वर्तमान को वर्धमान की आवश्यकता है और आ ही गये वर्धमान, फिर हुआ क्या…

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19 अप्रैल 2024 / चैत्र शुक्ल एकादशी/चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/ शरद जैन
आज हर कोई गुनगुनाता है, गाता है, थिरकता है, भाता है, और यही सोचता है कि पंचम काल के इस 2024 वर्ष में जब पूरा विश्व उनका 2550वां मोक्षकल्याणक मना रहा है, और वो सदा के लिये सिद्धालय में विराजमान हैं और वहीं रहेगें, तब हम क्यों कहते हैं, वर्तमान को वर्धमान की आवश्यकता है। हां, भक्त की भक्ति अटूट हो, तो भगवान को भी मानना पड़ता है, मान लेते हैं सौधर्म इन्द्र की तरह वह मूल स्वरुप में इस धरा पर नहीं आते, पर उन्हीं की एक छवि आती है। ठीक उसी तरह कार्य सब, पर कोई नहीं जान पाता कि यह मूल स्वरूप नहीं है, बस, यही मान लेते हैं कि लोगों की इस मांग पर-वर्तमान को वर्धमान की आवश्यकता है और सिद्धालय से उनका एक रूप इस धरा पर आ ही गया, अब आगे सांध्य महालक्ष्मी की कलम से…..

हां, तब 2623वर्ष नौ माह पहले वर्द्धमान, माता त्रिशला के गर्भ में आये थे और हां उससे 6 माह पहले ही स्वर्ग से कुबेर हर दिन चार बार साढ़े तीन करोड़ रत्नों की बरसात करता है, अब ऐसे तो 15 माह बाद ही जन्म होगा, पर ऐसा कौन सा राजमहल चुने हम पंचम काल में वर्धमान की आवश्यकता तो है, पर उसके२ लिये माता पिता किसे चुने, अवधी ज्ञान से पता चल गया कि आर्य खण्ड के भरत क्षेत्र के भरत देश में उसी का छोटा रूप पंचकल्याणक के रूप में देश में कई जगह मनाया जा रहा है। पर क्या कहीं, कोई वर्द्धमान के मां बाप के अनुरूप हो सकता है, एक क्षण में छान मारा, कोई नहीं दूर दूर तक नहीं वर्द्धमान को वर्तमान में अवतरित होने की बात तो सब कर रहे हैं, पर ऐसी कोख तो तैयार नहीं कर रहे। कलयुग में चतुर्थ काल की चर्या यहां सब साधु संतो से तो चाहते हैं, पर स्वंय अच्छे श्राावक बनना नहीं चहाते, तभी तो 21 हजार यह पंचम काल चौथे काल से बिल्कुल अलग …दुखमा काल है यह।

सामायिक व्रत साधना तो दूर षट् आवश्यक भी नहीं यहां तो पूछते हैं कि आगम में कहां लिखा कि आलू आदि खाना निषेध है, पानी छान कर पीना कहां लिखा है, सरकारी पाइपलाइन का पानी क्यों ना पिये। कई तो कमेटियों की कुर्सी पर ऐसे चिपके हैं,जैसे साथ ही लेकर जायेंगें, किसी ने धंधा बना लिया है दान का, कोई निर्माल्य का ही भोग लगा रहा है। किस -किस पंचकल्याणक में झांके वर्धमान। बजट करोड़ो का है, स्वर्ग के वैभव को लाने की कोशिश दीवारों के भीतर, बाहर मेरे ही मंदिरों में अभिषेक नहीं हो रहा सिंदूर पोत रहे हैं, मेरे को ही कपड़े पहनाने की कोशिशे हो रही हैं। पर इनको कोई चिंता नहीं, माथे पर शिकन नहीं, दान के वोट से ज्यादा नाम, माला, समान की ऐसी भूख जो शांत नहीं होती। रास्ते में आते हुए भूखें को दुत्कार देते हो, दो-चार रुपये का मोलभाव करते हैं। कैसे कुबेर आये 15 माह तो क्या 15 सेकेंड भी रत्नों की वर्षा करने।

तभी रत्नों के रूप में रंग -बिरंगे प्लास्टिक के टूकड़े बिखरते देख अपनी नासा पुष्टि को न उठाते समझ गये ये बस इसी से खुश हो जाते है। जन्म-मरण विनाशाय, संसार ताप विनाशाय, सुधा रोग विनाशाय, मोह विनाशाय बोलने वाले चहाते कुछ और ही मोक्ष फल में इन्हें बादाम, लौंग, अनार, सेब, केला आदि से ज्यादा कुछ नहीं चाहिये।

और ये तो आज इस पर लड़ रहे हैं कि कौन सा नारियल मेरी मूरत के आगे चढ़ाऊं सूखा या गीला, मेरी मूरत पर जल डालू या दूध, कई तो मुझे कपड़े पहनाकर पूज रहे हैं, तो कोई मेरी मूरत को ही नहीं मानता और तो अब ऐसे भी बन गये जो कहते हैं पहले वाले साधू थे, आज वाले नहीं हैं। कितना बदल गया है ये इंसान?

वर्द्धमान इन्हें चौथे काल वाले चाहिए, पर स्वयं छठे काल में जी रहे हैं। वर्तमान में वर्धमान की आवश्यकाता है, लिखने वाली सांध्य महालक्ष्मी की तरफ भी देखा, उसके पन्नों को पलटा, ये कौने से अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह अचौर्य से रंगे हैं, एक तथ्य ही सत्य है इसमें, पूरा सच तो न बोल सकते, न लिख सकते, अनुभव कर सकते हैं। देखते-देखते गर्भकल्याणक विभिन्न मंचों पर वर्धमान ने देख लिया पर उन्हें न त्रिशला माता, न सिद्धार्थ पिता का एक अंश कहीं नहीं दिखा। वर्धमान के रूप में पत्थर और धातु के चेहरों में लोग वर्धमान को ढूंढते भी देखे। लग रहा था, वर्तमान मेें इनको हड्डी से बनाये वर्धमान चाहिये। वैसे इन्होंने भी कहा कब कि इन्हें चौथे काल वाले वर्धमान चाहिये। वर्धमान किसी एक सम्प्रदाय के नहीं थे, जिसकी गिनती 44,51,753 बताते हैं, और जो अपनी पहचान भी सही नहीं बता पाता वो वर्धमान का कैसे हो सकता है। वर्धमान का तो पूरा लोक था, सब समान थे। पर इन्होंने तो अपने -अपने मंदिर के नाम पर संतों के नाम पर जगहों के नाम मुझे बांट दिया है। देखने में पुजारी, मांगने में भिखारी ही हैं। हां छोटा भिखारी मंदिर की दहलीज के बाहर मांग रहा है और बड़ा भिखारी मंदिर की दहलीज के भीतर मांग रहा है। बाहर वाले पेट के लिये, भीतर वाला बिन पेंदी की पेटी भरने के लिये।

सिद्धालय में बार-बार आवाजें आती हैं, वर्तमान के वर्धमान की आवशयकता है, पर इन्हें चौथे काल वाले वर्धमान से कोई सरोकार ही नहीं, इन्हें तो पत्थर वाले वर्धमान चाहिये। मैं इनके बीच खड़ा हूं, पर देख ऐसे रहे हैं जैसे कोई नाटक मण्डली का कलाकार हो।

सामने दिख रहा हूं, साधु बोल रहे हैं हमें वर्धमान महावीर की जयंती नहीं जन्म कल्याणक मनाना है, तीर्थकरों के जन्म कल्याणक होते हैं, कई सफेद भगवा कपड़ो में मेरी ही मूरत पर अभिषेक कर रहे हैं। किसी ने जल डालने के पांच लाख दिये, किसी ने दो लाख तो कहीं दो-चार हजार भी कहीं तो मूरत भी आंसू बिखेर रही है, क्यों कि उन पर जल डालने वाला ही नहीं है। कहीं पाइप से धो रहा है, तो कहीं वो पहले जिनालय में झाडू रख रहा था, अब हाथ पोछ कर मेरी मूरत पर पानी डालकर रस्म निभा रहा है। कोई मोबाइल पर बधाई दे रहा है मेरी तस्वीर की बजाये, बुद्ध की तस्वीर लगा रहा है, फर्क ही नहीं समझ पा रहा।

क्या वर्तमान को वर्धमान की आवश्यकता है? नहीं इन्हें वर्धमान नहीं चाहिये, इन्हें ना मोक्ष शब्द से मतलब है। संसार रूपी दलदल में आकंठ तक डूबे हैं। इन्हें वर्धमान नहीं अच्छे इंसान पहले बनने की कोशिश करनी होगी। आवाज लग रही थी बोलो वर्धमान स्वामी के 2623 वें जन्म कल्याणक की जय और वर्धमान का वह रूप उसी में ओझल हो गया।