4अप्रैल 2022//चैत्र शुक्ल तृतीया /चैनल महालक्ष्मीऔर सांध्य महालक्ष्मी/
देव बन जाये, फिर अगला भव उच्च कुल में मिले जरूरी नहीं। जब देव बनकर भी धर्म करना, उपदेश सुने, तो अच्छा फल मिलता ही है। कर्मों का यही हिसाब है। पुरुरवा भील, देव बनकर भटका नहीं, पुण्य उपार्जन किया, और वहां आयु पूर्ण कर प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ के ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती की पटरानी धारिणी के गर्भ में जन्म लेता है और नाम होता है मरीचि। पूरा परिवार ज्ञानवान, तप-त्याग की पराकाष्ठता को छूता है।
जब ऋषभदेवजी ने संसार के सभी ऐश्वर्य को त्याग, तप को चले, तो चार हजार और साथ चले, उनमें से एक यह भी था मरीचि। वज्रशरीरी तो 6 माह का संकल्प ले कायोत्सर्ग मुद्रा में तप करने लगे, पर मरीचि शेष सहित, दो-तीन माह में ही भूख-प्यास से व्याकुल हो गये। वापस लौट नहीं सकते थे। वन देवता की चेतावनी से मुनि वेश त्याग कर संन्यासी का वेश धारण कर लिया।
एक हजार वर्ष के कठोर तप के बाद श्री वृषभदेव महामुनिराज केवलज्ञानी हो गये। इन्द्रादिक देवों ने आकर पूजा की, भगवान बन गये। यह देख मरीचि के मन में विचार आया – गृह तो मैंने भी त्यागा है, अगर इन्होंने अपूर्व शक्ति प्राप्त की है, अपूर्व क्षमताशाली हैं, तो मैं क्यों नहीं जगद्गुरू हो सकता। बस त्रिदण्डी का वेश धारण कर, कमण्डलु हाथ में ले, शरीर को भयानक कष्ट देता, बाह्य परिग्रह त्याग ख्याति प्राप्त कर मिथ्यामत का उपदेशक बन गया। तब वह मृत्योपरांत, अज्ञान तप के बल पर, पांचवें स्वर्ग में देव बना। पर मिथ्यात्व का पोषक करते-करते असंख्य भवों में भटकता रहा, फिर सिंह की पर्याय में, दो चारणऋद्धिधारी मुनियों के उपदेश से, जीवन को संभाला और 24वें तीर्थंकर होने का बंध किया।