इधर धरा पर जिन बालक का जन्म, उधर स्वर्ग में देवों के सिंहासन कम्पायमान

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महारानी त्रिशला माता के गर्भ में वर्द्धमान जिन बालक को जैसे ही नवां महीना पूरा हुआ, तब उनकी मुखाकृति बहुत देदीप्यान हो गई थी। उस कांति-शोभा को शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता। वह शुभ दिन चैत्र मास, की शुभ शुक्ल की त्रयोदशी के यमणि नाम योग में महादेवी ने अवलौकिक पुत्र को इधर कुंडपुर में जन्म दिया, उधर तत्क्षण स्वर्ग में चारों निकायों के देवों के सिंहासन कम्पायमन हो गये व बिना बजाये ही वाद्यों की सुमधुर ध्वनि शुरू हो गई। सौधर्म इन्द्र अवधि ज्ञान से तत्काल समझ गया, धरा पर तीर्थंकर बालक ने जन्म ले लिया है।

सिंहासन से उतरा, सात कदम आगे बढ़ा और साष्टांग नमस्कार किया और फिर सातों प्रकार की सेनाओं और पूरे दल बल के साथ वह चला महाराज सिद्धार्थ के राजमहल की ओर। आकाश में कल्पवृक्षों की अनवरत पुष्पवर्षा के बीच ऐरावत पर बैठा सौधर्म इन्द्र मानो तड़प रहा था, उस जिन बालक को निहारने के लिए। पर उसका सौभाग्य अभी जगा कहां था।

राजमहल के गर्भगृह में प्रवेश का पहले अधिकार तो इन्द्राणी को मिला और इन्द्र तो मानो द्वारपाल की तरह खड़ा रह गया। प्रसूतिगृह में इन्द्राणी ने बिना क्षण खोये दिव्य देहधारी कुमार व जिन-माता का दर्शन कर गुणानुवाद शुरू किया। फिर माता त्रिशला को निंद्रित कर उनके आंचल के पास एक मायावृत बालक बना कर, सुलाकर, अपने हाथों में शिशु भगवान को उठाया तो उसके खुशी से हाथ कपकपा रहे थे।

वह निहारती बढ़ रही थी कि, किस पल उसे व्याकुल इन्द्र ने ले लिया, उसे पता ही नहीं चला। फिर सौधर्म इन्द्र ने स्तुति शुरू की। सर्वांग में नेत्र बना लिये, पर अपलक देखने की प्यास भी क्या थी, सहस्त्र नेत्रों से निहारने पर भी, जरा-भी शांत नहीं हुई। कैसे दृश्य होंगे, तभी तो आज भी कहते हैं,
तेरी मूरत इतनी प्यारी, तू कितना सुंदर होगा।