सौन्दर्य अनिवार्य है- जो प्रेम, दया, सहयोग, समर्पण की भावनाओं द्वारा ही संभव है। कहा भी है –
“भ्रष्टाचार मत करो, रखो नीयत साफ़,
पुरुषार्थ और भाग्य से, मिलेगा अपने आप ।
मानव में हो मानवता, तो शांति सारे देश में,
है देशना सर्वोदयी, महावीर के संदेश में ।।
इस तरह भगवान महावीर के सर्वोदयी अहिंसा आदि सभी सिद्धांत सम्पूर्ण जगत् के लिए कल्याणकारी हैं और इन सिद्धांतों को अपनाकर सम्पूर्ण विश्व में शांति स्थापित हो सकती है।
-डॉ. इन्दु जैन राष्ट्र गौरव दिल्ली 9654403207