एक लंबी प्रतीक्षा के बाद भी जब कोई सुपरफास्ट, एक्सप्रेस ट्रेन आने की आशा धूमिल होने लगती है तब यात्री गंतव्य स्थान पर पहुंचने के लिए जो भी वाहन दिखता है उसी को प्राथमिकता देता है। बिल्कुल यही स्थिति लव जिहाद की है। इधर-उधर दौड़ने भागने के बाद जब साधर्मी और सजातीय (प्रतीकों के रूप में कहूं तो द्रुतगामी और एक्सप्रेस ट्रेन) खोखा (करोड़) और पेटी (लाखों) के अभाव में निगाहें फेर लेते हैं।
तब हताशा के बाद धन-श्रेष्ठियों की मांग पूरी करने में असमर्थ होने पर कैसा धर्म, कैसी जाति? एक ही विकल्प जिसने भी मुस्कुरा कर देख लिया उसी के साथ जुड़ाव शुरू।
बस इस मजबूरी को ही लव जिहाद कहते हैं। इसमें ना कोई लव है ना कोई जिहाद है न कोई साजिश है। है तो केवल परिस्थितिजन्य मजबूरी। यह मजबूरी भी धन-प्रधान समाज के द्वारा ही पैदा की जा रही है।
साधर्मी और सजातीय जीवनसाथी उपलब्ध क्यों नहीं होते? हमारी समाज विशेष में हर चीज को, पारिवारिक स्तर, सामाजिक स्टेटस और यहां तक के धर्म को भी अब धन की तराजू पर तोला जाने लगा है। बिना धन के न कोई पहचान है, न कोई सम्मान है। सामाजिक या धार्मिक अनुष्ठान हो या धार्मिक प्रक्रियाएं हो सब में धन की ही चमक-दमक है, धन का ही बोलबाला है। हालात तो यहां तक हो गए हैं कि अपरिग्रह की महिमा भी परिग्रह के मुख से ही बखानी जाने लगी है।
कन्या पक्ष बेटी के लिए सारी सुख-सुविधायें खोजता है। वहीं वर पक्ष इसकी मनचाही कीमत वसूलता है। इसी सौदेबाजी और ऊहा-पोह में उम्र भी बीतती जाती है। धन-प्रमुख हमारी समाज में बिना खोखे और पेटियों के किसी भी कन्या के हाथों में हल्दी नहीं लगती। इस सब की जोड़-गांठ करने में नेतिक-अनेतिक हर तरह से धन कमाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है, भ्रष्टाचार पनपता हैं। धन कि नींव पर परिवार का महल अधिक सुखद और टिकाऊ भी नहीं होता।
आरोप किसी को भी दे दें, इस विसंगति का एकमात्र कारण हम हैं और समाधान भी हम ही हैं। बस इतना करना होगा कि समाज और धर्म को धन की चकाचौंध से अलग कर दिया जाए। सामाजिक स्तर, स्टेटस, धार्मिक होना, ना होना धन के ऊपर आधारित ना हो। केंद्र में धन के स्थान पर गुण, योग्यता, शिक्षा, संस्कारों को वरीयता दी जाए।
जिस दिन धन नेपथ्य में चला जाएगा उस दिन न केवल परिवारों के अपितु युवा-युवतियों के गुण, संस्कार उजागर होकर लोगों की पहली पसंद बनने लगेंगे। यह जाग्रति किसी कॉन्फ्रेंस, किसी वेबीनार किसी आंदोलन से आने वाली नहीं। बहुत कुछ कर सकते हैं तो “ग्राउंड ज़ीरो” पर समाज के शीर्ष पर विराजमान लोग। धन को लेकर भेदभाव को मिटा कर। स्वयं उदाहरण बन समाज को दिशा-निर्देश दे कर। सामाजिक, धार्मिक सभी कार्यक्रम,अनुष्ठान सादगी से मना कर। प्रतिष्ठा, सम्मान और विद्वता के मापदंड को धन से अलग कर।
– डॉ. निर्मल जैन (जज) , 9810568232