बिना होठ हिले उपदेश, बिना उपकरण(जैसे लाउडस्पीकर के) 718 भाषाओं में एक साथ 12 किमी तक सुनो

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क्या आप ऐसा संभव मान सकते हैं आज की विज्ञान की दुनिया में? क्या कोई मुंह पर जरा परिवर्तन लाए बिना, यानि न होठ हिले, न तालु और उपदेश दे, लगातार दो घंटे 24 मिनट तक, दिन में तीन या चार बार और वहां मौजूद लाखों साधु-साध्वियों, मनुष्य-पशु-जानवरों को अपनी-अपनी भाषा यानि कुल 718 भाषाओं में बिना किसी उपकरण के समझ आ जाये। उपकरण से अनुवाद संभव है कुछ भाषाओं में, जैसे संसद में, अनेक अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों में देखा जाता है कि एक भाषा में बोले शब्द, अनेक भाषाओं में उपकरण के माध्यम से पहुंच जाते हैं और यही नहीं इसे एक योजन तक बिना किसी उपकरण जैसे लाउडस्पीकर के सुना जाता है, एक योजन यानि 8 मील यानि 12 किमी।

पर आज से करोड़ों-करोड़ वर्ष पूर्व से 2546 वर्ष पूर्व तक, 24 विभिन्न समयों पर इस भरतक्षेत्र के, यानि भरत चक्रवर्ती के नाम पर पड़े भारत वर्ष में, बिना उपकरण के होता रहा है, जब सैकड़ों नहीं, लाखों, एक सभा में अपनी-अपनी भाषा में, समझ कर पूर्ण संशय को खत्म कर लेते थे।

अंतिम बार ऐसा देखा गया तीर्थंकर महावीर स्वामी के द्वारा और तीनों लोकों में केवल तीर्थंकरों के पास ही ऐसा चमत्कारिक गुण होता है कि केवलज्ञान होने के पश्चात उनके मुख से एक विचित्र गर्जना के रूप में, ओंकार ध्वनि निकलती है, जिसमें उनके ओंठ, तालु, कंठ, दांत, बिल्कुल नहीं हिलते। (कुछ का मानना है कि यह उपदेश, जिसे दिव्यध्वनि कहते हैं, अनक्षरी रूप में होती थी, पर अनक्षरी का अर्थ कोई कैसे समझेगा? कुछ का मानना है कि यह मुख ही से नहीं, पूरे शरीर से, यानि सर्वांग से निकलती थी) पर प्रख्यात विद्वान रतन लाल बैनाडा जी ने कई बार बताया कि यह सर्वांग से नहीं केवल मुख से खिरती है। यह उपदेश इतना रहस्यमयी होता है कि केवल इन्टरपरेटर ही समझ पाते हैं, जिन्हें गणधर कहते हैं। जैसे पोस्ट ग्रेजुएट की कक्षा में पहली कक्षा के छात्र हों तो, क्या समझेंगे, वैसे ही तीर्थंकर का उपदेश गणधर ही समझ पाते हैं।

बिना किसी उपकरण के, सहयोग के, हर किसी को अपनी-अपनी भाषा में समझ आ जाये वो अंग्रेजी, हिंदी, तमिल, गुजराती आदि अनेक भाषायें ही नहीं, चिड़ियों की चूं-चूं, कबूतर की गुटरगू, हाथी की चिंघाड़, शेर की दहाड़, बकरी की मैं-मैं, गाय का रंभाना, भालू का गुर्राना, बंदर का बड़बड़ाना – यानि सब, अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं। यह दुनिया का एक असंभव चमत्कार है, और तीर्थंकरों का अतिशय। आचार्य श्री जिनसेन इसे सर्वभाषात्मक कहते हैं।

कुछ लोगों की धारणा है, कि यह देवों के द्वारा सर्वभाषा में परिणत की जाती है, किन्तु पूर्वाचार्यों की मान्यता है कि ऐसा मानने पर यह महात्म्य तीर्थंकर का न मानकर, देवों का मानना पड़ेगा, जो ठीक नहीं है।

जैनों में सर्वमान्य आचार्य श्री कुंद कुंद स्वामी जी ने इसे स्पष्ट किया है, ‘दंसणपाहुड़’ ग्रंथ में, उनके अनुसार, तीर्थंकर केवली की बिना किसी चेष्टा के मेघगर्जना के समान अनक्षरात्मक ‘ऊं’ ध्वनि निकलती है, वह श्रोताओं के कानों में प्रवेश करते समय उनकी योग्यतानुसार उनकी भाषा रूप होकर परिवर्तित होती है। इसमें मागध देवों का सन्निधान रहता है, पर प्रमुखत: यह तीर्थंकर का अतिशय है, (यानि तीर्थंकर आदिनाथ से महावीर स्वामी का, इस भारत वर्ष में)। हां, भाषा के प्रसार में मागध देव सहयोग देते हैं। तीर्थंकरों की ध्वनि में ऐसी स्वाभाविक शक्ति होती है, जिससे वह 18 महाभाषा और 700 लघु भाषाओं में परिणत होती है।

यह चमत्कार, अजूबा, अतिशय है जैन तीर्थंकरों का, जो सदा ही होता है।
— शरद जैन –